जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता
इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता
होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
आगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदेले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता
3 comments:
होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता
हर अशार आज के हालात को ब्याँ करता हुया। सुमन जी को बधाई।
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
आगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदेले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता
बहुत गहरी ग़मगीन रचना -
धैर्य पूर्ण और कर्तव्यनिष्ठ रहना ही हमारे हाथ में है .
अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता
क्या बात है सुमन जी ...आप तो हमेशा ही गागर में सागर भरते है
यूँ तो पूरी ग़ज़ल लाजवाब है लेकिन ये शेर कुछ ज्यादा ही दिलकश लगा
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