मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था । उनका जन्म ३१ जुलाई १८८० को बनारस शहर से करीब चार मील दूर लमही गांव में हुआ । उनके पिता का नाम मुंसी अजायब लाल था , जो डाक मुंसी के पद पर नौकरी करते थे । उस मध्यम वर्गीय परिवार में साधारण तौर पर खाने - पीने , पहनने- ओढ़ने की तंगी तो न थी, परन्तु शायद इतना कभी न हो पाया कि उच्च स्तर का खान-पान अथवा रहन सहन मिल सके । इसी आर्थिक समस्या से मुंशी प्रेमचंद की पूरी उम्र जूझते रहे । तंगी में ही उन्होंने इस नश्वर संसार को छोड़ा ।
थोड़ी सी पढ़ाई और ढ़रों खिलवाड़ तथा गांव की जिंदगी के साथ साथ मां और दादी के लाड़-प्यार में लिपटे हुए बालक धनपत के दिन बड़े मस्ती में व्यतीत हो रहे थे कि उनकी मां बीमार पड़ गयी। ऐसी गंभीर रूप से बीमार पड़ी कि बालक धनपत को इस भरे संसार में अकेला छोड़ चली । तब मुंशी जी सात साल के थे । मां के निधन के बाद, मां जैसा कुछ कुछ प्यार धनपत को बड़ी बहन से मिला । पर कुछ ही समय के पश्चात शादी होने पर वह भी अपने घर चली गयी । अब इस प्रकार से मुंशी जी की दुनिया सूनी हो गयी । उनके लिए यह कमी इतनी गहरी और इतनी तड़पाने वाली थी कि उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में बार बार ऐसे पात्रों की रचना की - जिनकी मां बचपने में ही मर गयी ।
मातृत्व स्नेह से वंचित हो चुके , और पिता की देख रेख से दूर रहने चाले बालक धनपत ने अपने लिए कुछ ऐसा रास्ता चुना जिस पर आगे चलकर वे ' उपन्यास सम्राट ' और ' महान कथाकार' , कलम का सिपाही' जैसी उपाधियों से विभूषित हुए । मुंशी ने १३ साल की उम्र में ही । ' तिलिस्म होशरूबा, रेनाल्ड की ' मिस्ट्रीज आफ द कोर्ट आफ लंदन, मौलाना सज्जाद हुसैन की हास्य कृतियां पढ़ डाली ।मुंशी जी अभी १४ साल के ही हुए थे कि पिता का देहांत हो गया। घर में पहले से ही गरीबी थी । पिता का साथ छूटने के बाद मानों मुशीबतों का पहाड़ टूट पड़ा । रोजी रोटी की चिंता तो थी ही इसके लिए ट्यूशन करके किसी तरह मैट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की । जल्द ही उनकी शादी भी हो गयी इसी दौरान मुंशी जी को एक मास्टरी मिल गयी । लंबे समय तक अध्यापन का कार्य मुंशी जी ने किया ।
गुजरे हुए जीवन का कटु सत्य और गहन अनुभव संपदा , आगे चलकर उनके जीवन के लिए अत्यन्त मूल्यवान साबितर हुआ । मुंशी जी आज भी हिन्दी साहित्य के ध्रव तारे के सामन हैं ।। मुंशी जी की करीब तीन सौ कहानियां और सर्वश्रष्ठ १४ उपन्यास हैं ।
बात कर्मभूमि की करें या फिर निर्मला या गोदान की सबकी पृष्ठभूमि समाज के आम इंसान की थी । मुंशी जी ने अपनी लेखनी से समाज के दर्द को सबके सामने मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया । मुंशी जी ने ८ अक्तूबर , १९३६ को इस दुनिया को अलविदा कहा । शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार इस धरती पर जन्म ले जिसने समाज के वास्तविक स्वरूप को अपने कलम के माध्यम से जीवंत कर दिया ।
थोड़ी सी पढ़ाई और ढ़रों खिलवाड़ तथा गांव की जिंदगी के साथ साथ मां और दादी के लाड़-प्यार में लिपटे हुए बालक धनपत के दिन बड़े मस्ती में व्यतीत हो रहे थे कि उनकी मां बीमार पड़ गयी। ऐसी गंभीर रूप से बीमार पड़ी कि बालक धनपत को इस भरे संसार में अकेला छोड़ चली । तब मुंशी जी सात साल के थे । मां के निधन के बाद, मां जैसा कुछ कुछ प्यार धनपत को बड़ी बहन से मिला । पर कुछ ही समय के पश्चात शादी होने पर वह भी अपने घर चली गयी । अब इस प्रकार से मुंशी जी की दुनिया सूनी हो गयी । उनके लिए यह कमी इतनी गहरी और इतनी तड़पाने वाली थी कि उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में बार बार ऐसे पात्रों की रचना की - जिनकी मां बचपने में ही मर गयी ।
मातृत्व स्नेह से वंचित हो चुके , और पिता की देख रेख से दूर रहने चाले बालक धनपत ने अपने लिए कुछ ऐसा रास्ता चुना जिस पर आगे चलकर वे ' उपन्यास सम्राट ' और ' महान कथाकार' , कलम का सिपाही' जैसी उपाधियों से विभूषित हुए । मुंशी ने १३ साल की उम्र में ही । ' तिलिस्म होशरूबा, रेनाल्ड की ' मिस्ट्रीज आफ द कोर्ट आफ लंदन, मौलाना सज्जाद हुसैन की हास्य कृतियां पढ़ डाली ।मुंशी जी अभी १४ साल के ही हुए थे कि पिता का देहांत हो गया। घर में पहले से ही गरीबी थी । पिता का साथ छूटने के बाद मानों मुशीबतों का पहाड़ टूट पड़ा । रोजी रोटी की चिंता तो थी ही इसके लिए ट्यूशन करके किसी तरह मैट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की । जल्द ही उनकी शादी भी हो गयी इसी दौरान मुंशी जी को एक मास्टरी मिल गयी । लंबे समय तक अध्यापन का कार्य मुंशी जी ने किया ।
गुजरे हुए जीवन का कटु सत्य और गहन अनुभव संपदा , आगे चलकर उनके जीवन के लिए अत्यन्त मूल्यवान साबितर हुआ । मुंशी जी आज भी हिन्दी साहित्य के ध्रव तारे के सामन हैं ।। मुंशी जी की करीब तीन सौ कहानियां और सर्वश्रष्ठ १४ उपन्यास हैं ।
बात कर्मभूमि की करें या फिर निर्मला या गोदान की सबकी पृष्ठभूमि समाज के आम इंसान की थी । मुंशी जी ने अपनी लेखनी से समाज के दर्द को सबके सामने मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया । मुंशी जी ने ८ अक्तूबर , १९३६ को इस दुनिया को अलविदा कहा । शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार इस धरती पर जन्म ले जिसने समाज के वास्तविक स्वरूप को अपने कलम के माध्यम से जीवंत कर दिया ।