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सोमवार, 30 नवंबर 2009

अनजाने रिश्ते का एहसास

अनजाने रिश्ते का एहसास,


बयां करना मुश्किल था ।

दिल की बात को ,

लबों से कहना मुश्किल था ।।


वक्त के साथ चलते रहे हम ,

बदलते हालात के साथ बदलना मुश्किल था ।

खामोशियां फिसलती रही देर तक,

यूँ ही चुपचाप रहना मुश्किल था ।।


सब्र तो होता है कुछ पल का ,

जीवन भर इंतजार करना मुश्किल था ।

वो दूर रहती तो सहते हम ,

पास होते हुए दूर जाना मुश्किल था ।।


अनजाने रिश्ते का एहसास ,
बयां करना मुश्किल था ।।

शनिवार, 28 नवंबर 2009

तुम्हें याद करते ही --------{किशोर कुमार खोरेन्द्र


-क्या
मै
ठीक ठीक व्ही हू
जो मै होना चाहता था
या
हो गया हू वही
जो मै होना चाहता हू
काई को हटाते ही
जल सा स्वच्छ
किरणों से भरा उज्जवल
या
बूंदों से नम ,हवा मे बसी
मिट्टी की सुगंध
या -सागौन के पत्तो से ..आच्छादित -भरा-भरा सा सुना हरा वन

-मै योगीक हू
अखंड ,अविरल ,-प्रवाह हू
लेकीन
तुम्हें याद करते ही -
जुदाई मे .....
टीलो की तरह
रेगिस्तान मे भटकता हुवा
नजर आता हू
नमक की तरह पसीने से तर हो जाता हू
स्वं को कभी
चिता मे ...
चन्दन सा -जलता हुवा पाता हू - और टूटे हुवे मिश्रित संयोग सा
कोयले के टुकडो की तरह
यहाँ -वहां
स्वयम बिखर जाता हू -सर्वत्र


-लेकीन तुम्हारे प्यार की आंच से
तप्त लावे की तरह
बहता हुवा
मुझ स्वपन को
पुन: साकार होने मे
अपने बिखराव को समेटने मे
क्या बरसो लग जायेंगे ......
टहनियों पर उगे हरे रंग
या
पौधे मे खिले गुलाबी रंग
या
देह मे उभर आये -गेन्हुवा रंग
सबरंग
पता नही तुमसे
कब मिलकर
फ़ीर -थिरकेंगे मेरे अंग -अंग

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

आज तुम फिर मुझसे खफा हो .........जानता हूँ मैं

आज तुम फिर खफा हो मुझसे,
जानता हूँ मैं,
न मनाऊगा तुमको,
इस बार मैं।
तुम्हारा उदास चेहरा,
जिस पर झूठी हसी लिये,
चुप हो तुम,
घूमकर दूर बैठी,
सर को झुकाये,
बातों को सुनती,
पर अनसुना करती तुम,
ये अदायें पहचानता हूँ मैं,
आज तुम फिर खफा हो मुझसे,
जानता हूँ मैं।
नर्म आखों में जलन क्यों है?
सुर्ख होठों पे शिकन क्यों है?
चेहरे पे तपन क्यों है?
कहती जो एक बार मुझसे,
तुम कुछ भी,
मानता मै,
लेकिन बिन बताये क्यों?
आज तुम फिर खफा हो मुझसे,
जानता हूँ मै।।

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

भूख का एहसास - लघुकथा (कुमारेन्द्र सिंह सेंगर)

उसने पूरी ताकत से चिल्लाकर कुछ पाने की गुहार लगाई। कई बार आवाज लगाने और दरवाजा भड़भड़ाने पर अंदर से घर की मालकिन बाहर निकलीं।

-‘‘क्या है? क्यों शोर कर रहे हो?’’

-‘‘कुछ खाने को दे दो, दो दिन से कुछ खाया नहीं’’ उस बच्चे ने डरते-डरते कहा।.............‘‘बहुत भूख लगी है’’ लड़के ने अपनी बात पूरी की।

मालकिन ने उसको ऊपर से नीचे तक घूरा और कुछ कहती उससे पहले अंदर से उसके बेटे ने साड़ी खींचते हुए अपनी माँ से सवाल किया-‘‘मम्मी, भूख क्या होती है?’’

उस औरत ने अपने बच्चे को गोद में उठाकर दरवाजे के बाहर खड़े बच्चे को देखा और कुछ लाने के लिए घर के अंदर चली गई।

बादलों में चांद छिपता

बादलों में चांद छिपता है,

निकलता है ,

कभी अपना चेहरा दिखाता है ,

कभी ढ़क लेता है ,

उसकी रोशनी कम होती जाती है

फिर अचानक वही रोशनी

एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेज होती जाती है ।

मैं इस लुका छिपी के खेल को

देखता रहता हूँ देर तक,

जाने क्यूँ बादलों से

चांद का छिपना - छिपाना

अच्छा लग रहा है ,

खामोश रात में आकाश की तरफ देखना ,

मन को भा रहा है ,

उस चांद में झांकते हुए

न जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।

ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास

बार - बार हो रहा है ।

तुम्हारी यादें चांद ताजा कर रहा है,

मैं तुमको भूलने की कोशिश करके भी ,

आज याद कर रहा हूँ ,

इन यादों की तड़प से

मन विचलित हो रहा है ,

शायद चांद भी ये जानता है कि-

मैं तुम्हारे बगैर कितना तन्हा हूँ ?

अधूरा हूँ ,

ये चांद तुम्हारी यादें दिलाकर

तुम्हारी कमी को पूरा कर रहा है


बुधवार, 25 नवंबर 2009

इंण्डिया कहकर गर्व का अनुभव करते हैं -------(मिथिलेश दुबे)

सन् १९४७ में भारत और भारतवासी विदेश दासता से मुक्त हो गये। भारत के संविधान के अनुसार हम भारतवासी 'प्रभुता सम्पन्न गणराज्य' के स्वतन्त्र नागरिक है। परन्तु विचारणीय यह है कि जिन कारणो ने हमें लगभग १ हजार वर्षो तक गुलाम बनाये रखा था , क्या वे कारण निशेःष हो गये है? जिन संकल्पो को लेकर हमने ९० बर्षो तक अनवरत् संघर्ष किया था क्या उन संकल्पो को हमने पूरा किया है? हमारे अन्दर देश शक्ति का अभाव है। देश की जमीन और मिट्टी से प्रेम होना देशभक्ति का प्रथम लक्षण माना गया है। भारत हमारी माता है उसका अंग- प्रत्यंग पर्वतो, वनो नदियो आदि द्वारा सुसज्जित है उसकी मिट्टी के नाम पर हमें प्रत्येक बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। राणा प्रताप सिंह शिवाजी से लेकर अशफाक उल्लाह महात्मा गांधी आदि तक वीर बलिदानियो तक परम्परा रही , परन्तु अब यह परम्परा हमें प्रेरणा प्रदान नहीं करती। आज हम अपने संविधान मे भारत को इंण्डिया कहकर गर्व का अनुभव करते हैं, और विदेशियों से प्रमाण पत्र लेकर गौरवान्वित होने का दम्य भरते है। हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन की जिस भाषा द्वारा देश मुक्त किया गया, उस भाषा हिन्दी को प्रयोग में लाते हुए लज्जा का अनुभव होता है।


अंग्रजी भक्त भारतीयों की दासता को देखकर सारी दुनिया हमपर हँसती है। वह सोचती है कि देश गूँगा है जिसकी कोई अपनी भाषा नहीं है उसको तो परतन्त्र ही बना ही रहना चाहिए बात ठीक है विश्व में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ के राजकाज में तथा तथाकथित कुलीन वर्ग में एक विदेशी भाषा का प्रयोग किया जाता है। आप विचार करें कि वाणी के क्षेत्र में आत्महत्या करने के उपरान्त हमारी अस्मिता कितने समय तक सुरक्षित रह सकेंगी। राजनीति के नाम पर नित्य नए विभाजनो की माँग करते रहते है। कभी हंमे धर्म के नाम पर सुरक्षित स्थान चाहिए तो कभी अल्पसंख्यको के वोट लेने के लिए संविधान में विशेष प्रावाधान की माँग करते हैं। एक वह युग था जब सन् १९०५ में बंगाल विभाजन होने पर पूरा देश उसके विरोध में उठ खड़ा हुआ था। परन्तु आज इस प्रकार की दुर्घटनाएं हमारे मर्म का स्पर्श नहीं करती हैं। सन् १९४७ में देश के विभाजन से सम्भवतः विभाजन-प्रक्रिया द्वारा हम राजनीतिक सौदेबाजी करान सीख गए हैं। हमारे कर्णधारों की दशा यह है कि वे किसी भी महापुरुष के नाम पर संघटित हो जाते है तथा उसके प्रतिमा स्थापन की विशेष अधिकारो की माँग करने लग जाते है। यहाँ तक कि राजघाट में राष्ट्रपिता की समाधि के बराबर में समाधि-स्थल की माँग करते हैं। हमारे युवा वर्ग को विरासत में जो भारत मिलने वाला है उसकी छवि उत्साह वर्धक नहीं है। भारत में व्याप्त स्वार्थपरता तथा संकुचित मानसिकता को लक्ष्य करके एक विदेशी पत्रकार ने एक लिख दिया था कि भारत के बारे में लिखना अपराधियों के बारे में लिखना है। आपातकाल के उपरान्त एक विदेशी राजनयिक ने कहा था कि भारत को गुलाम बनाना बहुत आसान है, क्योंकी यहाँ देशभक्तो की प्रतिशत संख्या बहुत कम है। हमारे युवा वर्ग को चाहिए कि वे संघठित होकर देश-निर्माण एंव भारतीय समाज के विकास की योजनाओं पर गम्भीरतापुर्वक चिन्तन करें उन्हे संमझ लेना चाहिए कि हड़तालो और छुट्टियाँ मनाने से न उत्पादन बढता है और न विदेशी कर्ज कम होगा। नारेबाजी और भाषणबाजी द्वारा न चरित्र निर्माण होता है और न राष्ट्रियता की रक्षा होती है। नित्य नई माँगो के लिए किये जाने वाले आन्दोलन न तो महापुरुषो का निर्माण करते है और न स्वाभिमान को बद्धमूल करते हैं ।

आँखे खोलकर अपने देश की स्थिति परिस्थिति का अध्ययन करें और दिमाग खोलकर भविष्य-निर्माण पर विचार करें। पूर्व पुरुषो को प्रेरणा -स्त्रोत बनाना सर्वथा आवश्यक है। परन्तु उनके नाम की हुण्डी भुनाना सर्वथा अनुचित होने के साथ अपनी अस्मिता के साथ खिलवाडठ करना है। देश की अखण्डता की रक्षा करने में समर्थ होने के लिए हमें स्वार्थ और एकीकरण करके अपने व्यक्तित्व को अखण्ड बनाना होगा। देश की स्वतंत्रता के नाम पर मिटने वाले भारतविरों नें देशभक्ति को व्यवसाय कभी नहीं बनया। हमें उनके चरित्र व आचरण की श्रेष्ठता को जीवन में अपनाना होगा , आज देश की प्रथम आवश्यकता है कि हम कठोर परिश्रम के द्वारा देश के निर्माण मे सहभागी बनें।

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

खामोश रात में तुम्हारी यादें

खामोश रात में तुम्हारी यादें,
हल्की सी आहट के
साथ दस्तक देती हैं,



बंद आखों से देखता हूँ तुमको,
इंतजार करते-करते
परेशां नहीं होता अब,



आदत हो गयी है तुमको देर से आने की,
कितनी बार तो शिकायत की थी तुम से ही,
पर
क्या तुमने किसी बात पर गौर किया ,
नहीं न ,



आखिर मैं क्यों तुमसे इतनी ,
उम्मीद करता हूँ ,
क्यों मैं विश्वास करता हूँ,
तुम पर,



जान पाता कुछ भी नहीं ,
पर तुमसे ही सारी उम्मीदें जुड़ी हैं,
तन्हाई में,
उदासी में ,
जीवन के हस पल में,



खामोश दस्तक के
साथ आती हैं तुम्हारी यादें,
महसूस करता हूँ तुम्हारी खुशबू को,
तुम्हारे एहसास को,



तुम्हारे दिल की धड़कन का बढ़ना,
और तुम्हारे चेहरे की शर्मीली लालिमा को,
महसूसस करता हूँ-




तुम्हारा स्पर्श,
तुम्हारी गर्म सांसे,
उस पर तुम्हारी खामोश और
आगोश में करने वाली मध्धम बयार को।
खामोश रात में बंद पलकों से,
इंतजार करता हूँ तुम्हारी इन यादों को..........

सोमवार, 23 नवंबर 2009

कमली .......................(कहानी )....................नीशू तिवारी

बचपन से ही तंग गलियों में बीता बचपन हमेशा ही एक हसीन सपना बुनता था उसका । मां , बाबा और कमली यही दुनिया थी उसकी । किसी तरह से कमली को उसके बाबा ने पेट तन काट कर पढ़ाने की कोशिश की । आज कमली इण्टर ( १२ वीं ) में दाखिल हुई थी । कमली तो खुश थी ही साथ ही साथ उसके बाबा की खुशी का ठिकाना न रहा था ।

कमली पढ़ाई में अव्वल रही थी हमेशा से ........इस कारण मां और बाबा ने हमेशा कमली को पढ़ाने के लिए कोई कोर कसर न छोड़ी थी । पैसे की कमी होते हुए भी किसी तरह से गुजारा चलता , स्कूल में कमली को टीचर जी ने मुफ्त ही ट्यूशन देने की बात कही थी । कमली भी पूरे मन से पढ़ाई करती और सभी की उम्मीदों पर खरा उतरने की हमेशा कोशिश करती । जैसे तैसे समय बीतता रहा । कमली का व्यक्तित्व , रूप सांवलापन लिये हुए जरूर था पर उसका आकर्षण बहुत ही प्रभावशाली था.. जिससे सभी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते । एक शाम कमली ट्यूशन के लिए टीचर जी के पास गयी थी पर आज जो हुआ वो गुरू शिष्य की परंपरा को सरेआम नंगा कर दिया । जो कुछ था उसके पास वह सब कुछ एक पल में लुट गया था । शर्म के मारे दुपट्टे से मुंह छिपाये सिसकती हुई अपने घर किसी तरह से जा सकी । कमली को डराया और धमकाया गया कि अगर वह किसी से कुछ भी कहती है तो जान से भी हाथ धोना पड़ेगा....... साथ ही साथ क्लास में फेल कर दिया जायेगा ।

ऐसी परिस्थिति में क्या कुछ करें कमली??? वह उसके समझ से परे था । किससे कहे अपनी आप बीती , अपना दर्द । बारवहीं पास करते करते कमली ने अपना मुंह न खोला । कमली अपनी क्लास में पहला स्थान प्राप्त करते हुए परीक्षा पास की । ऐसे में सभी खुश थे पर कमली उदास थी । कमली ने अपने सब्र का बांध तोड़ते हुए अपनी मां को सारी घटना के बारे में बताया । मामला पुलिस के पास पहुंचा । टीचर को कानूनन उम्रकैद की सजा हुई । सरकार ने कमली को नये जीवन को शुरू करने के लिए सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दिया । लेकिन ऐसे में एक नयी शुरूआत करने की कोशिश की । जब सफलता हाथ न लगी तो कमली ने दिहाड़ी मजदूरी कर अपने परिवार को जिंदा रख रही है । । सरकार का कहा हुआ कब पालित होगा पता नहीं ?


आज की जरूरत--------- {निर्मला कपिला }

नारी आज जरूरत आन पडी
नि्रीक्षण् की परीक्षण की
उन सृजनात्मक संम्पदाओं के
अवलोकन की
जिन पर थी
समाज की नींव पडी
प्रभू ने दिया नारी को
करुणा वत्सल्य का वरदान
उसके कन्धों पर
रख दिया
सृष्टी सृजन
शिशु-वृँद क चरित्र और्
भविश्य का निर्माण
बेशक तुम्हारी आज़ादी पर
तुम्हारा है हक
मगर फर्ज़ को भी भूलो मत
अगर बच्ची देश का भविश्य
हो जायेगा दिशाहीन
अपनी सभ्यता संस्कृति से विहीन
तो तेरे गौरव मे क्या रह जायेगा?
क्यों कि बदलते परिवेश मे
आज़ादी के आवेश मे
पत्नि, माँ के पास समय
कहाँ रह जायेगा
उठ,कर आत्म मंथन
कि समाज को दिशा देने की
जिम्मेदारी कौन निभायेगा
ए त्याग की मूरती
तेरा त्यागमयी रूप
कब काम आयेगा
पाश्चात्य सभ्यता से बाहर आ
अपनी गौरवनयी संस्कृति को बचा।।।

रविवार, 22 नवंबर 2009

मजबूर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी----------( मिथिलेश दुबे)

जिस किसी ने भी 'मजबूरी का नाम, महात्मा गांधी' जैसी कहावत का आविष्कार किया, उसकी तारीफ की जानी चाहिए।
महात्मा गांधी का नाम जपना और नीलाम होती उनकी नितांत निजी वस्तुओं को भारत लाना सरकार की मजबूरी है। महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी ने गांधी जी की वस्तुओं को भारत लाने का मुद्दा इतना उछाल दिया कि विशुद्ध मजबूरी में मनमोहन सिंह सरकार को सक्रिय होना पड़ा। लेकिन इस सक्रियता के पीछे कितनी उदासीनता थी, इसका पता सरकार और नीलामी में इन वस्तुओं को खरीदने वाले शराब- निर्माता और प्रसिद्ध उद्योगपति विजय माल्या के दावों- प्रतिदावों से साफ हो जाता है। सरकार बढ़-चढ़कर कह रही थी कि गांधी जी की ऐनक, थाली, कटोरा और चप्पलें आदि खरीदने के लिए अमेरिका में अपने दूतावास को उचित निर्देश दे दिए गए हैं। जब नीलामी में विजय माल्या ने वस्तुएं खरीद लीं, तब बढ़-चढ़कर फिर कहा गया कि माल्या ने सरकार के कहने पर ही ऐसा किया है।

इस दावे पर माल्या ने कहा कि मेरे फैसले का सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। मैं फोन के जरिए नीलामी में भाग ले रहा था। सरकार ने मुझसे न तो नीलामी से पहले और न ही बाद में कोई संपर्क किया। अलबत्ता माल्या इन चीजों को खरीदकर संतुष्ट हैं और इन्हें भारत को सौंपना चाहते हैं। उनकी एक ही इच्छा है कि इन वस्तुओं को भारत लाने पर सीमा शुल्क आदि नहीं लगे। माल्या ने टीपू सुल्तान की तलवार को भी नीलामी में खरीदा था लेकिन अभी भी वह सैन फ्रांसिस्को में ही है। मौजूदा कानूनों के अनुसार राष्ट्रीय धरोहर की वस्तुओं को भारत लाने के लिए भी आयात लाइसंस लेना पड़ता है और उस पर सीमा शुल्क आदि चुकाना पड़ता है।

सरकार चूंकि गांधी की वस्तुओं को भारत लाने के मामले में उदासीन नहीं दिखना चाहती, इसलिए यह संभव है कि आनन-फानन में आयात लाइसंस दे दिया जाए और कस्टम ड्यूटी माफ कर दी जाए, लेकिन विजय माल्या को निश्चय ही कोई जल्दी नहीं होगी। होती तो वह कहते कि मैं खुद ड्यूटी का पैसा भी भरूंगा। तो क्या उनके लिए भी मजबूरी का नाम ही महात्मा गांधी है? अभी तक कहीं कोई ऐसा साक्ष्य नहीं है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि भारत में शराब को बढ़ावा देने में अपना विनम्र कारोबारी सहयोग देनेवाले विजय माल्या मद्य निषेध के प्रबल पैरोकार महात्मा गांधी के विचारों और जीवन मूल्यों में कोई यकीन रखते हैं। गांधी के सादा जीवन-उच्च विचार वाले जीवन मूल्यों के विपरीत विजय माल्या भोगवाद के जीवंत प्रतीक हैं। आज ऐसे चिंतकों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि दुनिया में अगर लोभ-लालच न होते तो इतनी भौतिक तरक्की न हुई होती।

विजय माल्या व्यापारी हैं और आप समझ सकते हैं कि उनकी तमाम ब्रैंडों-उत्पादों-सेवाओं को विज्ञापन की जरूरत हमेशा रहती है। गांधी की वस्तुओं में निवेश करना एक ऐसा स्थायी विज्ञापन हथिया लेना है, जो सालों काम आएगा। आपने देखा होगा कि शीतल पेय बनानेवाली कंपनियां क्रिकेट मैच स्पॉन्सर करती हैं तो सिगरेट बनानेवाली कंपनियां साहस और वीरता के लिए पुरस्कार बांटती हैं। इसलिए अगर एक शराब बनानेवाला व्यापारी गांधी जी को इस तरह भुनाता है तो कौन आपत्ति करने वाला है? आखिर वह देश के लिए तो एक नेक काम कर ही रहा है।

गांधी जी ने साध्य के लिए साधना को या कहें लक्ष्य के लिए उसके जरिए का भी निष्कलुष होना जरूरी बताया था। अपने मूल्यों से गांधी ने कभी समझौता नहीं किया। असहयोग आंदोलन उन्होंने इसलिए वापस लिया क्योंकि अंग्रेजों के दमन के विरोध में उनके समर्थक चौरी-चौरा में हिंसा पर उतर आए थे। जरा सोचिए कि गांधी अगर जीवित होते और ऐसा कोई अवसर उपस्थित होता तो क्या गांधी इस तरह वापस आने वाली अपनी निजी वस्तुएं स्वीकार करते?

गांधी जी के बारे में उनके पोते राजमोहन गांधी ने लिखा है कि शुरू में गांधी को भी खाने, पहनने, अच्छी जगह रहने और समुद्री तथा अन्य यात्राएं करने का शौक था। उनके जीवन में गीत-संगीत के लिए भी जगह रही है, लेकिन एक बार जब उन्होंने सादगी अपना ली तो उसे पूरी तरह जीवन में उतार लिया। गोलमेज सम्मेलन के लिए जब वे लंदन गए थे, तब उनसे एक अंग्रेज पत्रकार ने पूछा कि अगर कल नंगे बदन होने के कारण महारानी आपसे मिलने से मना कर दें तो क्या आप उचित कपड़े पहनेंगे। तो गांधी जी ने कहा था : नहीं, मैं ऐसे ही मिलूंगा। गांधी संग्रह के खिलाफ थे और वे हर वस्तु का न्यायपूर्ण उपयोग करने के पक्षधर थे। समृद्धि की जगह सादगी और समानता। उनका गांधीवाद एक तरह से मार्क्सवाद की तरह ही एक यूटोपिया है, जिसे कोई देश अपने जीवन में उतार नहीं सकता। यही कारण है कि गांधीवाद को उनके पट्ट शिष्य जवाहरलाल नेहरू ने अपने मिश्रित अर्थव्यवस्था और उद्योगीकरण के प्रयोगों पर आधारित नेहरूवाद से विस्थापित कर दिया।


मनमोहन सिंह ने 1990 के दशक में अपनी नई आर्थिक नीतियों से गांधीवाद के ताबूत में अंतिम कील ठोक दी और गांधी आज मुक्कमिल तौर पर पूजा की वस्तु बना दिए गए हैं। आज गांधी के विचारों की नहीं उनकी वस्तुओं की जरूरत है क्योंकि विचार नहीं वस्तुएं गांधीवाद की झलक दिखानेवाली रोशनियां मान ली गई हैं- व्यक्ति नहीं मूर्ति, उसकी वस्तुएं, उसके प्रतीक ।

आप खुद सोचकर देखिए कि देश में क्या एक भी ऐसी राजनैतिक पार्टी है, जिसका गांधीवाद में जरा भी विश्वास हो। लेकिन गांधी का नाम लिए बगैर किसी का काम नहीं चल सकता। इसलिए बीजेपी जैसी उस परिवार की पार्टी भी जो गांधी जी के हत्यारों के साथ विचार-साम्य रखती है, गांधीवादी मानवतावाद का नाम जपती हैं और उसके अध्यक्ष राजनाथ सिंह कहते हैं कि गांधी की विरासत के असली वाहक तो हम हैं। कांग्रेस का आलम तो यह है कि वहां एक प्रतीक के रूप में भी गांधी टोपी दुर्लभ प्रजाति की वस्तुओं में शामिल हो गई है। तो क्या आपको नहीं लगता कि गांधी का नाम लेना हमारी पार्टियों के लिए विशुद्ध एक मजबूरी है? हमारी पार्टियों ने गांधी के खिलाफ अपनी-अपनी तरह से वीर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह और डॉ. भीमराव आंबेडकर को भी खड़ा करने की कोशिश की। लेकिन कोई भी गांधी से बड़ा साबित नहीं हुआ क्योंकि गांधी जहां एक ओर बिल्कुल अकेले और सबसे अलग हैं, वहीं दूसरी ओर ये सब उनमें उतने ही समाहित भी हैं। इसलिए गांधी अगर एक स्तर पर निरापद हैं तो दूसरे स्तर पर खतरनाक भी हैं।

हमने बड़ी चतुराई से निरापद गांधी को चुना है- एक आभासी गांधी को, उनकी जड़ वस्तुओं को, जो बदले जाने का आभास तो देती हैं लेकिन बदलाव नहीं लातीं। जैसे 'लगे रहो मुन्ना भाई' मार्का फिल्में जो पर्दे पर चमत्कार करती हैं और जीवन में मनोरंजन। हमारे राजनेताओं को भी गांधी नहीं उनकी थाली और कटोरा, ऐनक और घड़ी चाहिए।


शनिवार, 21 नवंबर 2009

शाम >>

शाम की छाई हुई धुंधली चादर से

ढ़क जाती हैं मेरी यादें ,

बेचैन हो उठता है मन,

मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको ,

उन जगहों पर ,

जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी ,

बैठकर वहां मैं

महसूस करना चाहता हूँ तुमको ,

हवाओं के झोंकों में ,

महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को ,

देखकर उस रास्ते को

सुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को ,

और देखना चाहता हूँ

टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा ,

देर तक बैठ मैं निराश होता हूँ ,

परेशान होता हूँ कभी कभी ,

आखें तरस खाकर मुझपे,

यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर ,

मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर ,

थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,

इन्ही आंसूओं नें मुझे बचाया है टूटने से ,

फिर मैं उठता हूं

फीकी मुस्कान लिये

एक नयी शुरूआत करने ।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

हे भगवान ! खानें में इतना जहर

क्या आपको पता है हम और आप नित्य ही जहर का सेवन करते हे, । आप लोग सोच रहें होंगे कि ये कैसे हो सकता है। अगर हम नित्य जहर खाते तो मर नहीं जाते क्या ? बात तो सही है, जिस जहर का सेवन हम नित्य कर रहे है वह हमें इतने आसानी से थोड़ीं न मरने देगा। श्रृष्टि के आंरभ से ही भोजन की एक अनिवार्य आवश्यकता रही है। मानव के लिए ही नहीं, पशु-पक्षियों एंव वनस्पतियों के लिए। प्राचिनकाल में मनुष्य शिलाग्रहों (गुफाओं) में निवास करते थे, । पशु पक्षियों का माश भी उनके उदरपोषण का साधन था। वैदिक युग में कृषि की शुरुआत हुई। वैदिक सूक्तों में कृषि तथा अन्न से संबधित इंद्र, वरुण अग्नि आदि देवो की प्रार्थना विशद् रुप से वर्णित है। आज प्रत्येक खाद्दपदार्थो में कीटनाशक एंव दूसरे हानिकारक पदार्थ पाये जा रहे हैं। डिब्बाबंद भोजन, बोतलबंद पेय यहाँ तक कि रोटी, दाल, चावल एंव सब्कियाँ भी हानिकारक जहर से नहीं बच पा रही है। हमारा पूरा खान-पान इतना जहरीला हो गया है कि हमारे अपने शरिर में भी कीटनाशकों की खासी मात्रा जमा होती जा रही है।
अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक दवाओं के अंधाधुंध प्रयोग के कारण हमारे शरीर में एक अनोखी विष "काकटेल" इकट्ठी होती जा रही है। सामान्यतः कीटनाशक दवाओं का छिड़काव उचित रीति से नहीं किया जाता, परिणामस्वरुप अस्सी से नब्बे पतिशत कीटनाशक कीटों को मारने की बजाय फसंलो पर चिपक जाते है या फिर आस-पास की मिट्टी पर इक्टठे हो जाते है। जिस पर से इनकों हटाने का कोई प्रयास नहीं किया जाता हैं। मांसपेशियों एवं चरबी में जहर इकत्रित होता रहता है या फिर खून में मिलकर धीमें-धीमें जहर के रुप में कार्य करता है और अनेकं बीमारियों को जन्म देता है।
कीटनाशक दवाँ कैसंर और ट्यूमर को बढ़ावा देती है, जबकि कुछ सीधे दिमाग और इससे जुड़ी तंत्रिकाओंपर प्रहार करती है। दौरे पड़ना, दिमाग चकराना और याददाश्त की कमंजोरी जैसे लक्षण कीटनाशक दवाओं के कारण हो सकते हे। कुछ किटनाशक दवाईयाँ शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी समाप्त कर देती है। कुछ हारमोन बनाने वाले ग्रंथियों पर चोट करके शरीर की सारी गतिविधियों में उलट-फेर कर देती है।

कीटनाशको के इतने खतरनाक परिणामो के बाद भी इसका उपयोग बिना किसी अवरोध के व्यापक मात्रा में किया जा रहा है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् द्वारा करवाए गये एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार गाय-भैंस के दूध के लगभग वाईस सौ नमूनो में से 82% मे तथा शिशुओ के डिब्बाबंद आहार के बीस व्यावसायिक ब्राड़ों के १८० नमूनें मेम 70% में डी.डी.टी. अवशेष रुप में मौजूद था। बोतलबंद पानी में किटनाशको की मात्रा स्वीकार्य सीमा से 15% अधिक थी। रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ गेहूँ और चावल के द्वारा हम प्रतिदिन कोई आधा मिली ग्राम (.5mg) डी.डी.टी. और बी.एच.सी खा जाते है। सबसे ज्यादा कीटनाशक हम सब्जियों के द्वारा अपने शरीर में पहुचाते हैं। बैगन को चमकदार बनाने के लिए कार्बोफ्यूरान में डुबाया जाता है। गोभी को चमकदार सफेदी देने के लिए मेथिलपैराथियान डाला जाता है। इसी तरह भिंडी तथा परवल को चमकीला हरा बनाने के लिए कापर सल्फेट और मैलाथियान का इस्तेमाल किया जाता है, जो की हमारे शरीर के लिए जहर का काम करती है। कीटनाशको के बाद हमारे शरीर को सबसे ज्यादा नुकसान आर्सेनिक, कैडियम, सीसा, ताँबा, जिंक और पारा जैसी धातुओं से है। फलों, सब्जियों, मसालों आदि से लेकर शिशु आहार तक ये पर्याप्त मात्रा में पाये जाते है।

दिल्ली विश्वविद्दालय और वाराणसी हिंदू विश्वविद्दालया द्वारा किए गये सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार सब्जियों में सीसे की मात्रा स्वीकार्य सीमा मात्रा से 73% ज्यादा पाई गयी । रिपोर्ट के अनुसार, सब्जियों को बहुत अच्छी तरह पर भी इनके जहरीलेपन को सिर्फ 55% तक ही कम किया जा सकता है। सीसा की अधिकता गुरदा खराब करनेण के अलावा उच्च रक्तचाप भी पैदा करती है। इसका सबसे खतरनाक असर बच्चो के मस्तिष्क पर पड़ता है। सिसायुक्त आहार का सेवन करनेसे बच्चो की बुद्धि का विकास अवरुद्ध हो जाता है, । साथ ही उनकीं बुद्धि मंद पड़ने लगती है। बच्चो की मनपसंद चाकलेट भी खतरे से खाली नहीं है। इसमें मौजूद निकिल त्वचा का कैंसर पैदा करता है। यदि डिब्बा प्लासटिक का है तो यह खतरा और बढ़ जाता है , क्योकिं प्लास्टिक धीरे-धीरे जहरीले रसायन छोड़ता है। प्लास्टिक में मौजूद थेलेन वर्ग के रसायन शरीर के हारमोन संतुलन को तहस नहस कर देते है।

मांसाहार तो शाकाहार से और भी खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है। मांस पर ब्लीचिंग पाउडर लपेट दिया जाता है, ताकि पानि सूखने से मांस का वजन कम न हो जाए। इसी तरह से खून के बहाव पर रोक लगाने के लिए कापर सल्फेट का इस्तेमाल किया जाता है। मछलियों में चमकदार ताजगी लंबे समय तक बनाये रखने के लिए अमोनियम सल्फेट में डुबाया जाता है। इस प्रकार मांसाहार यो तो खतरनाक है ही। अब वह विषयुक्त हो गया है। साथ ही खाद्दपदार्थो मे मिलाये गये कृत्रिम रंग भी शरीर के लिए खतरनाक होते है, तथा बहुत से रोगो का कारण भी बनते है। हमारे शरीर में घुलते-मिलते इस जहर से बचाव का एक ही उपाय है कि हम अपनी प्राचिन पद्धति को पुनः अपनाएँ। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम अनियमित अनुचित खान पान से बचकर ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं।


गुरुवार, 19 नवंबर 2009

मनोरंजन या संस्कृति पे आघात

"भारत की महान संस्कृति पर क्या "हमला नही हो रहा है ?" क्या आपको नही लगता की हमारे घरो मे नित्यदिन चलने वाले मानोरंजक सीरियल जिन्हे हम अपने परिवार के साथ देखते है, हमारी संस्कृति की ख़राब पेशकश इन सीरियलो द्वारा हो रही है ?आपके बच्चो पर इनका क्या असर होगा ?। देखने मे ये सीरियल पारिवारिक लगते है और बङे चाव से हम अपने परिवार के साथ बैठ कर देखते है। और अचानक कोई ऐसा दृश्य जो की आपत्तीजनक अवस्था मे होता है, तब हम उस चैनल को हटा देते है क्यो?
हमे लगता है की सायद हम ऐसा करेगें तो बच्चे उस अश्लिल दृश्य को न देख पाये। पर जब हम ऐसा करते होगे तब बच्चो के मन कुछ सवाल तो उठते ही होगें।आज कल टिवी पर आने वाले सीरियल अपने टी.आर.पि रेटिंग को बढाने के लिये जो हथकन्डे अपना रही है, उससे न सिर्फ हमारे संस्कृति पे आघात बल्की हमारे संस्कृति पे एक बदनूमा दाग छोङ रही है, जो भारत जैसे देश जहां की पहचान ही उसकी संस्कृति से होती है के लिये एक चिन्ता का विषय है। आज कल टिवी पे आने वाले सीरियल मनोरंजन के नाम मारपिट और गाली गलौच परोस रहे है, जिससे हमारे बच्चो की मानसिकता मे बहुत ही ज्यादा परिवर्तन हो गया है। सीरियलो मे आज कल ये दिखाया जाता है कि, कैसे आप अपने भाई के संपत्ती को हङपेगे, कैसे बहू अपने सास से बदला लेगी, कैसे आशीक अपने प्रमिका को पटाता है, और कैसे बेटा अपने माँ बाप को घर से बाहर कर देता है। इस प्रकार के सीरियलो को देखने के बाद हमारी मानसिकता कैसी होगी ये तो आप समझ ही सकते है। जहां तक हम और आप जानते है, ये तो हमारी संस्कृति हो ही नही सकती। हमे तो ये पता है कि हमारे यहां भाई लक्षमण जैसा और बेटा भगवान राम जैसे होता है। जहां तक हम जानते है हमारे यहा की औरते बलिदानी ममता से परिपुर्ण और अपने पति के साथ हर हालात मे रहने की कसम खाती है, लेकीन जो हमारे सीरियलो मे दिखया जा रहा है की अगर पति ने अपने पत्नी को थप्पङ मारा है तो ये बात तलाक तक पहुचती है,मै ये नही कह रहा हूं कि पति को अपनी पत्नी को थप्पङ मारना चाहिये, यहा मेरे कहने का मतलब बलिदान और शहनसीलता से है। । इस तरह के सीरियल से हमारे संस्कृति पे जो घाव किया जा रहा है वह दंडनीय है।
और सबसे बङी चिन्ता की बात ये है कि इस प्रकार के सीरियलो को ज्यादा पसंन्द किया जा रहा है अगर हमे अपनी संस्कृति जिसके लिए हम जाने जाते है, को बचाना है तो हमे इस प्रकार के सीरियलो को नकारना होगा ताकी ये और अपने पैर ना पसार सके।।

बुधवार, 18 नवंबर 2009

" कविता प्रतियोगिता सूचना "---- भाग लें और जीतें इनाम----

हिन्दी साहित्य मंच "तृतीय कविता प्रतियोगिता" दिसंबर माह से शुरु हो रही है। इस कविता प्रतियोगिता के लिए किसी विषय का निर्धारण नहीं किया गया है अतः साहित्यप्रेमी स्वइच्छा से किसी भी विषय पर अपनी रचना भेज सकते हैं । रचना आपकी स्वरचित होना अनिवार्य है । आपकी रचना हमें नवंबर माह के अन्तिम दिन तक मिल जानी चाहिए । इसके बाद आयी हुई रचना स्वीकार नहीं की जायेगी ।आप अपनी रचना हमें " यूनिकोड या क्रूर्तिदेव " फांट में ही भेंजें । आप सभी से यह अनुरोध है कि मात्र एक ही रचना हमें कविता प्रतियोगिता हेतु भेजें ।

प्रथम द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर आने वाली रचना को पुरस्कृत किया जायेगा । दो रचना को सांत्वना पुरस्कार दिया जायेगा । सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन हमारे निर्णायक मण्डल द्वारा किया जायेगा । जो सभी को मान्य होगा । आइये इस प्रयास को सफल बनायें । हमारे इस पते पर अपनी रचना भेजें -hindisahityamanch@gmail.com .आप हमारे इस नं पर संपर्क कर सकते हैं- 09818837469, 09891584813,

हिन्दी साहित्य मंच एक प्रयास कर रहा है राष्ट्रभाषा " हिन्दी " के लिए । आप सब इस प्रयास में अपनी भागीगारी कर इस प्रयास को सफल बनायें । आइये हमारे साथ हिन्दी साहित्य मंच पर । हिन्दी का एक विरवा लगाये जिससे आने वाले समय में एक हिन्दीभाषी राष्ट्र की कल्पना को साकार रूप दे सकें ।

सभी प्रतिभागी अपना पूरा पता और फोन नं अवश्य ही दें । जिससे संपर्क करने में सहायता हो सके ।

संचालक
( हिन्दी साहित्य मंच )

असफलता और निराशा में सफलता व आशा का दर्शन करें

"सफलता का एक कोई पल नही,
विफलता की गोद में ही गीत है।
हार कर भी जो नही हारा कभी,
सफलता उसके ह्रदय का गीत है।"

असफलता को सफलता की प्रेरणा और निराशा को आशा की जननी मानने वाले व्कति ही सफल होते है।

जब कोई घुङसवार घोङे से गिरता है, तब वह तुरन्त अपने कपङे झाङकर और चोटिल शरीरांगो को सहलाकर दुबारा घोङे पर बैठ जाता है, क्योकिं उसको विश्वास रहता है कि दो चार बार गिरने के बाद ठीक तरह से घुङसवारी करना आ जाएगा जो चढेगा नही वह गिरेगा क्यो? जो गिरकर बैठ जाएगा वह चढना क्योकंर सीख पाएगा? दोष गिरने मे नहीं, गिरकर न उठने मे है।

घुङसवार की मानसिकता से क्या हम कोई शिक्षा ले सकते है? यही कि गिरने का अर्थ बैठ जाना नही है, बल्कि अधिक उत्साह के साथ उठकर आगेबढने का है, तब जिसको हम असफलता कहते है, वह क्या है? हमारे विचार से केवल सफलता की प्रेरणा है असफलता का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नही है, सफलता के अभाव का ही नाम असफलता है। अग्रंजी के विचारक निबन्धकार का यह कथन कितना यथार्थ है कि असफलता निराशा का सूत्र कभी नही है, अपितु वह नई प्रेरणा है।
एवरेस्ट पर विजय का अभियान १९२५ के आसपास शुरु हुआ था और सन १९५० मे उसको सफलता प्राप्त हुई। जितनी बार अभियान असफल हुआ, उतनी बार सफलता की प्रेरणा बलवती हुई , अभियान पे जाने वाले शूरवीरो ने क्षणिक निराशा मे आशा देखी और नई उमंग लेकर सफलता की ओर अग्रसर हो गये।
भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को ही उदाहरणस्वरुप ले लिजिए, इसका शुभारम्भ सन १८५७ मे हुआ था और उसका समापन सन १९४७ मे हुआ, जबकि भारत को स्वतन्त्रता की प्राप्ति हो गई। इस ९० वर्ष का के अन्तराल मे शासक वर्ग का दमन चक्र अनेक बार चला, अनेक व्यक्ति लाठियों और गोलियों के शिकार हुए, अनेक बार आन्दोलन तात्कालिक रुप से असफल हुआ, अनेक बार भारतीय जनमानस पर निराशा के बादल गहराये, परन्तु असफलता मे अन्तर्निहित सफलता बराबर तङपती रही और अपने साधको को बार- बार प्रेरणा देती रही.

भरतीय प्रशासनिक सेवाओं तथा अन्य श्रेष्ठ प्रतियोगी परीक्षाओ मे सफल होने वाले प्रतयाशियो से साक्षात्कार करके देखिए, उनके कथन मे एक बात सामान्य रुप से पाई जाएगी, वे अपनी प्रारम्भिक असफलताओ से निराश अवश्य हुए परन्तु बहुत ही स्वल्प अवधि के लिए, वे सफलता के प्रति आश्वस्त होकर आगे बढने लगे थे और निराशा मे आशा की किरणे देखकर आन्मविश्वास से भर गये थे वे जानते थे कि दिपावली यानि प्रकाश का त्योहार अमावशया की अंधेरी रात मे मनाया जाता है, क्योकि देववाणी का संदेश है कि हमे निराशा की अंधेरी रात मे आशा का दीप जलाए रखना चाहिए, अधंकार के उपरान्त प्रभात के प्रकाश का आगमन सुनिश्चित है।
असफलता के अंधेरे मे जो व्यक्ति प्रकाश की प्रभु रेखा के दर्शन करता है, वही सफलता के पथ पर अग्रसर होने का अधिकार प्राप्त करता है आशान्वित रहते हुए हम यह विश्वास रखें कि रात्रि के अधंकार के बाद प्रातः का प्रकाश आना अनिवार्य है, हमे याद रखना चाहिए-

रात लम्बी है मगर तारो भरी है,
हर दिशा का दीप पलको ने जलाया।
साँस छोटी है, मगर आशा बंङी है,
जिन्दगी ने मौत पे पहरा बैठाया।

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

जैसे इन सब को पता है कि..............................................तुम आ चुकी हो

हवाओं में प्यार की खुशबू,
बिखरी हुई है ,
फिजाएं भी महकी,
हुई है,
खामोश रातें रौशन ,
हुई हैं,
चांदनी भी चंचल ,
हुई है ,
बूदें जैसे मोती,
हुई हैं,
सूरज की किरणें चमकीली
हुई हैं,
बागों की कलियां खिल सी ,
गयी हैं,
अम्बर से घटाएं ,
बहने लगी हैं,
मिट्टी की खुशबू,
फैली हुई हैं, चारो तरफ
जैसे इन सब को पता है कि-
तुम आ चुकी हो,
वापस आ चुकी हो।।

सोमवार, 16 नवंबर 2009

कचरे से बने समुद्री डाकू

अफ्रीका के ऊपरी छोर पर बसा सोमालिया देश पिछले दो वर्षों से लगातार खबरों में है। पुरानी कहानियों के साथ डूब गए समुद्री डाकू यहां अपने नए रूप में फिर से तैरने लगे हैं। हम सब जानते हैं कि कचरे से खाद बनती है पर यदि कचरा बहुत अधिक जहरीला हो तो उससे क्या बनेगा? स्वतंत्र पत्रकार श्री क्रिस मिल्टर बता रहे हैं कि भयानक जहरीले कचरे से बने हैं ये भयानक समुद्री डाकू! सन् 2008 और 2009 में सोमालिया के समुद्री डाकुओं ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुख्याति अर्जित कर ली है। इस दौरान उन्होंने हथियार ढोने वाले जहाज, तेल टेंकर और क्रूज जैसे जहाजों का अपहरण किया है और इनकी रिहाई के बदले उनके मालिकों से भारी मात्रा में धन वसूल किया है। अनेक राष्ट्रीय सरकारों और गैर सरकारी संगठनों ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानूनों की दुहाई देते हुए इन डाकुओं पर कठोर कार्यवाही की मांग की है। परंतु बहुत कम ने इन जलदस्युओं के इस दावे पर ध्यान दिया है कि सोमालिया में तरह-तरह का जहरीला कचरा फेंकने का जो गैरकानूनी काम चल रहा है, वह इन अपराधों से ज्यादा बड़ा व हानिकारक है। ये डाकू इसी कारण इस धंधों में उतरे हैं! कई संगठन पिछले 10 वर्षों से भी अधिक समय से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से यह मांग करते रहे हैं कि इस जहरीले कचरे को यहां फेंकने पर रोक लगाई जाए। लेकिन दुर्भाग्यवश यह संकट और गहराता ही जा रहा है। यूरोप के इन देशों के लोगों को सोचना चाहिए कि उनके यहां ऐसी सफाई, ऐसी बिजली, ऐसा स्वास्थ्य किस काम का, जिसे टिकाए रखने के लिए सोमालिया में भयानक गंदगी, भयानक बीमारी और भयानक अंधेरा फैल चला है। सन् 1997 में इटली की ‘फेमिक्लि क्रिसटिआना’ नाम की एक पत्रिका में ग्रीनपीस की एक महत्वपूर्ण जांच रिपोर्ट छपी थी। यह यहां भयानक जहरीला कचरा फेंकने के मामले की एक जांच पर आधारित थी। इसके अनुसार यह घिनौना काम 1980 के दशक के अंत में प्रारंभ हुआ था।
स्विटजरलैंड और इटली की कुछ बदनाम कंपनियों ने वहां के खतरनाक कचरे को ले जाकर सोमालिया में फेंकने का ठेका ले लिया था। बाद की जांच से यह भी पता चला कि इस काम में जिन जहाजों को लगाया गया, वे सोमालिया सरकार के ही थे! सन् 1992 में सोमालिया गृहयुध्द में उलझ गया। इन कंपनियों को सोमालिया के लड़ाकों से समझौता करना पड़ा। इन गुटों ने कचरा फेंकने में कोई रुकावट नहीं डाली, पर उस काम को जारी रखने के लिए कीमत मांगी। डंपिंग को जारी रखने के बदले में बंदूकों और गोलाबारूद की मांग की। इसके बाद अनेक जहाज कचरा और हथियार लेकर आए और वापस लौटते समय मछली पकड़ने वाले जहाज में परिवर्तित हो गए। सोमालिया के जल में पाई जाने वाली टूना मछली भरकर आगे बिक्री को लेकर चलते बने। वर्ष 1994 में इटली की एक पत्रकार इलारिया अल्पी की हत्या को लेकर हुई जांच के दौरान एक लड़ाकू बागी नेता बोगोर मूत्ता ने कहा था कि यह तय है कि वे जहाजों में सैन्य सामग्री लेकर आ रहे थे। उसे गृहयुध्द में फंसे हुए अनेक समूहों में बांटा जाना था। आशंका जताई जा रही है कि अल्पी के पास जहरीले कचरे के बदले बंदूक-व्यापार के पुख्ता सबूत थे। इसलिए उनकी हत्या कर दी गई। अमेरिका के मिनिसोटा विश्वविद्यालय की एक शोधकर्ता और अब पर्यावरण न्याय अधिवक्ता जैनब हस ने सोमालिया के निवासियों द्वारा भुगती जा रही लंबी अवधि वाली और गंभीर बीमारियों की पूरी श्रृंखला का पता लगाया है। इसमें कई जन्मजात विकृतियां भी सामने आई हैं। ग्रीनपीस की इस रिपोर्ट पर थोड़ी बहुत सनसनी फैली। पर ज्यादा कुछ न होता देख फिर इसके तुरंत बाद यूरोपीय ग्रीनपीस पार्टी ने यूरोपीय संसद में एक प्रश्न पूछा। इसमें सोमालिया में जर्मनी, फ्रांस और इटली के परमाणु बिजलीघरों और अस्पतालों से जहरीला कचरा फेंकने के बारे में जानकारी मांगी गई थी। इसके परिणामस्वरूप इटली में व्यापक जांच पड़ताल प्रारंभ हुई। एक समय था जब सोमालिया इटली के कब्जे में था। इसलिए इटली आज भी अपने आंगन का कचरा सोमालिया के घर में फेंकता है। जांच से पता चलता है कि सोमालिया को करीब 3.5 करोड़ टन कचरा का 'निर्यात' किया गया और बदले में उसे मात्र 6.6 अरब अमेरिकी डालर का भुगतान किया गया था। इस तरह इन सभ्य और साफ सुथरे माने गए देशों ने सोमालिया को अपना कचराघर बना लिया। इतने वजन का कचरा और कहीं नहीं फेंका गया है। इसे भी ये देश 'निर्यात' शब्द से ढंक देते हैं। निर्यात भी ऐसा कि आयातित कचरे को सोमालिया की आज की पीढ़ी तो छोड़िए, आने वाली न जाने कितनी पीढ़ियां हाथ भी नहीं लगा पाएंगी। आज सोमालिया दुनिया में 'डंपिंग' का सर्वाधिक बड़ा केन्द्र बन गया है। सन् 2004 में आई बॉक्सिंग डे सुनामी के परिणामस्वरूप सोमालिया के समुद्री किनारों पर रहने वाले कई ग्रामीण एक अज्ञात बीमारी के कारण मर गए थे। और समुद्र तट का पूरा पर्यावरण बुरी तरह से तबाह हो गया था। सन् 2005 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने सोमालिया में गहरी जांच की। वहां के राजनेताओं की घेराबंदी तगड़ी थी। इसलिए पूरा सहयोग नहीं मिल सका था। फिर भी बहुत विश्वसनीय सबूत न पाए जाने के बावजूद इसके निष्कर्ष में कहा गया था कि सोमालिया के समुद्र में, किनारों पर, बंदरगाहों के पिछले हिस्सों में जहरीले और खतरनाक कचरे को फेंकने का काम बदस्तूर जारी है। इसके एक साल बाद यहां के एक गैरसरकारी संगठन 'डारयील बुल्शो गुड' ने एक और जांच की। उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की जांच से बेहतर सहयोग मिला। जांच में आठ समुद्री इलाकों में ऐसे 15 कचरा कन्टेनरों को चिन्हित किया जिनमें निश्चित तौर पर परमाणु और रासायनिक कचरा मौजूद है। ठीक इसी समय संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बैंक ने सोमालिया राष्ट्र को पुनर्स्थापित करने के लिए एक साझा आकलन किया। इस योजना में वहां का पर्यावरण सुधारना भी शामिल किया गया है।

इसमें यहां 'पाए गए' जहरीले कचरे को हटना भी जोड़ा गया है। इस काम के लिए 4.21 करोड़ अमेरिकी डालर की व्यवस्था करने की अनुशंसा की गई थी। इसमें लोगों को हुई हानि की कोई बात नहीं की गई थी। सफाई की बात करने वाली यह रिपोर्ट यह नहीं बताती कि सोमालिया में जहरीला कचरा पटकना अब भी जारी है। अमेरिका के मिनिसोटा विश्वविद्यालय की एक शोधकर्ता और अब पर्यावरण न्याय अधिवक्ता जैनब हस ने सोमालिया के निवासियों द्वारा भुगती जा रही लंबी अवधि वाली और गंभीर बीमारियों की पूरी श्रृंखला का पता लगाया है। इसमें कई जन्मजात विकृतियां भी सामने आई हैं। इसमें हाथ-पैरों का विकसित न होना और कैंसर की व्यापकता भी शामिल है। यहां के एक चिकित्सक का कहना है कि उसने सुनामी के बाद के एक साल में जितने कैंसर मरीजों का इलाज किया है, उतना अपनी पूरी जिंदगी में नहीं किया था। जैनब का कहना है कि यूरोप की ये कंपनियां अवैधानिक तरीके से यहां खतरनाक व परमाणु कचरा फेंक रही हैं। अंतराष्ट्रीय समुदाय को यहां की सफाई के लिए और जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें न्यायालय में घसीटने के लिए तुरंत कोई कठोर कार्यवाही करना चाहिए। ‘इको टेरा’ नामक एक गैरसरकारी संगठन सोमालिया से बहुत घनिष्ठ संबंध रखता है। पर वह कंपनियों के मूल के बारे में कुछ भी कहने से हिचक रहा है। इसकी वजह शायद पत्रकार इलारिया अल्पी की हत्या ही है। हां वह स्थिति को तो घातक बता ही रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के क्षेत्रीय प्रतिनिधि अहमदो ऑड अबदुल्ला भी इस मामले में इतने ही संवेदनशील हैं। उन्होंने भी यह स्वीकार किया है कि सोमालिया के समुद्री तटों पर जहर फैलाना, फेंकना जारी है। उन्होंने सुरक्षा की दृष्टि से उन सामाजिक संस्थाओं के नाम बताने से इंकार कर दिया है, जिनकी जांच से उन्हें ये तथ्य मिले हैं। डंपिंग के जिम्मेदारों को न्याय के सामने लाना टेढ़ी खीर है। यूरोपीय यूनियन के नियम 259/93 और 92/3/यूराटॉम के अंतर्गत वे मूल देश जहां से चिकित्सा और परमाणु का कचरा निर्यात हुआ है, न केवल इसके लिए पूर्णत: उत्तरदायी हैं बल्कि उस कचरे को वापस उठाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर है। सोमालिया में अभी भी बहुत से कंटेनरों की जांच होना बाकी है। कागजी खानापूरी में हो रही देरी से अनेक दस्तावेज भी नष्ट हो गए हैं। इससे कानूनी कार्यवाही में भी दिक्कतें आ सकती हैं। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ के सूत्रों का कहना है कि सोमालिया में खतरनाक पदार्थों को ढूंढ़ना भूसें के ढेर में सुई ढूंढ़ने जैसा है। ऐसा इसलिए नहीं है कि वे यह नहीं जानते कि यह कचरा कहां है। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि काम शुरू कहां से किया जाए? यह तो वहां के समुद्र में चारों तरफ पड़ा है। यूरोप के इन देशों के लोगों को सोचना चाहिए कि उनके यहां ऐसी सफाई, ऐसी बिजली, ऐसा स्वास्थ्य किस काम का, जिसे टिकाए रखने के लिए सोमालिया में भयानक गंदगी, भयानक बीमारी और भयानक अंधेरा फैल चला है।

प्रस्तुत कर्ता------------

[naiazadi]