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बुधवार, 8 अप्रैल 2009

क्या हम सब बदमाश हैं पिंकी....??[बाल मन ]- भूतनाथ जी

"पिंकी, क्या मैं बदमाश हूँ.....??"
"नहीं तो,कौन कहता है....??"
"देख ना,मम्मी हर समय मुझे बदमाश-बदमाश कह कर डांटती ही रहती है.....??"
"....!!वो तो मेरी मम्मी भी मुझे दिन-रात यही कहती रहती है,सौ-सौ बार से ज्यादा डांटती होंगी मेरी मम्मी दिन भर में मुझे....!!और पापा भी तो कम नहीं नहीं है....एक तो रात को घर लौटते हैं....ऊपर से मम्मी उन्हें जो भी पढ़ा देती हैं,उसी पर मेरी वाट लगा देते हैं....!!"
"हाँ यार !!मेरा भी यही हाल है...और मेरा-तेरा ही क्यों हमारे सब दोस्तों का भी तो यही हाल है...सोचते हैं कि रात को पापा के आते ही उनको मम्मी के बारे में बताएँगे....कि उन्होंने हमें डांटा...हमें मारा....लेकिन ये पापा लोग भी मम्मी की ही सुनते हैं...बच्चों की बात पर तो विश्वास ही नहीं करते...!!"
"राहुल !!ये पापा लोग ऐसे क्यूँ होते हैं....??देख ना जब भी पापा हमें प्यार करते होते हैं कि रसोई से मम्मी जाती हैं....और कुछ ना कुछ ऐसी बात पापा को बता जाती हैं....कि पापा उल्टा ही हम पर पिल जाते हैं....उन्हें हमारी बात से कोई मतलब ही नहीं होता....!!"
"पता नहीं पिंकी....!!शायद मम्मी लोग कुछ ना कुछ जादू जानती जानती हैं...तभी तो प्यार करते हुए पापा भी अचानक आग-बबूला हो जाते हैं....और हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम....!!बस एक ही बात...कि बदमाशी-बदमाशी-बदमाशी....ये बदमाशी ना हुई....भूत हो गई,जो हर समय हमारे पीछे पड़ी रहती है.....!!"
"हाँ राहुल..!!टी.वी देखो तो नहीं....गुडियों से खेलो तो नहीं...लुक्का-छिपी खेलो तो बोलेंगी बैठ कर खेलो...बैठ कर खेलो तो बोलेंगी हल्ला मत करो.....फिर हम क्या करें राहुल.....??"
"अरे यार यही तो मेरी समझ नहीं आता !!मैं अपनी छोटी कार फर्श पर या मेज पर चलता हूँ....तो नहीं....किसी छोटे बच्चे से खेलता हूँ....तो किसी बात पर वो रोने लगे....तो रसोई से ही मुझ पर चिल्लायेंगी...राहुल उसे मत छेडो
...क्या मैं कोई शैतान का बच्चा हूँ....जो सबको छेड़ता रहता हूँ....??"
"अब देखो ना राहुल....कल मैं आँगन वाले अमरुद के पेड़ पर चढ़ गई तो मेरी मम्मी कितना जोर से चीखी थीं....उस वक्त पापा भी तो घर में ही थे....झटपट वो बाहर निकले....तडातड उन्होंने मुझपर थप्पड़ बरसा दिए....कहने लगे लडकियां पेड़ पर नहीं चढ़तीं.....क्यूँ-क्यूँ...लडकियां पेड़ पर क्यूँ नहीं चढ़तीं ??"
"अरे बाप रे !!पेड़ पर चढ़ने के लिए तो अब तक मुझे इतनी मार मिल चुकी कि अब तो मुझे याद भी नहीं कि कितनी.....!!और तू लड़की की बात करती है....मैं तो लड़का हूँ....!!"
"....तो फिर हम करें तो क्या करें राहुल....मैं तो अब बड़ी तंग चुकी हूँ....इन पापा-और मम्मियों से....वैसे मैं पापा से बहुत प्यार करती हूँ....और वो भी मुझे....मम्मी से तो बहुत ही ज्यादा....मगर मेरी कभी नहीं सुनते....जब मम्मी उन्हें पट्टी पढ़ा देती हैं....!!"
"मैं भी यही सोचता हूँ....ये बदमाश शब्द तो हमारा पीछा ही नहीं छोड़ रहा.....!!"
"राहुल...!!ये बदमाश शब्द भला किसने बनाया है....चलो हम उसे मारते हैं.....!!"
"अरे पगली...!!ये तो डिक्शनरी में होता है....कोई बनाता थोडी ना है....!!"
" !!तो फिर बच्चे क्या करें.....??"
"मेरे दिमाग एन एक आईडिया आया है....!!"
"क्या ??...जल्दी बता ना.....!!"
"चल आज हम सब बच्चे शाम को पार्क में एक मीटिंग करते हैं....सब बच्चे तो अपने माँ-बाप से त्रस्त हैं ही...सब के सब हमारी बात जरूर मान लेंगे...और हम अपनी मांग मनवाने के लिए मोहल्ले में जुलुस निकालेंगे....!!
"धत्त !!.........जुलुस निकालेंगे.....सब को ही घर में और जोर की मार पड़ेगी....कान उमेठे जायेंगे....दर्द से बिलबिलाओगे ना.....तब पता चलेगा...हूँ जुलुस निकालेंगे....!!तुम भी ना राहुल....बिल्कुल मूर्खों वाले आईडिये खोज-खोज कर लाते हो....!!"
"तो क्या करें हम....क्या करें.....??"
"हम कुछ नहीं कर सकते....क्योंकि इस मामले में माँ-बापों की बड़ी तगडी तुकबंदी है....लगता है कोई यूनियनबाजी है....इन सके बीच....!!"
"तो क्या.... कोई उपाय नहीं....??"
"नहीं....!!मुझे तो दूर-दूर तक कोई उपाय नहीं दिखायी देता....!!"
"तो क्या ,हम सब इसी तरह मजबूर होकर जियें....??"
"सब ही तो जी रहे हैं....!!"
"तुम तो बिल्कुल डरपोक हो....मैं जाता हूँ किसी और के पास.....उसी से बात करूँगा....देख लेना पापा-मम्मी को तो हमारी बात माननी ही पड़ेगी....!!"
"हा-हा-हा-हा-हा-हा....!!तो जाओ ना....आज तुम सब बच्चों को मिला कर दिखा ही दो....जोर से चिल्ला कर कहों ना...दुनिया के बच्चों एक हों....हा-हा-हा-हा

रिश्ते.......................निर्मला कपिला जी

ये रिश्ते अजीब रिश्ते,
कभी आग
तो कभी ठंड़ी बर्फ
नहीं रहते,
एक से सदा
बदलते हैं ऐसे
जैसे मौसम के पहर
उगते हैं
सुहाने लगते हैंबैसाख के सूरज की,
लौ फूटने से पहले
पहर जैसे,
बढ़ते हैं
भागते हैं,
जेठ आषाढ़ की
चिलचिलाती धूप की
सांसों जैसे
पड़ जाती है दरारें
सावन भादों के
कड़कते मेघों जैसे
बरसते
और बह जाते
बरसाती नदी नालों जैसे
रह जाती हैं,
बस यादें
पौष माघ की
सर्द रातों में
दुबकी सी,
मन के किसी कोने में
और निरन्तर
चलता रहता
चलता रहता
रिश्तों का
यह सफर।।

यह रचना " सुबह से पहले " कविता संग्रह से प्रकाशित की गयी है ।