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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

प्रेम से परहेज नहीं है ........कविता ........[आशुतोष ओझा]



प्रेम से परहेज नहीं है
लेकिन
उसके ' नरभक्षी' होने से
डरता हूँ।
देह का अपना प्रमेय है
उसमें अंक नहीं
सिर्फ, रेखायें ही दिखती हैं
उनके उतार-चढ़ाव की कोणदृष्टि
से बनी ' गजगामिनी'
सभी को भाती है
लेकिन,
जांघों के बीच समां जाने को
परिणति नहीं मानता
प्रेम से परहेज नहीं है
लेकिन,
उसके 'नरभक्षी' होने से
डरता हूँ।

गंगा में डुबकी लगाना
मन वचन और कर्म से पावन है
लेकिन
खापों और पंचायतों के सम्मान में
असमय उसमें समा जाने की
' कायरता ' को
प्रेम के लिए परित्याग नहीं मानता
प्रेम से परहेज नहीं है
लेकिन
उसके ' नरभक्षी' होने से
डरता हूँ ।

प्रेम की संकरी गली में
'संत ' बनकर आराधना करना
सौभाग्य है
लेकिन
विरह, वियोग , विछोभ
बेबसी के निश्चित ' प्रसाद ' को
बेहूदा न्याय मानता हूँ।
प्रेम से परहेज नहीं है
लेकिन
उसके' नरभक्षी' होने से डरता हूँ ।।।।


प्रस्तर प्रतिमा ------[ डाo श्याम गुप्त ]

वे बहुत बड़े ज्ञानी हैं ,
विद्वान् हैं,नामी हैं, मानी हैं;
ऊँचे पद पर बैठे हैं ,
स्वयं में बहुत ऊंचाई समेटे हैं |
जनता उनके पास पहुँच भी नहीं पाती है,
उनकी ओर देखने पर ,
लोगों की टोपी गिर जाती है |
वे जन जन के काम कहाँ आते हैं,
वे आदमी कहाँ ,
पत्थर की निर्जीव मूर्ति नज़र आते हैं ||