लोग मुझको कहें ख़राब तो क्या
और मैं अच्छा हुआ जनाब तो क्या
है ही क्या मुश्तेख़ाक से बढ़ कर
आदमी का है ये रुआब तो क्या
उम्र बीती उन आँखों को पढ़ते
इक पहेली सी है किताब तो क्या
मैं जो जुगनु हूँ गर तो क्या कम हूँ
कोई है गर जो आफ़ताब तो क्या
ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये
माँगता है वही हिसाब तो क्या
मिलते ही मैं गले नहीं लगता
फिर किसी को लगा खराब तो क्या
आ गया जो सलीका-ए-इश्क अब
’दोस्त’ मरकर मिला सवाब तो क्या
और मैं अच्छा हुआ जनाब तो क्या
है ही क्या मुश्तेख़ाक से बढ़ कर
आदमी का है ये रुआब तो क्या
उम्र बीती उन आँखों को पढ़ते
इक पहेली सी है किताब तो क्या
मैं जो जुगनु हूँ गर तो क्या कम हूँ
कोई है गर जो आफ़ताब तो क्या
ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये
माँगता है वही हिसाब तो क्या
मिलते ही मैं गले नहीं लगता
फिर किसी को लगा खराब तो क्या
आ गया जो सलीका-ए-इश्क अब
’दोस्त’ मरकर मिला सवाब तो क्या