शाम की छाई हुई धुंधली
चादर से
ढ़क जाती हैं मेरी यादें ,
बेचैन हो उठता है मन,
मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको ,
उन जगहों पर ,
जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी ,
बैठकर वहां मैं
महसूस करना चाहता हूँ तुमको ,
हवाओं के झोंकों में ,
महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को ,
देखकर उस रास्ते को
सुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को ,
और
देखना चाहता हूँ
टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा ,
देर तक बैठ
मैं निराश होता हूँ ,
परेशान होता हूँ कभी कभी ,
आखें तरस खाकर मुझपे,
यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर ,
मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर ,
थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,
इन्ही आंसूओं नें मुझे बचाया है टूटने से ,
फिर मैं उठता हूं
फीकी मुस्कान लिये
एक नयी शुरूआत करने ।