अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।
सिस कटा कर भी तुम,
क्या बचा पाओगे अपने शान को,
बेईमानी के अंधकार में,
क्या देख पाओगे अपने मान को।
अपने अमिट उत्कर्ष को क्या वापस ला पाओगे तुम,
जहाँ भ्रष्टाचार है वहाँ शांति करवा पाओगे तुम।
रग रग में बहते रक्त की,
क्या नाश बचा पाओगे तुम।
अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।
आशा नहीं विश्वास है,
फिर भी मन में क्यों थोड़ा काश है।
कि अगर विजय न पाओगे,
मदभाल में घिर जाओगे,
शांति का जब करोगे त्याग,
हिंसा पर उतर आओगे।
विजय श्री लेने पर ही यह भूख प्यास मिट पायेगी।
अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।
आज वक्त है उत्थान का,
एकता का और मिलान का,
है सो गया आज जो जमीन,
पा जाओगे तुम उसे कभी।
है मिट गया आज जो कभी,
याद कर पाओगे उन्हें कभी।
अपने शहीदों के शहादत की लाज बचा पाओगे तुम,
उनकी याद में फिर वो जोश दिलों में जगा पाओगे तुम।
हर पल बदलते रुख को,
क्या मोड़ दोगे तुम यही।
अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।
मन में ये कैसा द्वंद है,
दूरियाँ इसे क्यूँ नापसंद है।
सीमा के इस जंजाल में,
देशप्रेम के ही ढ़ाल में,
क्यूँ घिर गया है मन मेरे काँटों से उलझे जाल में,
क्यूँ रोकता है मुझको वो अपनी सरहद के पार में।
हम है ये कैसे होड़ में,
चंचल हवा के जोर में,
क्यूँ बदले है अब ये जमीन,
क्यूँ लगता है फिर भी कमी।
लगता है तुम पा गए हो क्या,
उस अमिट प्रेम को फिर कहीं।
अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।