सकल रूप रस भाव अवस्थित , तुम ही तुम हो सकल विश्व में |
सकल विश्व तुम में स्थित प्रिय,अखिल विश्व में तुम ही तुम हो |
तुम तुम तुम तुम , तुम ही तुम
तेरी वींणा के ही नाद से, जीवन
तेरी स्वर लहरी से ही प्रिय,जी
ज्ञान चेतना मान तुम्ही हो ,जग
तुम जीवन की ज्ञान लहर हो,भाव
अंतस मानस या अंतर्मन ,अंतर्हृ
अंतर्द्वंद्व -द्वंद्व हो तुम
तेरा प्रीति निनाद न होता , जग
जग के कण कण, भाव भाव में,केवल तुम हो,तुम ही
जग कारक जग धारक तुम हो,तुम तु
तुम तुम तुम तुम, तुम ही तुम हो
तुम्ही शक्ति, क्रिया, कर्ता हो
इस विराट को रचने वाली, उस विरा
दया कृपा अनुरक्ति तुम्ही हो,
अखिल भुवन में तेरी माया,तुझ मे
गीत हो या सुर संगम हे प्रिय!,
सकल विश्व के गुण भावों में, तु
तेरी प्रीति-द्रष्टि का हे प्रिय, श्याम के तन मन पर साया हो |
मन के कण कण अन्तर्मन में, तेरी प्रेम -मयी छाया हो ।
श्रिष्टि हो स्थिति या लय हो प्रिय!, सब कारण का कारण, तुम हो ।
तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम तुम तुम प्रिय, तुम ही तुम हो ॥
9 comments:
hindi sahitya me ek aur anoothi kavita.badhai..
धन्यवाद शालिनीजी...
सुंदर! अद्भुत!!
तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-तुम-!
बहुत बढ़िया!
बहुत अच्छी रचना...पहली बार आई हूं और इतनी अच्छी रचना पढ़ने को मिली...आगे भी आती रहूं इसलिए ब्लॉग फॉलो कर लिया है। आप भी जरुर आइए...
भाई वाह!
आपने तो सर्वेश्वरवाद का स्मरण करा दिया. वास्तव में यह प्रेम और समर्पण की युग्म दृष्टि है जहां प्रेमी हो या भक्त, उसे द्वंद्व और द्वैत सहन नहीं. सभी में प्रियतम की ही छटा दिखायी देती है. उसमे शुभ और अशुभ के लिए भी स्थान नहीं. समस्त द्वंदों को तिरोहित और समाहित कर लेती है यह दिव्य दृष्टि. .गुरु गोविन्द सिंग जी जब परमात्मा का गुणानुवाद करते - करते थक जाते है तब कह उठते हैं -..सब कुछ तू है...तू .तू ..तू .तू ..तू .तू तू ..तू तू .तू .तू तू .तू .तू .तू .तू ...........(२८ बार). यह सर्वर्श्वर्वाद दार्शनिक क्षेत्र में विषद चर्चा का गूढ़ विषय रहा है. बहुत -बहुत बधाई ..
धन्यवाद मनोज जी..स्त्री और मां--दोनों ही रूप अद्भुत ही होते हैं फ़िर उनका वर्णन.....
धन्यवाद शास्त्री जी
धन्यवाद वीनाजी, सुन्दर हैं आपके सुर ...LBA va AIBA पर शूर्पणखा काव्य उपन्यास व श्रिष्टि-महाकाव्य पर भी गौर करें....
धन्यवाद डा तिवारी जी, -- जो आप आये व आपने भाव को पहचाना..
जब मैं था तब हरि नहीं, अब है हैं मैं नाहिं...
---.यह रचना प्रेयसी व मां दोनों के लिये ही समर्थ है...क्योंकि मां( लौकिक व देवी रूप दोनों) व प्रेयसी का ही पूर्ण समर्पण पुरुष के लिये होता है...पुत्र व प्रेमी के रूप में...पुरुष भी इन्हीं दोनों को ही पूर्ण समर्पित होता है....
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