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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

तुम्हारा एक गुमनाम ख़त .........अनिल कांत जी

कभी जो उड़ती थी हवाओं के साथ तेरी जुल्फें
तो हवा भी महक जाया करती थी
अब तो साँस लेना भी गुनाह सा लगता है
याद है ना तुम्हे ...जब उस शाम रूमानी मौसम में ....चन्द गिरती बूंदों तले .... और उस पर वो ठंडी ठंडी सर्द हवा .....कैसे तुम्हारी जुल्फें लहरा रही थीं .....सच बहुत खूबसूरत लग रही थीं तुम .... वो बैंच याद है न तुम्हें ....वही उस पार्क के उस मोड़ पर ....जहाँ अक्सर तुम मुझे ले जाकर आइसक्रीम खाने की जिद किया करती थी .....हाँ शायद याद ही होगा ....कितना हँसती थी तुम .....उफ़ तुम्हारी हँसी आज भी मेरे जहन में बसी है ....उस पर से जब तुम जिद किया करती थी .....कि एक और खानी है ...बिलकुल बच्चों की माफिक .....उस पल कितनी मासूम बन जाया करती थीं तुम ....कि जैसे कुछ जानती ही न हो ....पगली कहीं की ....बिलकुल बच्ची बन जाती थी तुम .....
कल शाम उस मोड़ से गुजरा था मैं ....ना जाने क्यों मेरे कदम लडखडा से गए थे ....ना चाहते हुए भी एक पल को थम सा गया था मैं ..... कहीं तुम्हारी याद ना आ जाये ...ये सोच जल्दी से निकल जाना चाहता था...पर सच खुद को रोक ना सका ....ना जाने क्यों कदम रुक गए .....मैं पहली बार तुम्हारे बाद उस पर अकेला बैठा था ....ना जाने क्यों पलकें गीली हो गयी थीं ......
अचानक से ही उस रोज़ पर नज़र गयी मेरी ...जिस रोज़ तुम मुझसे " खुट्टा थी " ....हाँ जब तुम मुझसे बात ना करने की एक्टिंग किया करती थी ...तब तुम यही कहा करती थी ....जाओ मैं खुट्टा हूँ ....कट्टी ..कट्टी ....और मैं मुस्कुरा जाया करता था .....और उस दिन जब दूर दो बच्चे अपनी अपनी बोरी लिए हुए कुछ बीन रहे थे ...कूड़े के ढेर में ...... और दूर अपनी आँखों से आइसक्रीम की तरफ देख रहे थे ....उनकी नज़रें जो आइसक्रीम की चाह रखती थीं ...पर शायद मायूस थी ....तब कैसे तुमने उन्हें पास बुलाया था ....कौन सी आइसक्रीम खाओगे ...तुमने उनसे पूँछा था ...और कैसे वो ना नुकुर सा कर रहे थे .....पर तुमने जब उन्हें आइसक्रीम दिलवाई थी ....और मेरी जेब से पर्स निकाल आइसक्रीम वाले को पैसे दिए थे .....कैसे वो प्यार से निहारते हुए गए थे तुमको .....उस पल तुम उन्हें सबसे प्यारी लगी होगी ....और मुझे भी .....और मैं ने तुम्हारे गले में हाथ डाल कर कहा था .... कितनी क्यूट हो तुम ......
पर आज ये बारिश कुछ अच्छी नहीं लग रही .....वही बूँदें ....वही मौसम है ...पर फिर भी दिल वहीँ खोया सा है ....तुम्हारे नर्म हाथों की गर्मी ...जो आज भी मेरे जेब में रखी हुई है ...सोचता हूँ एक ये गर्मी ही तो है जो आज तक जिंदा है ....बिल्कुल तुम्हारी यादों की तरह ....अब देखो छाता साथ ना लेकर चलने की बीमारी मुझे आज भी है ....तुम्हें बारिश में भीगने में मज़ा जो आता था ....ना जाने क्यों आज ...जी भर कर भीगने को मन करता है ....मन करता है ये बारिश ना थमे ....या फिर बहा ले जाए मुझे .....अरे नहीं नहीं मैं रो नहीं रहा हूँ ...ये तो बारिश ही है ....हाँ बारिश ही तो है ....तुम भी ना कैसे कैसे वादे ले गयी .....
चन्द रोज़ पहले एक ख़त मेरी किताबों के दरमियाँ मिला .... तुम भी ना ...हमेशा ऐसा ही करती थी ....ख़त लिख कर यहाँ - वहाँ रख छोड़ती थीं .....अब देखो चन्द रोज़ पहले मिला जाकर .....और ये क्या तुम ना फरमाइश बहुत करती हो ...ख़त में भी फरमाइश .....चन्द पल ख़ुशी के मेरी बाहों में ...एक मुट्ठी मेरी मुस्कराहट .....मेरे हाथों की गर्मी .....और वो नज्में जो सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी खातिर मैंने लिखी .......हाँ पता चला मुझे तुम्हारी ये फरमाइश थी .....पगली सब कुछ तुम्हारा ही तो था .....
तुम भी ना जब से खुट्टा करके गयी हो ...तब से वापस ही नहीं आयीं .... अब चलो बहुत कट्टी कट्टी खेल लिया ...और मैं तो हमेशा की तरह कब से हार मान चुका हूँ ..... हाँ जानता हूँ एक मुट्ठी मुस्कराहट की फरमाइश रोज़ पूरी करनी है मुझे .....पर फिर भी न जाने क्यूँ ये पलकें बार बार गीली हो जा रही हैं ...
अब देखो ये आइसक्रीम भी ....बह ही गयी .....ठीक मेरे आँसुओं की तरह .....

उर्मिला की विरह वेदना--------[गीत]--------वंदना गुप्ता

१) प्रियतम हे प्राणप्यारे
विदाई की अन्तिम बेला में
दरस को नैना तरस रहे हैं
ज्यों चंदा को चकोर तरसे है
आरती का थाल सजा है
प्रेम का दीपक यूँ जला है
ज्यों दीपक राग गाया गया हो


२) पावस ऋतु भी छा गई है
मेघ मल्हार गा रहे हैं
प्रियतम तुमको बुला रहे हैं
ह्रदय की किवड़िया खडका रहे हैं
विरह अगन में दहका रहे हैं
करोड़ों सूर्यों की दाहकता
ह्रदय को धधका रही है
प्रेम अगन में झुलसा रही है
देवराज बरसाएं नीर कितना ही
फिर भी ना शीतलता आ रही है

३) हे प्राणाधार
शरद ऋतु भी आ गई है
शरतचंद्र की चंचल चन्द्रकिरण भी
प्रिय वियोग में धधकती
अन्तःपुर की ज्वाला को
न हुलसा पा रही है
ह्रदय में अगन लगा रही है


४) ऋतुराज की मादकता भी छा गई है
मंद मंद बयार भी बह रही है
समीर की मोहकता भी
ना देह को भा रही है
चंपा चमेली की महक भी
प्रिय बिछोह को न सहला पा रही है


५) मेरे जीवनाधार
पतझड़ ऐसे ठहर गया है
खेत को जैसे पाला पड़ा हो
झर झर अश्रु बरस रहे हैं
जैसे शाख से पत्ते झड़ रहे हैं
उपवन सारे सूख गए हैं
पिय वियोग में डूब गए हैं
मेरी वेदना को समझ गए हैं
साथ देने को मचल गए हैं
जीवन ठूंठ सा बन गया है
हर श्रृंगार जैसे रूठ गया है

६) इंतज़ार मेरा पथरा गया है
विरहाग्नि में देह भी न जले है
क्यूंकि आत्मा तो तुम संग चले है
बिन आत्मा की देह में
वेदना का संसार पले है

७) मेरे विरह तप से नरोत्तम
पथ आलोकित होगा तुम्हारा
पोरुष को संबल मिलेगा
भात्री - सेवा को समर्पित तुम
पथ बाधा न बन पाऊँगी
अर्धांगिनी हूँ तुम्हारी
अपना फ़र्ज़ निभाउँगी
मेरी ओर न निहारना कभी
ख्याल भी ह्रदय में न लाना कभी
इंतज़ार का दीपक हथेली पर लिए
देहरी पर बैठी मिलूंगी
प्रीत के दीपक को मैं
अश्रुओं का घृत दूंगी
दीपक मेरी आस का है ये
मेरे प्रेम और विश्वास का है ये
कभी न बुझने पायेगा
इक दिन तुमको लौटा लायेगा,लौटा लायेगा .........................