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रविवार, 8 मई 2011

माँ तुम्हें प्रणाम !.....................रेखा श्रीवास्तव, श्यामल सुमन


हमको जन्म देने वाली माँ और फिर जीवनसाथी के साथ मिलनेवाली दूसरी माँ दोनों ही सम्मानीय हैं। दोनों का ही हमारेजीवन मेंमहत्वपूर्ण भूमिका होती है।
इस मदर्स डे पर 'अम्मा' नहीं है - पिछली बार मदर्स डे पर उनकेकहे बगैर ही ऑफिस जाने से पहले उनकी पसंदीदाडिश बना कर दीतो बोली आज क्या है? शतायु होने कि तरफ उनके बड़ते कदमों नेश्रवण शक्ति छीन ली थी।इशारेसे ही बात कर लेते थे। रोज तो उनकोजो नाश्ता बनाया वही दे दिया और चल दिए ऑफिस।
वे अपनी बहुओं के लिए सही अर्थों में माँ बनी। उनके बेटे काफी उम्रमें हुए तो आँखों के तारे थे और जब बहुएँ आयींतो वे बेटियाँ होगयीं। अगर हम उन्हें माँ कहें तो हमारी कृतघ्नता होगी। वे दोनोंबहुओं को बेटी ही मानती थीं।
मैं अपने जीवन की बात करती हूँ। जब मेरी बड़ी बेटी हुई तभी मेराबी एड में एडमिशन हो गया। मेरा घरऔरकॉलेज में बहुत दूरी थी - घंटे लग जाते थे। कुछ दिन तो गयी लेकिन यह संभव नहीं होपा रहा था। कालेज के
पास घर देखा लेकिन मिलना मुश्किल था।किसी तरह से एक कमरा और बरामदे का घर मिला जिसमें खिड़कीथी और रोशनदान लेकिन मरता क्या करता? मेरीअम्मा ने विश्वविद्यालय की सारी सुख सुविधा वाले घर कोछोड़करमेरे साथ जाना तय कर लिया क्योंकि बच्ची को कौन देखेगा?
कालेज से लंच में घर आती और जितनी देर में बच्ची का पेट भरतीवे कुछ कुछ बनाकर रखे होती और मेरेसामने रख देती कि तू भीजल्दी से कुछ खाले और फिर दोनों काम साथ साथ करके मैं कॉलेजके लिए भागती।बेटी को सुला कर ही कुछ खाती और कभी कभी तोअगर वह नहीं सोती तो मुझे शाम को ऐसे ही गोद में लिएहुएमिलती . मैं सिर्फ पढ़ाई और बच्ची को देख पाती
मैं सिर्फ
पढ़ाई और बच्ची को देख पाती थी घर की सारी व्यवस्थामेरे कॉलेज से वापस आने के बाद कर लेती थी।मुझे कुछ भी पतानहीं लगता था कि घर में क्या लाना है? क्या करना है? वह समय भीगुजर गया। मेरी छोटी बेटी माह की थी जब मैंने आई आई टी मेंनौकरी शुरू की। घंटे होते थे काम के और इस बीच में इतनी छोटीको bachchi कों कितना मुश्किल होता है एक माँ के लिए शायदआसान हो लेकिन इस उम्र में उनके लिए आसान था लेकिन कभीकुछ कहा नहीं। ऑफिस के लिए निकलती तो बेटी उन्हें थमा करऔर लौटती तो उनकी गोद से लेती।
मैं आज इस दिन जब वो नहीं है फिर भी दिए गए प्यार और मेरेप्रति किये गए त्याग से इस जन्म
में हम उरिण नहीं हो सकते हैं मेरे सम्पूर्ण श्रद्धा सुमन उन्हें अर्पित
है

माँ......श्यामल सुमन


मेरे गीतों में तू मेरे ख्वाबों में तू,
इक हकीकत भी हो और किताबों में तू।
तू ही तू है मेरी जिन्दगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

तू न होती तो फिर मेरी दुनिया कहाँ?
तेरे होने से मैंने ये देखा जहाँ।
कष्ट लाखों सहे तुमने मेरे लिए,
और सिखाया कला जी सकूँ मैं यहाँ।
प्यार की झिरकियाँ और कभी दिल्लगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

तेरी ममता मिली मैं जिया छाँव में।
वही ममता बिलखती अभी गाँव में।
काटकर के कलेजा वो माँ का गिरा,
आह निकली उधर, क्या लगी पाँव में?
तेरी गहराइयों में मिली सादगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

गोद तेरी मिले है ये चाहत मेरी।
दूर तुमसे हूँ शायद ये किस्मत मेरी।
है सुमन का नमन माँ हृदय से तुझे,
सदा सुमिरूँ तुझे हो ये आदत मेरी।
बढ़े अच्छाईयाँ दूर हो गन्दगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।