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मंगलवार, 11 मई 2010

कोई हो ऐसा.....(कविता)......वंदना

कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
हमारे रूह की
अंतरतम गहराइयों में छिपी
हमारे मन की हर
गहराई को जाने
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
सिर्फ़ हमें चाहे
हमारे अन्दर छिपे
उस अंतर्मन को चाहे
जहाँ किसी की पैठ न हो
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
हमें जाने हमें पहचाने
हमारे हर दर्द को
हम तक पहुँचने से पहले
उसके हर अहसास से
गुजर जाए
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
बिना कहे हमारी हर बात जाने
हर बात समझे
जहाँ शब्द भी खामोश हो जायें
सिर्फ़ वो सुने और समझे
इस मन के गहरे सागर में
उठती हर हिलोर को
हर तूफ़ान को
और बिना बोले
बिना कुछ कहे वो
हमें हम से चुरा ले
हमें हम से ज्यादा जान ले
हमें हम से ज्यादा चाहे
कभी कभी हम चाहते हैं
कोई हो ऐसा.......कोई हो ऐसा
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यह ह्रदय नहीं, एक निरा- मांस का पिंड है...(कविता)....आशुतोष ओझा जी


यह ह्रदय नहीं, एक
निरा- मांस का पिंड है
बड़ी निष्ठुर होकर
उसने मुझसे कहा होगा ,

गए बीत बरस
दो- चार मगर
तुम नहीं आये
तकती रही डगर
आखिर, कहाँ गए थे
किस शहर
भूली नहीं छोड़ दी , बिसरा दी
कब तक मरती
बिरह में तड़प-तड़प कर .
यह ह्रदय नहीं , एक
निरा-मांस का पिंड है


जेठ रहा या कातिक
क्या सावन, क्या भादों
साँस थे , एहसास थे , लेकिन
साथ नहीं थे , मरी नहीं
मार दी गयी , दिवस था
साप्ताहिक या कलमुंध पाक्छिक.

यह ह्रदय नहीं , एक
निरा-मांस का पिंड है........

मन सावन -------------- {कविता} ---------------------- सन्तोष कुमार "प्यासा"

मन सावन



मन सावन मन उमड़ते, अभिलाषाओ के बादल


गिरती जीवन धरा पर, विचारो की बूंदें हर पल


आशाओं की दामिनी कौंधती मन में


सुख दुःख की बदली, करती कोलाहल


परिश्तिथियों की बौछारों से गीले होते जीवन प्रष्ठ


मन के मोर, पपीहे, दादुर , मन सावन में भीगने को बेकल


विचारों की बूंदों से ह्रदय के गढढे उफनाए


आशा-निराशा की सरिता बह चली, तीव्र गति से अविरल


मन सावन मन उमड़ते, अभिलाषाओ के बादल


गिरती जीवन धरा पर, विचारो की बूंदें हर पल