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बुधवार, 21 अप्रैल 2010

‘कवि शिरोमणि संत सुंदरदास समारोह 2010’...(रिपोर्ट) ...विमला भंडारी



श्री शिवनारायण रावत स्मृति शब्द संस्थान, दौसा एवं कौशिक विद्या मंदिर समिति के संयुक्त तत्वावधान में ‘कवि शिरोमणि संत सुंदरदास समारोह 2010’ का आयोजन किया गया। इस समारोह में ‘काव्य माधुरी’

तथा ‘साहित्यकार सम्मान’ कार्यक्रम का आयोजन भी किया गया। बालवाटिका (भीलवाड़ा) के संपादक डॉ. भैरूलाल गर्ग, संगरिया के बाल साहित्यकार तथा व्यंग्यकार श्री गोविन्द शर्मा, सलूम्बर की साहित्यकार

और जिलापरिषद सदस्या श्रीमती विमला भण्डारी तथा मंडला के साहित्यकार डॉ. शरदनारायण खरे को शॉल ओढा सम्मान पट्टिका अर्पित कर सम्मानित किया गया।

समारोह में आयोजित कवि सम्मेलन में रमेश बांसुरी(अलवर), जगदीश लवानिंया(हाथरस), सुरेन्द्र सार्थक

(डीग), श्यामसुन्दर अकिंचन(छाता,मथुरा), रामवीर सिंह साहिल एवं अंजीव अंजुम(दौसा) आदि कवियों ने

अपनी रोचक कविताएं सुनाईं।

समारोह की अध्यक्षता शंभूदयाल सर्राफ ने की तथा रामावतार चौधरी (अध्यक्ष ब्लाक कांग्रेस)

मुख्यअतिथि थे।

समारोह में उपस्थित गणमान्य व्यक्तियों में गोपीशंकर चौधरी, अजयवीर सिंह, संस्था के अध्यक्ष एवं सह

संयोजक सम्मिलित थे। इसी समारोह में श्रीमती विमला भण्डारी के दो बालकथा संग्रह ‘करो मदद अपनी’

तथा ‘मजेदार बात’ का अतिथियों ने लोकार्पण किया। अंजीव रावत की बाल काव्य पुस्तक ‘कौन फलों का राजा’,

रामवीर सिंह साहिल की ‘सूरज की हुंकार’ आदि पुस्तकों का भी इस समारोह में विमोचन किया गया।

लिखूं ग़ज़ल ...(ग़ज़ल ).....कवि दीपक शर्मा

मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिखूँ

मैं भी चाहता हूँ की इश्क के नगमें गाऊं

अपने ख्वाबों में में उतारूँ एक हसीं पैकर

सुखन को अपने मरमरी लफ्जों से सजाऊँ ।

लेकिन भूख के मारे, ज़र्द बेबस चेहरों पे

निगाह टिकती है तो जोश काफूर हो जाता है

हर तरफ हकीकत में क्या तसव्वुर में 

फकत रोटी का है सवाल उभर कर आता है ।

ख़्याल आता है जेहन में उन दरवाजों का

शर्म से जिनमें छिपे हैं जवान बदन कितने 

जिनके तन को ढके हैं हाथ भर की कतरन

जिनके सीने में दफन हैं , अरमान कितने 

जिनकी डोली नहीं उठी इस खातिर क्योंकि

उनके माँ-बाप ने शराफत की कमाई है

चूल्हा एक बार ही जला हो घर में लेकिन 

मेहनत की खायी है , मेहनत की खिलाई है । 

नज़र में घुमती है शक्ल उन मासूमों की 

ज़िन्दगी जिनकी अँधेरा , निगाह समंदर है ,

वीरान साँसे , पीप से भरी -धंसी आँखे

फाकों का पेट में चलता हुआ खंज़र है ।

माँ की छाती से चिपकने की उम्र है जिनकी

हाथ फैलाये वाही राहों पे नज़र आते हैं ।

शोभित जिन हाथों में होनी थी कलमें 

हाथ वही बोझ उठाते नज़र आते हैं ॥ 

राह में घूमते बेरोजगार नोजवानों को

देखता हूँ तो कलेजा मुह चीख उठता है

जिन्द्के दम से कल रोशन जहाँ होना था

उन्हीं के सामने काला धुआं सा उठता है ।

फ़िर कहो किस तरह हुस्न के नगमें गाऊं

फ़िर कहो किस तरह इश्क ग़ज़लें लिखूं

फ़िर कहो किस तरह अपने सुखन में

मरमरी लफ्जों के वास्ते जगह रखूं ॥

आज संसार में गम एक नहीं हजारों हैं

आदमी हर दुःख पे तो आंसू नहीं बहा सकता ।

लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से

मीठे अल्फाजों से कोई मन बहला नही सकता ।