कुछ आढे तिरछे
शब्द लिखे
चाहती थी
कविता लिखना
उन तमाम पलों की
जिनमें मैने
उम्र को जीया
बचपन के वो नटखट पल
उछलना कूदना
धूम मचाना
आँख मिचौली
छूना छुआना
कुछ खो कर भी
हंसते जाना
दादी नानी की
कहानियों से
दिल बहलाना
परियों के संग
आसमान मे उडते जाना
मिट्टी के संग मिट्टी
हो जाना
फिर बरखा की
रिमझिम मे
किलकारियां मार नहाना
तालाब मे तैर घडे पर
उस पार निकल जाना
फिर हंसते खेलते
यौवन का आना
खेल खेल मे
किसी के दिल की
धडकन हो जाना
छुप सखियों से
ख्वाबों के महल बनाना
फिर एक हवा के झोंके से
ख्वाबों का उड जाना
एक पीडा एक अनुराग का
ऐहसास रह जाना
फिर दुनियां की रस्मों को
रिश्तों मे निभाना
उन पन्नो मे
ममता के क्षण पाना
वत्सल्य के ऐह्सास से
छातिओं से दूध कि धारा बह जाना
नटखट किल्कारियों मे
सब दुख भूल जाना
फिर इस ड्गर पर कुछ
आढी तिरछी रेखाओं का आना
रिश्तों का
रिश्तों से टकराना
फिर ममता के पंछिओं का
अपनी डगर उड जाना
फिर लिखते लिखते
मेरी कलम का रुक जाना
क्या खोया क्या पाया क
हिसाब लगाना पर
सोचने पर भी कुछ
हाथ ना आना
यहाँ से मेरी कलम ने
मोड लिया
मुझे इक सच्चाई से जोड दिया
कि जीवन नहीं रुकने का नाम्
करना है कुछ अच्छा काम
इस कलम को अपना
धर्म् बना लो
इस समाज के लिये भी
कुछ लिख डालो
बस अब लिखना छाहती हूँ
कविता कविता कविता