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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

अलमारी----(कविता)----मोनिका गुप्ता

कमरे मे माँ की अलमारी नही
अलमारीनुमा पूरा कमरा है
जिसमे मेरे लिए सूट है
सामी के लिए खिलौना है
इनके लिए परफ्यूम है
मणि के लिए चाकलेट है
एक जोडी चप्पल है
सेल मे खरीदा आचार,मुरब्बा और मसाला है
बर्तनो का सैट है
शगुन के लिफाफा है
जो जो जब जब याद आता है
वो इसमे भरती जाती हैं
ताकि मेरे आने पर
कुछ देना भूल ना जाए
सच, ये अलमारी नही
अलमारीनुमा पूरा कमरा है

8 comments:

संतोष कुमार "प्यासा" ने कहा…

Bhavbheeni prastuti....

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

माँ हर चीज़ ऐसे ही समेटती हैं ...

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

maan esi hi hoti hai
sunder kvita
--- sahityasurbhi.blogspot.com

ktheLeo (कुश शर्मा) ने कहा…

सुन्दर रचना!

"उस कमरे से भी बडी दुनियाँ रखती है वो,
अपने आँचल में एक जहाँ रखती है वो!"

Unknown ने कहा…

bahut hi khubsurat kavita........pasand aayi

निर्मला कपिला ने कहा…

कमरा क्या एक पूरी ज़िन्दगी है एक सदी है। अच्छी कविता। मोनिका जी को बधाई।

Sadhana Vaid ने कहा…

बड़ी आत्मीय सी सुकून भरी रचना ! माँ ऐसी ही होती है ! कुछ भूल ना जाये इसलिए हर छोटी से छोटी चीज़ को वह सहेजती सम्हालती रहती है और खुद कब बिखर जाती है किसीको पता ही नहीं चल पाता ! बहुत ही सुन्दर रचना ! बधाई !

मोनिका गुप्ता ने कहा…

आप सभी का कविता पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद और हिंदी साहित्य मंच खासतौर पर आपका धन्यवाद आपने कविता को प्रकाशित किया

मोनिका गुप्ता