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सोमवार, 8 जून 2009

पिसता बचपन


बच्चों को हम
भगवान की देन मानते हैं,
अपनी जीवन-बगिया में
बच्चों की किलकारी चाहते हैं।
वे बच्चे जो प्यार का पर्याय हैं,
वे बच्चे जो हमारा अरमान हैं,
जिनके अन्तर में छिपीं हैं
अनेक आशायें,
आँखों में जिनकी
सपने सजे हैं।
आज हम कितनी बेरहमी से
मिटा रहे हैं
उनके सपनों को,
उनकी आशाओं को।
उम्र जो है खेलने की
उसको घर-गृहस्थी में
लगा रहे हैं।
करके मेहनत मजदूरी
घर वालों को पाल रहे हैं।
उनींदी आँखों में सपने,
दिल में उमंग लिए,
निकल पड़ते हैं
हाथ में रोटी पाने के
औजार लिए।
हर कदम के नीचे कुचलते
अपना बचपन,
हर साँस में मिटाते
अपना जीवन।
खो गई बालपन की हँसी
इन पसाने की बूँदों में छलक कर।
जिनके लिए पढ़ना, खेलना
एक छलावा है,
जिन्दगी का हर सुख
एक दिखावा है।
एक दिखावा हम भी कर रहे हैं,
एक छलावा हम भी दे रहे हैं,
नारों और लेखों के सहारे
मिटाना चाहते हैं
उनके अँधियारे।
चन्द सिक्के मासूम हाथों में रख
कर्तव्य की इतिश्री करते हैं।
बाद इसके लग जाते हैं
अपने परिवार का भविष्य बनाने को,
छोड़ देते हैं मासूम बचपन
फिर यूँ ही भटक जाने को।

मेरी मां - ( कविता ) मुस्तकीम खान

जन्नत मुझको दिला दी जिसने दुनिया में
वो है मेरी माँ
दुनिया में जीने का हक दिया मुझको
वो है मेरी माँ
कचरे का ढ़ेर नदिया किनारा था मेरा
मुझको अपनी दुनिया बना ली
वो है मेरी माँ
रात का अंधेरा मेरी आखों का डर
मेरे डर मेरी ताकत बनी
वो है मेरी माँ
मैं डर क़र ना सोया पूरी रात कभी
मेरे लिए जागकर मुझे सुलाया
वो है मेरी माँ
कभी परेशानी मेरा सवब जो बनी
मेरे रास्ते में फूल जिसने बिखेरे
वो है मेरी माँ
मेरे जुर्म की सजा खुद ने पाई
मुझको अपने आचंल में छुपा लिया
वो है मेरी माँ
मंदिर मस्जिद ना किसी की खबर मुझको
ना गीता कुरान का ज्ञान मुझको
फिर भी मुझको जहन्नुम से बचाय
वो है मेरी माँ
कहते हैं लोग
माँ के कदमो में जन्नत होती है
मैंने कहा
जन्नत से भी जो ऊपर है
वो है मेरी माँ