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सोमवार, 25 मई 2009

गीत


हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते
शब्दों की परिधी में भाव समा जाते ॥


तेरी आंहें और दर्द लिखते अपने
लिखते हम फिर आज अनकहे कुछ सपने
मरुस्थली सी प्यास भी लिखते होटों की
लिखते फिर भी बहती गंगा नोटों की
आंतों की ऐंठन से तुम न घबराते
हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते॥

तेरे योवन को भी हम चंदन लिखते
अपनी रग रग का भी हम क्रंदन लिखते
लिख देते हम कुसुम गुलाबी गालों को
फिर भी लिखते अपने मन के छालों को

निचुड़े चेहरों पर खंजर आड़े आते
हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते


पीड़ा के सागर में कलम डुबोये हैं
मन के घाव सदा आँखों से धोये हैं
नर्म अंगुलियों का कब तक स्पर्श लिखें
आओ अब इन हाथों का संघर्ष लिखें
लिखते ही मन की बात हाथ क्यों कंप जाते
हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते

डॉ.योगेन्द्र मणि

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त " राष्ट्रप्रेम की भावना " को समर्पित करते रहे अपनी कलम से - [ आलेख ] नीशू तिवारी

द्विवेदी युग के प्रमुख कविओं में मैथिलीशरण गुप्त का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी को खड़ी बोली को नया आयाम देने वाले कवि के रूप में भी जाना जाता है । गु्प्त जी ने खड़ी बोली को उस समय अपनाया जब ब्रजभाषा का प्रभाव हिन्दी साहित्य में अपना प्रभाव फैला चुका था । श्री पं महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया । हिन्दी कविता के लंबे इतिहास में कवि गुप्त जी ने अपनी एक शैली बनायी यह थी - पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा । राष्ट्रकवि गुप्त जी की प्रमुख कृतियां रही - पंचवटी , जयद्रथ वध , यशोधरा एवं साकेत ।


मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म झांसी में हुआ । विद्यालय में खेलकूद को ध्यान देते हुए पढ़ाई को पूरी न कर सके । घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। गुप्त जी ने बाल्यकाल से १२ वर्ष की आयु में ब्रजभाषा में कविता रचना आरम्भ किया ।जल्द ही इनका संपर्क आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से हुआ और इनकी रचनाएं खड़ी बोली मासिक पत्रिका "सरस्वती " में प्रकाशित होने लगी । गुप्त जी का पहला कविता संग्रह "रंग में भंग " तथा बाद में "जयद्रथ वध " प्रकाशित हुआ । सन् १९१४ ई. में राष्टीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती' का प्रकाशन किया । जिससे कवि मैथिली शरण गुप्त जी ख्याति भारत भर में फैल गयी । गुप्त जी नें साकेत और पंचवटी लिखी उसके बाद गांधी जी के संपर्क आये । गांधी जी ने मऔथिली शरण जी को " राष्ट्रकवि " कहा ।

गुप्त जी अपनी कलम से संपूर्ण देश में राष्ट्रभाक्ति की भावना भर दी । गुप्त जी की कलमसे ये स्वर निकले -

'जो भरा नहीं है भावों से
जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।'


मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत है
। 12 दिसंबर 1964 को चिरगांव में ही उनका देहावसान हुआ।