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सोमवार, 31 जनवरी 2011

प्यार का पहला एहसास (तुम्हारे जाने के बाद)……......(सत्यम शिवम)

टिमटिमाते तारों से भरी वो तमाम राते कैसे भूल सकता हूँ?वो एहसास भी बड़ा अजीब था।प्यार का पहला एहसास।बेखबर दुनिया से होता था मै।सुध ना थी किसी की बस इंतजार होता था तुम्हारा और तुम्हारे फोन का।बाते होती तो बाते होती रहती और ना होती तुम तो तुम्हारी यादे तुम्हारे साथ होने का एहसास करा जाती।
आज की ये शीतलहरी की ठंडक भरी सुबह।कुहासे ने आसमान को ढ़ँक दिया था।कुछ दिख नहीं रहा था।ये मंजर मुझे बिल्कुल तुम्हारे प्यार सा जान पड़ा,जो आज कल न जाने किस कुहासे से ढ़ँका था।

याद आया मुझे वो दिन जब पहली बार तुम्हे देखा था।तुम आयी थी मेरे घर और मै तो तुम्हे देखता ही रह गया।पता ना था उस वक्त ये आँखों ही आँखों में जो मैने रिश्ता जोड़ा था तुमसे कभी प्यार के उस मँजिल तक ले जायेगा मुझे जिसके बारे में कभी ना सोचा था।उस रोज बस देखता रहा तुम्हे और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि काश तुम मिल जाती मुझे।बेजुबान होकर बहुत कुछ कहने की कोशिस क्या रँग लायी पता ना चला।तुम चली गई मेरे घर से और मै जीने लगा तुम्हारी उन दो पल के यादों के साथ।

जीवन की आपाधापी में व्यस्त होता गया मै,पर आज भी कभी कभी,कही कही तुम्हारी कमी खलती थी।बस एक मुलाकात का असर इतना रँग लायेगा,क्या पता था।तुम आ जाओगी मेरी जिंदगी में बन के बहार,क्या पता था।आज सुबह सुबह बिस्तर पर पड़ा था मै कि फोन की घंटी बजने लगी।मैने फोन उठाया पर उधर से कोई कुछ बोलता ही न था।मै जानता हूँ तुमने क्या सोचा होगा,पर मैने तुम्हारे निःशब्दता को सुन लिया।जानती हो क्यों,क्योंकि उस रोज जो पहली बार मिली थी तुम तुम्हारी आँखों ने सब कह दिया था।मौन को भी जुबान दे देते है ये नैन।मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा और हिम्मत कर के तुम्हारा नाम ले लिया।तुमने हामी भर दि और उस रोज खूब हुई बाते।उस पहले दिन की सारी बाते जो अधूरी थी,होने लगी पूरी।इजहार मेरे प्यार का मेरी बातों ने कर दिया।और तुमने एहसास दिलाया मुझे उस रोज मेरा पहला प्यार।एक ऐसा एहसास जो था मेरे जीवन में पहले प्यार का एहसास।सिलसिला यूँही चलता रहा ,हम दूर होके भी हर पल करीब होते रहे एक दूसरे के।
कितने शिकवे गिले है आज तुमसे,तुम्हारे जाने के बाद।पता है तुम्हे फिर से,वही ठँडे की भोर होती है यहा।फिर से यहा दिन में जाड़े की धूप और अब भी राते होती है वैसी ही चाँदनी।बस इक तुम ही तो ना हो,तुम्हारे जाने के बाद।जिंदगी चल रही है मायूस सी,खामोश डगर भी अब हैरान सा है।गुजरते थे कभी जिन राहों से हम दोनों साथ साथ वो डगर भी मुझे अकेला देख पूँछ लेता है मुझसे कभी,तुम्हारे जाने के बाद।पुकारता हूँ,आवाज लगाता हूँ तुम्हे हर उस पल जब याद आती हो तुम।पर अब कहा पहूँचती है मेरी बाते तुम तक,तुम्हारे जाने के बाद।

आज कितने सालों के बाद भी बस वो तुम्हारा दो पल का साथ बस गया मेरे जेहन में यादों की कोई बारात बन कर।विश्वास नहीं होता कि जीवन में तुम्हारा साथ भी था कभी या बस इक सपने को सच समझ बैठा था मै।जिंदगी का रुप आज बिल्कुल बदल गया है दुनिया के मायने में,पर किसे बताऊँ कि आज भी वो एहसास यूँही बसा हुआ है मेरी यादों की पोटली में ज्यों का त्यों।जब सब चले जाते है,कोई साथ नहीं होता,तो सिर्फ तुम्हारी यादे ही तो होती है जो मेरी लेखनी से पन्नों पे उतरती रहती है।गीत बनाकर गुनगुनाता रहता हूँ और जीता रहता हूँ पुरानी यादों के सहारे।

लगता है अब ना आओगी तुम।पर क्या करुँ,ये दिल तो समझना चाहता ही नहीं।मै भूल जाता तुम्हे,पर ये दिल तुम्हे भूलता ही नहीं।आज फिर वैसी ही चाँदनी में तारों से भरी आसमान को निहारता छत पे बैठा अकेला मै।लगा ऐसा कि तुम आने वाली हो।आज फिर एक टुटते तारे से माँगा मैने बहुत कुछ जो कभी अधूरा रह गया था माँगना।चाँद की चाँदनी से रात में फिर वैसा ही मंजर मुझे एहसास दिलाता रहा,तुम्हारे न होते हुए भी हर पल तुम्हारे होने का।नजर मेरी जाने क्यों हर पल इंतजार तुम्हारा करती रहती है और चाँदनी रातों में अब भी छत पे तुम्हारा इंतजार करता हूँ मै,कि आज तुम आओगी...................।

शनिवार, 29 जनवरी 2011

तुम हो अब भी……...(सत्यम शिवम)

मौन मेरा स्नेह अब भी,
जो दिया,तुमसे लिया मै।
प्यार मेरा चुप है अब भी,
क्यों किया,जो है किया मै।

भूल से हुई इक खता,
मैने रुलाया खुब तुमको,
खुद भी रोया,
कह ना पाया,
नैना मेरे ढ़ुँढ़े उनको।

तुम कही हो,मै कही हूँ,
तुम ना मेरी,मै नहीं हूँ।

पर है वैसा ही सुहाना,
प्यार का मौसम तो अब भी।

साथ तेरा छोड़ दामन,
प्यार का बंधन छुड़ाया,
रुठ चुकी है खुशियाँ अपनी,
प्यार हमारा लुट न पाया।

ख्वाबों में फिर हर रात ही,
न जाने क्यों आती हो तुम तो अब भी।

राहे मुझसे पुछती है,
है कहा तेरा वो अपना,
साथ जिसके रोज था तु,
खो गया क्यों बन के सपना।

तु गया है भूल या उसने ही दामन है चुराया,
पर मेरे जेहन में वैसी ही,
कुछ प्यारी यादें सीमटी है अब भी।

माना है मैने कि तुम हो दूर मेरे,
दूर हो के पास हो तुम साथ मेरे।

मै तुम्हे अब देखता हूँ आसमां में,
चाँद में,तारों में,
हर जगह जहा में।

सब में बस तेरी ही तस्वीर दिखती,
हर तस्वीर तुम्हारी है ये पूछती।

मै नहीं तेरी प्रिया कर ना भरोसा,
दूर रह वरना तु खायेगा फिर धोखा,
मै उन्हें बस ये ही कह के टालता हूँ,
साये से तेरा अपना वजूद निकालता हूँ।

कोई ना जाने किसी को क्या पता है?
मेरे दिल के घर में तो तुम हो अब भी।

बीती हुई हर बात में,
अपनी सभी मुलाकात में,
थे चंद सपने जो थे जोड़े तेरे मेरे साथ ने।

उन चाँदनी हर रात में,
भींगी हुई बरसात में,
मेरे आज में और कल में,
दबी दबी सी जिक्र तुम्हारी,
एहसास दिलाती तुम हो अब भी..........

बुधवार, 26 जनवरी 2011

जरा याद इन्हे भी कर लें-----------मिथिलेश

गणतंत्र दिवस के अवसर पर इनके परवानों को तो याद किया ही जा रहा है, लेकिन उन गुमनाम हीरोज़ को भी याद करने की जरूरत है, जिन्होंने अपने तरीके से आजादी की मशाल जलाई।
ऐसे अवसर पर बङे लोगो को याद तो करते हैं, लेकिन इनके बिच कुछ नाम ऐसे भी है जिनको बहुत कम ही लोग जानते है। वहीं देखा जाये तो हमारे आजादी मे इनका योगदान कम नही है। इनका नाम आज भी गुमनाम है, लेकीन इन्होने जो किया वह काबिले तारीफ है। ये वे लोग जिन्होने आजादी के लिए बिगूल फुकंने का काम किया और ये लोग अपने काम मे सफल भी हुये। तो आईये इस गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पे इनको याद करें और श्रद्धाजंली अर्पित करें।

ऊधम सिंह----------ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे।
इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आजाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं .........ऊधम सिंह ने मार्च 1940 में मिशेल ओ डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया। इस बाग में 4,000 मासूम, अंग्रेजों की क्रूरता का शिकार हुए थे। ऊधम सिंह इससे इतने विचलित हुए कि उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और एक देश से दूसरे देश भटकते रहे। अंत में वह लंदन में इस क्रूरता के लिए जिम्मेदार गवर्नर डायर तक पहुंच गए और जलियांवाला हत्याकांड का बदला लिया। ऊधम सिंह को राम मोहम्मद सिंह आजाद के नाम से भी पुकारते थे। जो हिंदू, मुस्लिम और सिख एकता का प्रतीक है।

जतिन दास --------- जतिन को 16 जून 1929 को लाहौर जेल लाया गया। जेल में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ बहुत बुरा सुलूक किया जाता था। जतिन ने कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार करने की मांग पर भूख हड़ताल शुरू कर दी। जेल के कर्मचारियों ने पहले तो इसे अनदेखा किया, लेकिन जब भूख हड़ताल के 10 दिन हो गए तो जेल प्रशासन ने बल प्रयोग करना शुरू किया। उन्होंने जतिन की नाक में पाइप लगाकर उन्हें फीड करने की कोशिश की। लेकिन जतिन ने उलटी कर सब बाहर निकाल दिया और अपने मिशन से पीछे नहीं हटे। दिनांक 15 जुलाई को जेल सुप्रिंटेन्डेंट ने आई.जी (कारावास) को एक रिपोर्ट भेजी कि 14 जुलाई को भगत सिंह व दत्त को विशेष भोजन प्रस्तुत किया गया था, क्यों कि आई.जी (कारावास) ने ऐसा आदेश टेलीफोन पर दिया था। पर भगत सिंह ने उन्हें बताया कि वे विशेष भोजन तब तक स्वीकार न करेंगे, जब तक विशेष डाइट का वह मानदंड सरकारी गज़ट में प्रकाशित न किया जाएगा कि यह मानदंड सभी कैदियों के लिए है।

इस भूख हड़ताल में जतिन दास की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। भगत सिंह साथियों से सलाह लेने के बहाने बोर्स्टल जेल जा कर सभी साथियों के स्वस्थ्य का समाचार पूछ लिया करते थे। उन्हें कभी नहीं लगता था कि वे अकेले हैं, बल्कि देश-भक्ति की एक ज्वाला थी, जो सब को सम्पूर्ण रूप से जोड़े रहती थी। इधर चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति बहुत चिंताजनक है। वे दवाई लेने तक से इनकार कर रहे हैं। एक डॉ. गोपीचंद ने दास से पूछा भी- आप दवाई तथा पानी क्यों नहीं ले रहे?
दास ने निर्भीक उत्तर दिया - मैं देश के लिए मरना चाहता हूँ... और कैदियों की स्थिति को सुधारने के लिए।

21 अगस्त को कांग्रेस के एक अन्य देशभक्त नेता बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन ने दास को बहुत मनाया- दवाई ले लो। सिर्फ़ जीवित रहने के लिए। भले ही भूख हड़ताल न तोड़ो। मेरे कहने पर सिर्फ़ एक बार प्रयोग के तौर पर दवा ले लो, और पन्द्रह दिन तक देखो। अगर तुम्हारी मांगें नहीं मानी जाती, तो दवाई छोड़ देना।

दास ने कहा - मुझे इस सरकार में कोई आस्था नहीं है। मैं अपनी इच्छा-शक्ति से जी सकता हूँ। भगत सिंह ने दबाव डालना जारी रखा। इस पर दास ने केवल दो शर्तों पर दवाई लेना स्वीकार किया, कि दवाई डॉ. गोपीचंद ही देंगे। और कि भगत सिंह दोबारा ऐसा आग्रह नहीं करेंगे।
26 अगस्त को चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। वे शरीर के निचले अंगों को हिला डुला नहीं सकते। बातचीत नहीं कर सकते, केवल फुसफुसा रहे हैं। और 4 सितम्बर को उनकी नब्ज़ को कमज़ोर व अनियमित बताया गया, उल्टियाँ हुई। 9 को नब्ज़ बेहद तेज़ हो गई। 12 को उल्टी हुई, नब्ज़ अनियमित... 13 सितम्बर, अपने अनशन के ठीक चौंसठवें दिन, दोपहर एक बज कर दस मिनट पर इस बहादुर सपूत ने भारत माँ की शरण में अपने प्राणों की आहुति दे कर इतिहास के एक पन्ने को अपने बलिदान से लिख डाला।
इस युवा देव-पुरूष के अन्तिम शब्द थे - मैं बंगाली नहीं हूँ। मैं भारतवासी हूँ। जी एस देओल ऊपर संदर्भित पुस्तक में जतिन दास की शहादत पर लिखते हैं -'ब्रिटिश के लिए ईसा मसीह भी शायद एक भूली-बिसरी कथा थे'। जिस प्रकार यीशु सत्य की राह पर सूली चढ़ गए, जतिन दास सत्य के लिए युद्ध करते करते शहीद हो गए।

विशाल भारत की तरह आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देश भी ब्रिटिश की पराधीनता का अभिशाप सह चुके थे। आयरलैंड के ही एक क्रांतिकारी युवा पुरूष टेरेंस मैकस्विनी ने भी जतिन दास की तरह ही शहादत दी थी। जतिन दास के जाने की ख़बर विश्व के अखबारों में छपी थी। इसे पढ़ कर मैकस्विनी की बहादुर पत्नी ने एक तार भेज कर लिखा - टेरेंस मैकस्विनी का परिवार इस दुःख तथा गर्व की घड़ी में सभी बहादुर भारतवासियों के साथ है। आज़ादी आएगी। जेल के बाहर कई कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में असंख्य भीड़ जमा थी।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद के नारों से आसमान गूँज उठा। सुभाष चन्द्र बोस ने देश के इस सपूत को अपना सलाम भेजा। जतिन दास को पूरा देश नमन कर रहा था। अख़बार श्रद्धांजलियों से भरे थे। जतिन दास के भाई के.सी दास ने अपने भाई का पार्थिव शरीर प्राप्त किया जिसे लाहौर में एक भारी जुलूस के बीच कई जगहों से होते हुए रेलवे स्टेशन तक लाया गया। लाखों लोगों की आंखों में आंसू थे। आसमान फिर उन्हीं देश-भक्ति से ओत-प्रोत नारों से गूंजा था।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद

भीकाजी कामा--आजादी की लड़ाई में उन्‍हीं अग्रणियों में एक नाम आता है - मैडम भीकाजी कामा का। इनका नाम आज भी इतिहास के पन्‍नों पर स्‍वर्णाक्षरों से सुसज्जित है। 24 सितंबर 1861 को पारसी परिवार में भीकाजी का जन्‍म हुआ। उनका परिवार आधुनिक विचारों वाला था और इसका उन्‍हें काफी लाभ भी मिला। लेकिन उनका दाम्‍पत्‍य जीवन सुखमय नहीं रहा।

दृढ़ विचारों वाली भीकाजी ने अगस्‍त 1907 को जर्मनी में आयोजित सभा में देश का झंडा फहराया था, जिसे वीर सावरकर और उनके कुछ साथियों ने मिलकर तैयार किया था, य‍ह आज के तिरंगे से थोड़ा भिन्‍न था। भीकाजी ने स्‍वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद भी की और जब देश में प्‍लेग फैला तो अपनी जान की परवाह किए बगैर उनकी भरपूर सेवा की। स्‍वतंत्रता की लड़ाई में उन्‍होंने बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया। वो बाद में लंदन चली गईं और उन्‍हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन देश से दूर रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाया और वो पुन: अपने वतन लौट आईं। सन् 1936 में उनका निधन हो गया, लेकिन य‍ह काफी दु:खद था कि वे आजादी के उस सुनहरे दिन को नहीं देख पाईं, जिसका सपना उन्‍होंने गढ़ा था
इन्होंने जर्मनी में रहकर आजादी की अलख जगाई। वहां भीकाजी ने इंटरनैशनल सोशलिस्ट कॉन्फ़रन्स में 22 अगस्त 1907 को भारतीय आजादी का झंडा फहराया। कॉन्फ़रन्स के दौरान झंडा फहराते हुए उन्होंने कहा कि यह झंडा भारत की आजादी का है।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

माँ भारती के लाल.............(सत्यम शिवम)


अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।
सिस कटा कर भी तुम,
क्या बचा पाओगे अपने शान को,
बेईमानी के अंधकार में,
क्या देख पाओगे अपने मान को।

अपने अमिट उत्कर्ष को क्या वापस ला पाओगे तुम,
जहाँ भ्रष्टाचार है वहाँ शांति करवा पाओगे तुम।

रग रग में बहते रक्त की,
क्या नाश बचा पाओगे तुम।

अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।

आशा नहीं विश्वास है,
फिर भी मन में क्यों थोड़ा काश है।

कि अगर विजय न पाओगे,
मदभाल में घिर जाओगे,
शांति का जब करोगे त्याग,
हिंसा पर उतर आओगे।
विजय श्री लेने पर ही यह भूख प्यास मिट पायेगी।

अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।

आज वक्त है उत्थान का,
एकता का और मिलान का,
है सो गया आज जो जमीन,
पा जाओगे तुम उसे कभी।

है मिट गया आज जो कभी,
याद कर पाओगे उन्हें कभी।

अपने शहीदों के शहादत की लाज बचा पाओगे तुम,
उनकी याद में फिर वो जोश दिलों में जगा पाओगे तुम।

हर पल बदलते रुख को,
क्या मोड़ दोगे तुम यही।

अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।

मन में ये कैसा द्वंद है,
दूरियाँ इसे क्यूँ नापसंद है।

सीमा के इस जंजाल में,
देशप्रेम के ही ढ़ाल में,
क्यूँ घिर गया है मन मेरे काँटों से उलझे जाल में,
क्यूँ रोकता है मुझको वो अपनी सरहद के पार में।

हम है ये कैसे होड़ में,
चंचल हवा के जोर में,
क्यूँ बदले है अब ये जमीन,
क्यूँ लगता है फिर भी कमी।

लगता है तुम पा गए हो क्या,
उस अमिट प्रेम को फिर कहीं।

अगर दे दूँ मै तुम्हे खड्ग और भाल,
क्या जीत जाओगे तुम माँ भारती के लाल।

रविवार, 23 जनवरी 2011

Er. Rajani Kant: Quotation by Er. Rajani Kant

Er. Rajani Kant: Quotation by Er. Rajani Kant
सत्य वचन सुन्दर जीवन सूत्र। धन्यवाद।

क्रांतिवीर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस -------मिथिलेश


यूँ तो नेताजी कब इस दुनिया को छोड़ गये यह आज भी रहस्य बना हुआ है लेकिन ऐसा मना जाता है कि18 अगस्त या 16 सितम्बर 1945 को आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पुण्यतिथि है नेताजी 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में पैदा हुए । उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती देवी था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर के खिताब से नवाजा था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें।

स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव

कोलकाता के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष, दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर, उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की थी। वह रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह पर भारत वापस आए और सर्वप्रथम मुम्बई जा कर महात्मा गाँधी से मिले। मुम्बई में गाँधीजी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ, 20 जुलाई 1921 को महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच पहली बार मुलाकात हुई। गाँधीजी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाषबाबू कोलकाता आ गए और दासबाबू से मिले। दासबाबू उन्हें देखकर बहुत खुश हुए। उन दिनों गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया था। दासबाबू इस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज सरकार का विरोध करने के लिए, कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की।

1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए। अगर एक साल में अंग्रेज सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ, तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा। 26 जनवरी 1931 के दिन कोलकाता में सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को रिहा करने से इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिए गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को तैयार नहीं थे। अंततः भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने के कारण सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तौर-तरीकों से बहुत नाराज हो गए।

कारावास

अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ था। सबसे पहले उन्हें 1921 में छः महिने की जेल हुई। 1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्ल्स टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दे दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव माँगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे अंग्रेजों ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों के नेता हैं। इसी बहाने अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित काल के लिए म्यांमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।

5 नवंबर 1925 को देशबंधू चित्तरंजन दास का कोलकाता में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर मंडाले जेल में रेडियो पर सुनी। मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो जाने के बावजूद अंग्रेज सरकार ने रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए यूरोप चलें जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यु हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए। 1930 में कारवास के दौरान ही सुभाषबाबू को कोलकाता का महापौर चुन लिया गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी।

1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर खराब हो गयी। चिकित्सकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार इलाज के लिए यूरोप जाने को राजी हो गए।यूरोप प्रवास 1933 से 1936 तक सुभाषबाबू यूरोप में रहे। यूरोप में भी आंदोलन कार्य जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी. वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए। जब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया। बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिसमें उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया। विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उस पर अदालत में मुकदमा चलाया। मुकदमा जीतकर पटेल ने सारी संपत्ति गाँधीजी के हरिजन कार्य को भेंट कर दी। 1934 में अपने पिता की मृत्यु की खबर पाकर सुभाषबाबू कोलकाता लौटे। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिनों तक जेल में रखने के बाद वापस यूरोप भेज दिया।

कांग्रेस का अध्यक्ष पद

सन 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का ५१वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे।

कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा

1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धति पसंद नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। हालांकि, गाँधीजी उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ति अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष पर बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकुर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षों बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ।

सब यही जानता थे कि महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया है इसलिए वह चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में हुआ इसके ठीक विपरीत, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिले जबकि पट्टाभी सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए। मगर, बात यहीं खत्म नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाषबाबू की कार्यपद्धति से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहे और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बने रहे। 1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार पड़ गए थे, कि उन्हें स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथियों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन गाँधीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागरण शुरू कर दिया। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूर होकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हें उनके ही घर में नजरबंद कर दिया।

नजरबंदी से पलायन

नजरबंदी से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे़ बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर ने उनकी मुलाकात कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कराई। भगतराम तलवार के साथ में सुभाषबाबू पेशावर से अफ्गानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे़। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे।

काबुल में सुभाषबाबू दो महिनों तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होंने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में नाकामयाब रहने पर उन्होंने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाषबाबू काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँच गए।

हिटलर से मुलाकात

उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
आखिर, 29 मई 1942 को सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं थी। उन्होंने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ति से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलनेवाला हैं। इसलिए 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बंदर में अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्व आशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँच गए। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।

पूर्व एशिया में अभियान

पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिनों पश्चात नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।
21 अक्तूबर 1943 को नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आजाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। आजाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे़ हुए भारतीय युद्धबंदियोंको भर्ती किया। आजाद हिन्द फौज में औरतों के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी। पूर्व एशिया में नेताजी ने जगह-जगह भाषण करके वहाँ भारतीय लोगों से आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद करने का आह्वान किया। उन्होंने अपने आह्वान में संदेश दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आजाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। नेताजी ने इन द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनो फौजो को पीछे हटना पड़ा।
जब आजाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकडों मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता का संबोधन कर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा। इस प्रकार नेताजी ने गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया।

मृत्यु का अनुत्तरित रहस्य

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के के बाद से ही उनका कुछ भी पता नहीं चला। 23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई समाचार संस्था ने बताया कि 18 अगस्त को नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ली। दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्चय किया, लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी टोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए 1956 और 1977 में दो बार आयोग का गठन किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु, उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। साभार विकिपीडिया

शनिवार, 22 जनवरी 2011

जो ह्रदय स्पंदन हो मुखरित...............(सत्यम शिवम)


करना कैसा बहाना प्रिय,
जो ह्रदय स्पंदन हो मुखरित।
मिलन निशा का इक गीत अनोखा,
जो कंठो से फूट पड़े,
खुद पर ना हो जब प्राण का बस प्रिय,
तो प्रेम दिवाने क्या करे?

संगीत जिसका मौन हो,
जो नैनों से ही हो स्वरित।

करना कैसा बहाना प्रिय,
जो ह्रदय स्पंदन हो मुखरित।

वीणा के तार पर फेर अँगुली,
गूँजेगा जो इक मधुर धुन,
ह्रदय मेरे तु अधीर ना हो,
स्व स्पंदन के गीत को सुन।

व्याकुल ना हो इस रात प्रिय,
करना अब तु मन को कुंठित।

करना कैसा बहाना प्रिय,
जो ह्रदय स्पंदन हो मुखरित।

ध्वनि का मिलन हो प्रतिध्वनि से,
मेरे गीत तु जा ह्रदय में समा,
गूँजेगा वो गीत अब यूँ नभ से,
गायेगा प्रणय गीत सारा जहाँ।

बना तु गीत ऐसा जो हर ले मन का,
सारा दुख और विषाद,
तु ना कर इक क्षण भी यूँ अब,
जीवन का व्यतीत।

करना कैसा बहाना प्रिय,
जो ह्रदय स्पंदन हो मुखरित।

मेरी मौत खुशी का वायस होगी ----[मिथिलेश]


जिन्दगी जिन्दादिली को जान ए रोशन यहॉं
वरना कितने मरते हैं और पैदा होते जाते हैं।

क्रान्तिकारी रोशन सिंह का जन्म शाहजहॉंपुर जिले के नबादा ग्राम में हुआ था । यह गांव खुदागंज कस्बे से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है। इनके पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। इस परिवार पर आर्य समाज का बहुत प्रभाव था। उन दिनों आर्य समाज द्वारा चलाए जा रहे देशहित के कार्यों से ठाकुर साहब का परिवार अछूता ना रहा। श्री जंगी सिंह के चार पुत्र ठाकुर रोशन सिंह, जाखन सिंह, सुखराम सिंह, पीताम्बर तथा दो लड़कियॉं थी । आपका जन्म 22 जनवरी को सन् 1892 को हुआ था। ठाकुर साहब काकोरी काण्ड के क्रान्तिकारियों में आयु में सबस बड़े तथा सबसे अधिक बलवान तथा अचूक निशानेबाज थे । असहयोग आन्दोलन में शाहजहॉंपुर तथा बरेली जिले के ग्रामिण क्षेत्र में उन्होने बड़े उत्साह कार्य किया। उन दिनों बरेली में एक गोली कांड हुआ था जिसमें उन्हें दो वर्ष की बड़ी सजा दी गई । वे उन सच्चे देशभक्तों में थे जिन्होने अपने खून की अन्तिम बूद भी भारत मॉं की भेंट चढ़ा दी । रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाक उल्ला खॉं, राजेन्द्र लाहिड़ी की तरह वे भी बहुत साहसी और सच्चे देशभक्त थे। हिन्दी और उर्दू का अच्छा ज्ञान था । बरेली गोली काडं का सजा के बाद उनकी रामप्रसाद बिस्मिल से भेंट हुई जो उन दिनों बड़ी क्रान्तिकारी योजनाओं का खाका तैयार करने में लगे थे। रोशन सिंह के विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बिस्मिल ने उन्हें भी अपने दल में शामिल कर लिया । क्षत्रिय होनेके कारण उन्हें तलवार, बन्दूक चलाने, कुश्ती और घुड़सवारी का भी शौक था। अचूक निशानेबाज थे। उनके साथी उन्हें भीमसेन कहा करते थे। ठाकुर रोशन सिंह के दो पुत्र चंन्द्रदेव सिंह तथा बृजपाल सिंह हुए। असहयोग आन्दोलन में भी ठाकुर साहब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। काकोरी काण्ड में कुल चार डकैतियों को शामिल किया गया जिनमें अन्य डकैतियों मे ठाकुर रोशन सिंह ने बिस्मिल जी का साथ दिया था। काकोरी ट्रेन डकैती काण्ड के करीब डेढ़ महिनें बाद धरपकड़ शुरु हुई और आपको भी अन्य सहयोगियों के साथ गिरफ्तार करके लखनऊ जेल भेजा गया। जेल में क्रान्तिकारियों के साथ अच्छा व्यवहार न होने कारण आपने जेल में अनशन किया । करीब दो सप्ताह तक अनशन पर रहने के बाद भी आपके स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर नहीं पडा़। अंग्रेज सरकार ने उनकी हवेली को ध्वस्त करवा दिया और सारी स़म्पत्ति कुर्क करा ली थी।

अदालती निर्णय के अनुसार अंग्रेज जज हेमिल्टन ने आपको फॉंसी की सजा दी। अदालती निर्णय सुनते ही ठाकुर जी नें ईश्वर का ध्यान किया और ओम का उच्चारण किया। काकोरी केस के सम्बन्ध में वकीलों और उनके साथियों का ख्याल था कि ठाकुर साहब को ज्यादा सजा नहीं मिलेगी उनके यह विचार जानकर ठाकुर साहब को बहुत ठेस लगती थी वे बुत दुखी हो जाते थे। जब जज ने उन्हें भी फॉंसी की सजा सुनाई तो उनके साथी आश्चर्यचकित और दुखी नेत्रों से ठाकुर साहब की ओर देखने लगे परन्तु ठांकुर साहब चेहरा ठाकुरी चमक से खिल उठा। उन्होंने मुस्कुराते हुए फॉंसी की सजा पाए हुए अपने अन्य साथियों का आलिंगन करते हुए कहा क्यों भाई हमें छाड़कर आप अकेले जाना चाहते थे । उनके सभी साथियों ने उनकी वीरता पर गदगद होकर उनके चरण स्पर्श किए । फॉंसी के लिए उन्हें इलाहाबाद जेल भेज दिया गया था।

ठाकुर साहब स्वतन्त्रता की लडाई को भी धर्म युद्व मानते थे। 13 सितम्बर 1927 को उन्होंने अपने एक मित्र को लिख था कि आप मेरे लिए हरगिज रंज न करे मेरी मौत खुशी का बायस होगी, हमारे शास्त्रों में लिखा है कि धर्म युद्व में मरने वालों की वही गति होती है जो तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की हाती है। फॉंसी के एक सप्ताह पूर्व उन्होंने एक मित्र को पत्र भेजा था इसी से साहस और ईश्वर में विश्वास का अनुपात लगाया जा सकता है। इस सप्ताह के अन्दर ही मेरी फॉंसी होगी । प्रभु से प्रार्थना है कि वह आपके मोहब्बत का बदला दे , आप मुझ ना चीज के लिए हरगिज दुखी न हों मेरी मौत खुशी का वायस होगी।
दुनिया में पैदा होकर इन्सान अपने को बदनाम न करे। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार भी अफसास के लायक नहीं है। दो साल से मैं परिवार से और बच्चो से अलग हू। इस बीच वे सब मुझे कुछ भूल गए होंगे। किसी हद तक भूल जाना भी अच्छा है। तन्हाई में ईश्वर भजन का मौका खूब मिला।इससे मेरा मोह कुछ छूट गया और काई वासना बाकी नहीं रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दूनिया की कष्टमयी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी व्यतीत करने के लिए जा रहा हू। फॉंसी से पहले रात ठाकुर साहब कुछ घण्टे सोए देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रातः निवृत्त होकर गीता का पाठ किया। प्रहरी के आते ही अपनी गीता हाथ में उठाई और फॉंसी की कोठरी को प्रसन्नता के साथ अन्तिम नमस्कार करके फॉंसी के तख्ते की ओर चल दिए। फॉंसी के तख्ते पर वन्दे मातरम् और ओम नाम को गुँजाते हुए भारत का ये नरनाहर अपने नश्वर शरीर को भारत की मिट्टी में मिल गया। आज ठाकुर साहब हमारे बीच नहीं है। परन्तु उनकी अमर आत्मा सजग प्रहरी की भॉंति देश के करोड़ो नवयुवको के दिल में भारत की समृद्वि और सुरक्षा की अलख युगों-युगों तक रहेगी। इलाहाबाद जेल के सामनें हजारों लोग भारत मॉं के इस सपूत की लाश को लेने के लिए खड़े थे। इलाहाबाद में ही भारत माता के इस बहादुर सपूत की अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति के साथ सम्पन्न हुआ ।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

लेकिन तुम नहीं आये---[मिथिलेश]


आज फिर देर रात हो गयी
लेकिन तुम नहीं आये
कल ही तो आपने कहा था
आज जल्दी आ जाऊंगा
जानती हूं मैं
झूठा था वह आश्वासन .......
पता नहीं क्यों
फिर भी एक आस दिखती हैं
हर बार ही
तुम्हारे झूठे आश्वासन में........
हाँ रोज की तरह आज भी
मैं खूद को भूलने की कोशिश कर रही हूँ
यादों के सहारे
रोज की तरह सुबह हो जाए
और तुमको बाय कहते ही देख लूं..........
आज भी वहीं दिवार सामने है मेरे
जिसमे तस्वीर तुम्हारी दिखती है
जो अब धूंधली पड़ रही है
जो आपके वफा का
अंजाम है या शायद
बढ़ती उम्र का एहसास........
वही बिस्तर भी है
जिसपर मैं रोज की तरह
आज भी तन्हा हूँ
अब तो इसे भी लत लग गई है
मेरी तन्हाई की..............
दिवार में लगा पेंट भी
कुरेदने से मिटनें लगा है
मेरे नाखून भी जैसे
खण्डहर से हो गये है
आसुओं की धार से
तकिए का रंग भी हल्का होने लगा है
सजन लेकिन तुम नहीं आये
तुम नहीं आये ।।

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

युवा बनाम भारतीय संस्कृति-------------[शिव शंकर]

एक समय था जब हमारे युवाओं के आदर्श, सिद्धांत, विचार, चिंतन और व्यवहार सब कुछ भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे हुए होते थे। वे स्वयं ही अपने संस्कृति के संरक्षक थे, परंतु आज उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से भ्रमित युवा वर्ग को भारतीय संस्कृति के अनुगमन में पिछडेपन का एहसास होने लगा है। आज अंगरेजी भाषा और अंगरेजी संस्कृति के रंग में रंगने को ही आधुनिकता का पर्याय समझा जाने लगा है। जिस युवा पिढी के उपर देश के भविष्य की जिम्मेदारी है , जिसकी उर्जा से रचनात्मक कार्य सृजन होना चाहिए,उसकी पसंद में नकारात्मक दृष्टिकोण हावी हो चुका है। संगीत हो या सौंदर्य,प्रेरणास्त्रोत की बात हो या राजनीति का क्षेत्र या फिर स्टेटस सिंबल की पहचान सभी क्षेत्रो में युवाओं की पाश्चात्य संस्कृति में ढली नकारात्मक सोच स्पष्ट परिलछित होने लगी है। आज मरानगरों की सडकों पर तेज दौडती कारों का सर्वेक्षण करे तो पता लगेगा कि हर दूसरी कार में तेज धुनों पर जो संगीत बज रहा है वो पॉप संगीत है। युवा वर्ग के लिए ऐसी धुन बजाना दुनिया के साथ चलने की निशानी बन गया है। युवा वर्ग के अनुसार जिंदगी में तेजी लानी हो या कुछ ठीक करना हो तो गो इन स्पीड एवं पॉप संगीत सुनना तेजी लाने में सहायक है।

हमें सांस्कृतिक विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत के स्थान पर युवा पीढी ने पॉप संगीत को स्थापित करने का फैसला कर लिया है। नए गाने तो बन ही रहे है,साथ ही पुराने गानो को भी पॉप मिश्रत नए रंग रूप मे श्रोताओ के समक्ष पेश किये जा रहे है। आज बाजार की यह स्थिति है कि नई फिल्म के गानो का रिमिक्स यानि तेज म्यूजिक डाले गए कैसेट आ जाने के बाद संमान्य कैसेट के बिक्री में बहुत ज्यादा गिरावट आई है। आज सब कुछ पॉप में ढाल कर युवाओं को परोसा जा रहा है और पसंद भी किया जा रहा है। आज विदेशी संगीत चैनल युवाओं की पहली पसंद बनी हुई है। इन संगीत चैनलो के ज्यादा श्रोता 15 से 34 वर्ष के युवा वर्ग है। आज युवा वर्ग इन चैनलो को देखकर अपने आप को मॉडर्न और उचे ख्यालो वाला समझ कर इठला रहा है। इससे ये एहसास हो रहा है कि आज के युवा कितने भ्रमित है अपने संस्कृति को लेकर और उनका झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर ज्यादा है। ये भारतिय संस्कृति के लिए बहुत दुख: की बात है।

आज युवाओ के लिए सौंदर्य का मापदण्ड ही बदल गया है। विश्व में आज सौंदर्य प्रतियोगिता कराये जा रहे है, जिससे सौंदर्य अब व्यवासाय बन गया है। आज लडकिया सुन्दर दिख कर लाभ कमाने की अपेक्षा लिए ऐन -केन प्रकरण कर रही है। जो दया, क्षमा, ममता ,त्याग की मूर्ति कहलाती थी उनकी परिभाषा ही बदल गई है। आज लडकियां ऐसे ऐसे पहनावा पहन रही है जो हमारे यहॉ इसे अनुचित माना जाता है। आज युवा वर्ग अपने को पाश्चात्य संस्कृति मे ढालने मात्र को ही अपना विकाश समझते है।आज युवाओ के आतंरिक मूल्य और सिद्धांत भी बदल गये है। आज उनका उददेश्य मात्र पैसा कमाना है। उनकी नजर में सफलता की एक ही मात्र परिभाषा है और वो है दौलत और शोहरत । चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हो । इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार है। राजनीति का क्षेत्र भी युवाओ में आए मानसिक परिवर्तन से अछुता नहीं है। इतिहास पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि स्वतंत्रता संग्राम पूरी तरह युवाओ के त्याग,. बलिदान ,साहस व जटिलता पर ही आधारित था। अंगरेजो के शोषण, दमन और हिंसा भरी राजनीति से युवाओं ने ही मुक्ति दिलाई थी। भारतीय राजनीति के दमकते सूर्य को जब आपात काल का ग्रहण लगा तब इसी युवा पीढी ने अपना खून पसीना एक कर उनके अत्याचारो को सहते हुए अपने लोकतंत्र की रक्षा की थी। आज जबकि परिस्थितियॉ और चुनौतियॉ और ज्यादा विकट है एभारतीय राजनीति अकंठ भ्रष्टाचार में डूब चुकी है,देश आर्थिक गुलामी की ओर अग्रसर है, ऐसे में भ्रष्टाचार और कुशासन से लोहा लेने के बजाय समझौतावादी दृष्टिकोण युवाओ का सिद्धांत बन गया है। उनके भोग विलाश पूर्ण जीवन में मूत्यों और संघर्षो के लिए कही कोई स्थान नहीं है।

भारतीय संस्कृति में सदा से मेहनत, लगन, सच्चाई का मूल्यांकन किया जाता रहा है,परंतु आज युवाओ का तथाकथित स्टेटस सिंबल बदल चुका है, जिन्हे वो रूपयो के बदले दुकानो से खरीद सकते हे। कुछ खास . खास कंपनियों के कपडे, सौंदर्य. प्रसाधन एवं खाध सामग्री का उपयोग स्तर दर्शाने का साधन बन चुका है। महंगे परिधान ,आभूषण, घडी ,चश्मे, बाइक या कार आदि से लेकर क्लब मेंबरशिप, महॅंगे खेलो की रूचि तक स्टेटस. सिंबल के प्रदर्शन की वस्तुए बन चुकी है। संपन्नता दिखाकर हावी हो जाने का ये प्रचलन युवाओं को सबसे अलग एवं श्रेष्ठ दिखाने की चाहत के प्रतीक लगते हैं। आखिर युवाओं की इस दिग्भ्रांति का कारण क्या है ?

इसका जवाब यही है कि कारण अनेक है। सबसे प्रमुख कारण है ,प्रचार -.प्रसार माध्यम ।युवा पीढी तो मात्र उसका अनुसरण कर रही है। आज भारत में हर प्रचार माध्यम के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता के स्थान पर पश्चिमी मानदंडों के अनुसार प्रतिद्धंद्धी को मिटाने की होड लगी हुई है। सनसनीखेज पत्रकारिता के माध्यम से आज पत्र. पत्रिकाए, ऐसी समाजिक विसंगतियो की घटनाओं की खबरो से भरी होती हैंए जिसको पढकर युवाओ की उत्सुकता उसके बारे में और जानने की बढ जाती है। युवा गलत तरह से प्रसारित हो रहे विज्ञापनों से इतने प्रभावित हो रहे है कि उनका अनुकरण करने में जरा भी संकोच नहीं कर रहें है। अगर भारत सरकार को भरतीय संस्कृति की रक्षा करनी है तो ऐसे प्रसारणो पर सख्ती दिखानी चाहिए ,जो गलत ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं। इन प्रसारणो से समाज में गलत संदेश जाता है। इन्ही पत्र. पत्रिकाए ,विज्ञापनो को गलत ढंग से पेश कर समाज मे युवाओ को भ्रमित किया जाता है। अगर हमारी संस्कृति को प्रभावी बनाना है तो युवाओ को आगे आना होगा । लेकिन आज युवाओ का झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर है ,जो हमारे संस्कृति के लिए गलत है। आज सरकार और देशवासियो को मिलकर संस्कृति के रक्षा के लिए नए कदम उठाने की जरूरत आन पडी है,जिससे संस्कृति को बचाया जा सके।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन ये परिवर्तन हमें पतन के ओर ले जायेगा । युवाओ को ऐसा करने से रोकना चाहिए नहीं जिस संस्कृति के बल पर हम गर्व महसूस करते है, पूरा विश्व आज भारतीय संस्कृति की ओर उन्मूख है लेकिन युवाओं की दीवानगी चिन्ता का विषय बनी हुई है। हमारे परिवर्तन का मतलब सकारात्मक होना चाहिए जो हमे अच्छाई से अच्छाई की ओर ले जाए । युवाओ की कुन्ठीत मानसिकता को जल्द बदलना होगा और अपनी संस्कृति की रक्षा करनी होगी । आज युवा ही अपनी संस्कृति के दुश्मन बने हुए है। अगर भारतीय संस्कृति न रही तो हम अपना अस्तित्व ही खो देगें।संस्कृति के बिना समाज में अनेक विसंगतियॉं फैलने लगेगी ,जिसे रोकना अतिआवश्यक है। युवाओ को अपने संस्कृति का महत्व समझना चाहिये और उसकी रक्षा करनी चाहिए । तभी भारतीय संस्कृति को सुदृढ और प्रभावी बनाया जा सकता है।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

सपना -------------[श्यामल सुमन]

बचपन से ही सपन दिखाया, उन सपनों को रोज सजाया।
पूरे जब न होते सपने, बार-बार मिलकर समझाया।
सपनों के बदले अब दिन में, तारे देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

पढ़-लिखकर जब उम्र हुई तो, अवसर हाथ नहीं आया।
अपनों से दुत्कार मिली और, उनका साथ नहीं पाया।
सपन दिखाया जो बचपन में, आँखें दिखा रहा है।
प्रतिभा को प्रभुता के आगे, झुकना सिखा रहा है।
अवसर छिन जाने पर चेहरा, अपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

ग्रह-गोचर का चक्कर है यह, पंडितजी ने बतलाया।
दान-पुण्य और यज्ञ-हवन का, मर्म सभी को समझाया।
शांत नहीं होना था ग्रह को, हैं अशांत घर वाले अब।
नए फकीरों की तलाश में, सच से विमुख हुए हैं सब।
बेबस होकर घर में मंत्र का, जपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

रोटी जिसको नहीं मयस्सर, क्यों सिखलाते योगासन?
सुंदर चहरे, बड़े बाल का, क्यों दिखलाते विज्ञापन?
नियम तोड़ते, वही सुमन को, क्यों सिखलाते अनुशासन?
सच में झूठ, झूठ में सच का, क्यों करते हैं प्रतिपादन?
जनहित से विपरीत ख़बर का, छपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

सोमवार, 17 जनवरी 2011

क्या यही है प्यार............(सत्यम शिवम)

मधु अधरों का मोहक रसपान,
नीर नैन बेजान,निष्प्राण,
ह्रदय प्राण का उद्वेलीत शव,
मन आँगन में स्नेह प्रेम का कलरव।

इस जहान में रहकर भी,
घुम आता है उस जहाँ के पार,
क्या यही है प्यार?

मुक राहों में स्वयं से अंजान,
बेजान काया को भी अभिमान।
अनछुए,अनोखे बातों से दबा लव,
अरमानों को लगे पँख नव।

सौ कष्टों से पूरित,
उर की व्यथा का इकलौता उद्धार,
क्या यही है प्यार?

निशदिन बस प्यार का गुणगान,
साथी की बातों का बखान।
नई दुनिया से इक नया लगाव,
नैन और अधरों से छलकता भाव।

ह्रदय में ही मिल जाता,
प्रेमियों को इक नया संसार,
क्या यही है प्यार?

शनिवार, 15 जनवरी 2011

प्रभा तुम आओ {गीत} सन्तोष कुमार "प्यासा"



आलोकित हों छिटके ओसकण
तरुवर के
गुंजित हो चहुदिश, सुन राग
सरवर के
नव-प्राण रश्मि लेकर
हे प्रभा! तुम आओ
संचारित हो नव उर्जा
पुलकित हों जन-तन-मन-जीवन
दिक् दर्शाओ रविकर
मिटें निराशा के तिमिर-सघन
मनोरम उपवन सा, धरा में
स्नेह सुरभि महकाओ
नव-प्राण रश्मि लेकर
हे प्रभा! तुम आओ
ज्यों विस्तृत होतीं, द्रढ़ साख संग
कोमल बेलें
त्यों उर में सौहार्द भर
हम दीनो को निज संग लेले
सजीव हो परसेवा की उत्कंठा
जीवन में ज्ञान सुधा बरसाओ
नव-प्राण रश्मि लेकर
हे प्रभा! तुम आओ...

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

रामावतार.............(सत्यम शिवम)

ये है मेरी पहली कविता जो मैने पाँचवी क्लास में लिखा था....सोचा आज आपलोगों के समक्ष रखूँ........



जब राम ने सृष्टि पर जन्म लिया,
अयोध्या नगरी में फूल खिला।
चारों ओर खुशी के डंके बजे,
मयूर मस्त हो नाच उठे।

त्रिदेव दर्शनार्थ लालायित हुएँ,
मोहक छवि की दर्शन के लिएँ।

ज्यों ज्यों कमल का फूल खिला,
त्यों त्यों राम भी खिलने लगे।

कौशल्या थी सच की पुजारी,
भगवान हुए तब धनुर्धारी।

बनवास ही उनका भावी था,
रावण को मारना न्याय ही था।

रावण तो गया स्वर्ग सिधार युद्ध में,
भगवान हुए तब दुख के आधार।

चला गया विद्वान सृष्टि से,
सृष्टि लगता है मुझको खाली,
भगवन के इस वचन को सुन,
सीता हुई आश्चर्य चकित नारी।

रावण तो था दुष्ट अत्याचारी,
कहाँ लगता मुझे सृष्टि खाली।

भगवन धिमी हँसी बिखेरते बोले,
फिर भी लगता सृष्टि खाली।


जीवन राग ----------[सुमन ‘मीत’ ]

जीवन राग की तान मस्तानी


समझे न ये मन अभिमानी



बंधता नित नव बन्धन में


करता क्रंदन फिर मन ही मन में



गिरता संभलता चोट खाता


बावरा मन चलता ही जाता



जिस्म से ये रूह के तार


कर देते जब मन को लाचार



होता तब इच्छाओं का अर्पण


मन पर ज्यूँ यथार्थ का पदार्पण



छंट जाता स्वप्निल कोहरा


दिखता जीवन का स्वरूप दोहरा



स्मरण है आती वो तान मस्तानी


न समझा था जिसे ये मन अभिमानी !!

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

इक जाम फुर्सत में .... {गजल} सन्तोष कुमार "प्यासा"

.
तू परछाई है मेरी, तो कभी मुझे भी दिखाई दिया कर
ऐ जिंदगी ! कभी तो इक जाम फुर्सत में मेरे संग पिया कर

मै भी इन्सान हूँ, मेरे भी दिल में बसता है खुदा
मेरी नहीं तो न सही, कम से कम उसकी तो क़द्र किया कर

इनायत समझ कर तुझको अबतलक जीता रहा हूँ मै
मिटा कर क़ज़ा के फासले, मै तुझमे जियूं तू मुझमे जिया कर

मेरा क्या है ? मै तो दीवाना हूँ इश्क-ऐ-वतन में फनाह हो जाऊंगा
वतन पे मिटने वालों की न जोर आजमाइश लिया कर...........

बुधवार, 12 जनवरी 2011

स्वामी विवेकानंद की कविता{”शान्ति”-} सन्तोष कुमार “प्यासा”

”शान्ति”- स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानन्द द्वारा लिखित अंग्रेजी की मूल कविता
न्यूयार्क में अंग्रेजी में लिखित , १८९९ ई .|
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देखो जो बलात्  आती है , वह शक्ति , शक्ति नहीं है !
वह प्रकाश , प्रकाश नहीं है , जो अँधेरे के भीतर है |
और न वह छाया , छाया ही है ,
जो चकाचौंध करने वाले प्रकाश के साथ है |
आनंद  वह है , जो कभी व्यक्त हुआ ही नहीं ,
और अनभोगा , गहन दुःख है अमर जीवन ,
जो जिया नहीं गया और अनंत मृत्यु ,
जिस पर किसी को शोक नहीं हुआ |
न दुःख है , न सुख ,
सत्य वह है , जो इन्हें मिलाता है |
न रात है न प्रात्  ,
सत्य वह है , जो इन्हें जोड़ता है |
वह संगीत में मधुर विराम ,
पावन छंद के मध्य यति है ,
मुखरता के मध्य मौन ,
वासनाओं के विस्फोट के बीच ह्रदय की शांति है |
सुन्दरता वह है , जो देखी न जा सके |
प्रेम वह है , जो अकेला रहे |
गीत वह है , जो जिये , बिना गाये ,
ज्ञान वह है , जो कभी जाना न जाए |
जो दो प्राणों के बीच मृत्यु है ,
और दो तूफानों के बीच एक स्तब्धता है ,
वह शून्य ,
जहाँ से सृष्टि आती है और जहाँ वह लौट जाती है |
वहीँ अश्रु बिंदु का अवसान होता है ,
प्रसन्न रूप को प्रस्फुटित करने को वही जीवन का चरम लक्ष्य है ,
और शांति ही एकमात्र शरण है |

 न्यूयार्क में अंग्रेजी में लिखित , १८९९ ई .|
हिंदी अनुवाद –”-विवेकानंद साहित्य संचयन”’ …तीसरा संस्करण —२४-३-१९९१ , अध्यक्ष —-स्वामी व्योम रूपानंद , रामकृष्ण  मठ , नागपुर.

युगद्रष्टा "स्वामी विवेकानंद"---------- मिथिलेश

विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती अर्थात १२ जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवादिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1985 ई को अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारतसरकार ने घोषणा की कि सन १९८५ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।

इस सन्दर्भ में भारत सरकार का विचार था कि -ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श--यहीभारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है। इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं; रैलियाँ निकालीजाती हैं; योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है पूजा-पाठ होता है व्याख्यान होते हैं विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनी लगती है। वास्तव में स्वामी विवेकानन्दआधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। विशेषकर भारतीय युवकों के लिए स्वामी विवेकानन्द से बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता। उन्होंने हमें कुछ ऐसी वस्तुदी है जो हममें अपनी उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त परम्परा के प्रति एक प्रकार का अभिमान जगा देती है। स्वामी जी ने जो कुछ भी लिखा है वह हमारे लिए हितकर हैऔर होना ही चाहिए तथा वह आने वाले लम्बे समय तक हमें प्रभावित करता रहेगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने वर्तमान भारत को दृढ़ रूप से प्रभावित कियाहै। भारत की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द से निःसृत होने वाले ज्ञान प्रेरणा एवं तेज के स्रोत से लाभ उठाएगी। विवेकानंदजी का जन्म १२ जनवरी सन्‌ १८६३ को हुआ।उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो नगर में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्वकिया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानंद की वक्तृता के कारण ही पँहुचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जोआज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। रामकृष्ण जी बचपन से ही एक पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष थे। स्वामीजी ने कहा था की जो व्यक्तिपवित्र रुप से जीवन निर्वाह करता है उसके लिए अच्छी एकग्रता हासिल करना सम्भव हैA उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपनेपुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबलथी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहाँ उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ।

सन्‌ १८८४ में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबीमें भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर परसुला देते 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की।सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्वधर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुँचे। योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि सेदेखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक

अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ासमय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए। फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीनवर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्ततृत्व शैली तथा ज्ञान को देखते हुये वहाँ के मीडिया नेउन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका मेंउन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनकेपास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी कीकृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ। स्वामी विवेकानन्दअपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाहकिए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। स्वामी जी ने युवाओं से कहा तुम्‍हारे भविष्‍य को निश्चित करने का यही समय है। इस लिये मै कहता हूँ कि तभी इस भरी जवानी मे, नये जोश के जमाने मे ही काम करों। काम करने का यही समयहै इसलिये अभी अपने भाग्‍य का निर्णय कर लो और काम में जुट जाओं क्‍योकिं जो फूल बिल्‍कुल ताजा है, जो हाथों से मसला भी नही गया और जिसे सूँघा ही नहीं गया वही भगवान के चरणों मे चढ़ाया जाता है उसे ही भगवान ग्रहण करते हैं। इसलिये आओं ! एक महान ध्‍येय कों अपनाएँ और उसके लिये अपना जीवन समर्पित कर दें कैंसर के कारण गले में से थूंक रक्त कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते थे। एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाहीदिखाई तथा घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को गुस्सा आ गया। उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शातेहुए उनके बिस्तर के पास रक्त कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनकेदिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्यआध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा। 4 जुलाई सन्‌ 1902 कोउन्होंने देह त्याग किया।

वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। बालकों, दृढ बनेरहो, मेरी सन्तानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है - सदा उसीका साथ करो। बिना विघ्न - बाधाओं के क्या कभी कोई महान कार्यहो सकता है? समय धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुआ करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता जिससे तुम्हारे हृदय उछल पडते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ इच्छा-शक्ति सम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो। दृढता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदाशुभकामनाओं के साथ तुम्हारा विवेकानन्द........

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

कोहरा--------(मीना मौर्या)

कोहरे से कोहराम मचा
लगा सड़क पर जाम
धुंध का चादर ओढ‌़े
आयी आज की प्रभात ।।

भास्कर को ग्रहण लगा
फैला अंधेरे का जाल
धरती भिगी ओस से
हुआ शीत लहर का बरसात।।

मंद हवा व गिरता पारा
जाड़ा गजब मौसम का मार
सिकुड़े-सिकुड़े दिन बीता
ठिठुर-ठिठुर कर रात।।

स्वेटर साल से ठंडी न जाय
हर ओर जला अब आग
कापते-कापते मुसाफिर जन
चुश्की लेकर पिये चाय ।।

सोमवार, 10 जनवरी 2011

कवि का प्यार...............(सत्यम शिवम)

कवि को हो गया लेखनी से प्यार,
इसी उधेरबुन में वो है लाचार,
अपनी पीडा लेखनी को क्या बताऊँ,
साथी को अपना साथ कैसे समझाऊँ।
मेरी पहचान है तेरे बगैर,
उस दीप का जो बात के बिन क्या अँधेरा दूर करे,
मेरी संगीत है तेरे बगैर,
उस गीत सा जो ताल के बिन क्या मधुर रस शोर करे।

तु राग है,और मै तेरा हमराज हूँ,
कैसे कहुँ मेरी कविता का बस तु ही साज है।

शब्दों को गढ़ कैसे मुझे लुभाती है,
कविता से कवि को कैसे कैसे सपने दिखाती है।

छन छन थिरक नर्तकी सी,
वो नृत्यांगना मेरे दिल पे,
कामदेव के बाण चलाती है।

मै लिखना चाहता हूँ कुछ और,
वो लिख देती है कुछ और ही,

मै कहना चाहता हूँ कुछ और,
वो सुन लेती है कुछ और ही।

कुछ कहना चाहता हूँ मै,
अपनी प्रेम गाथा,
पर लेखनी से कैसे कहूँ दिल की व्यथा।

वो तो बस शर्मा के हँस देती है,
मेरी हर कविता को नया रँग वो देती है।

चाहता हूँ कर दूँ प्यार का इजहार,
बस डरता हूँ क्या होगा इसका प्रतिकार।

यदि लेखनी मुझसे रुठ कर मुँह फेर ले,
कैसे सजाऊँगा फिर विचारों को शेर में।


कवि को हो गया लेखनी से प्यार,
इसी उधेरबुन में वो है लाचार...........

कविवर जितेन्द्र जौहर को मिला ‘सृजन-सम्मान-२०१०’



रॉबर्ट्‍सगंज (सोनभद्र, उप्र, भारत)
२३ दिसम्बर,२०१०
स्थानीय विवेकानन्द प्रेक्षालय में अंग्रेज़ी दैनिक ‘सोनभद्र कॉलिंग’ के विमोचन समारोह एवं हिन्दी दैनिक ‘बहुजन परिवार’ के स्थापना-दिवस के संयुक्त मौक़े पर ‘प्रेरणा’ (त्रैमा) के संपादकीय सलाहकार एवं सुपरिचित कवि श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ को साहित्यिक योगदान के लिए वर्ष-२०१० के द्वितीय ‘सृजन-सम्मान’ से अलंकृत किया गया। श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ को यह सम्मान मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित सोनभद्र के उप ज़िलाधिकारी श्री त्रिलोकी सिंह एवं विशिष्ट अतिथि बेसिक शिक्षाधिकारी श्री राजेश कुमार सिंह के साथ वरिष्ठ साहित्यकार पं. अजय शेखर तथा देश के ख्यातिलब्ध बुज़ुर्ग शाइर व ‘यथार्थ गीता’ के उर्दू मुतर्जिम मुनीर बख़्श आलम साहब के कर-कमलों द्वारा प्रदान किया गया।

ग़ौरतलब है कि कन्नौज (उप्र) में जन्मे श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ ने देश-विदेश की 200-250 पत्र-पत्रिकाओं, वीडियो एलबम, वेब-मैगज़ीन्ज़, ब्लॉग्ज़, न्यूज़-पोर्टल्ज़ पर अपने उत्कृष्ट चिंतनप्रधान मौलिक लेखन तथा समीक्षाओं के साथ ही टेलीविज़न, आकाशवाणी एवं काव्य-मंचों पर ओजस्वी व मर्यादित हास्य-व्यंग्यपरक रचनाओं की प्रस्तुतियों व मंच-संचालन के माध्यम से जनपद सोनभद्र की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करायी है।
अभी हाल ही में देश की लोकप्रिय साहित्यिक-सांस्कृतिक त्रैमासिक पत्रिका ‘सरस्वती सुमन’(देहरादून) ने उन्हें अपने आगामी ‘मुक्तक/रुबाई विशेषांक’ का अतिथि संपादक मनोनीत किया है। वे देश की प्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका ‘अभिनव प्रयास’ (अलीगढ़) के विशिष्ट सहयोगी भी हैं।
पेशे से अंग्रेज़ी विषय के प्रतिभा-सम्पन्न अध्यापक श्री जितेन्द्र जौहर के हिन्दी-प्रेम की सर्वत्र सराहना होती रही है। उन्होंने देश के विभिन्न विद्यालयों-महाविद्यालयों, सामाजिक संस्थाओं, आदि द्वारा आयोजित ‘कम्युनिकेशन एण्ड प्रेज़ेण्टेशन स्किल’, ‘आर्ट ऑफ़ पब्लिक स्पीकिंग’, ‘सेल्फ़ डेवलपमेण्ट’, ‘फॉनेटिक्स ऑफ़ इंग्लिश’ जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर अनेकानेक कार्यशालाओं में रिसोर्स पर्सन के रूप में प्रभावशाली भागीदारी निभाते हुए शैक्षिक योगदान भी दिया है।

समारोह के इस अवसर पर ‘भ्रष्टाचार और पत्रकारिता’ विषय पर आयोजित एक विचार-गोष्ठी में पत्रकार विजय विनीत ने विषय-प्रवर्तन किया। जनपद के वरिष्ठ साहित्यकारों सर्व श्री मुनीर बख़्श आलम, पं. अजय शेखर, विमल जालान, डॉ. अर्जुन दास केसरी, कथाकार रामनाथ शिवेन्द्र एवं महाकाल समाचार के संपादक श्रीवास्तव जी, सहित अनेक वरिष्ठ पत्रकारों तथा साहित्यकारों ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कविवर श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ को बधाई दी। संपादक श्री आशुतोष चौबे ने अपने जोशीले उद्‌बोधन में भ्रष्टाचार के कतिपय पहलुओं पर प्रमाण-सम्मत प्रकाश डाला। उन्होंने समस्त पाठकों व नागरिकों के अपनत्व के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए निष्पक्ष तथा निर्भीक पत्रकारिता के साथ ही उच्च गुणवत्तायुक्त वैचारिक सामग्री के प्रकाशन का आश्वासन दिया। उपस्थित विद्वानों ने श्री अभिषेक चौबे के कुशल संपादन तथा लगन, निष्ठा और समर्पण की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

इस अवसर पर भोजपुरी के वरिष्ठ गीतकार श्री जगदीश पंथी को सम्मानित करने के अतिरिक्त समाचार-पत्र द्वारा आयोजित विभिन्न प्रतियोगिताओं के विजेताओं को मुख्य अतिथि ने ट्रॉफी व प्रमाण-पत्र देकर पुरस्कृत किया ।

हिन्दी दैनिक ‘बहुजन परिवार’ तथा अंग्रेज़ी दैनिक ‘सोनभद्र कॉलिंग’ के संपादक श्री अभिषेक चौबे के निर्देशन में आयोजित इस कार्यक्रम का सफल संयोजन बूरो चीफ़ श्री ब्रजेश कुमार पाठक एवं टीम ने तथा संचालन आशुतोष पाण्डेय ‘मुन्ना’ ने किया।

उक्त मौक़े पर एबीआई कॉलेज की वरिष्ठ हिन्दी अध्यापिका श्रीमती सुशीला चौबे और जेसीज बालभवन की हेड मिस्ट्रेस डॉ. विभा दुबे सहित भारी संख्या में जनपद के पत्रकार, वरिष्ठ साहित्यकार एवं गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।
@समाचार-प्रस्तुति : मुदिता गर्ग

रविवार, 9 जनवरी 2011

साक्षात्कार---------उभरते कवि अंकित जैन से

मीत, क्यो गाता कल का गीत
बना तू कोई अपनी रीत ...
..

ये पक्तियाँ हम नही बल्कि अंकित जैन जो कि एनआईटी, कुरुक्षेत्र मे बी टेक
के छात्र हैं. उन्होने खुद लिखी हैं और ना जाने ऐसी कितनी ढेरो कविताए
लिखी है.उनसे बात करने के बाद और उनकी कविताए सुनने के बाद हमे महसूस हुआ
कि नौजवान बच्चो के लिए अंकित बहुत अच्छा उदाहरण बन सकते हैं क्योकि आज
के समय मे, इन बच्चो खास तौर पर इंजिनियरिंग या दूसरे क्षेत्रो मे पढाई
का इतना प्रेशर है कि वो सिर्फ पढाई के इलावा कुछ और करने का सोच ही नही
सकते जबकि पढाई के साथ साथ दूसरे क्षेत्रो की कलाओ मे भी हिस्सा लेना
उतना ही जरुरी होता है. 18 सितम्बर 1991 को सूरत गढ (राजस्थान) मे जन्मे
अंकित के एक ही बडे भाई दीपक हैं.पापा सरकारी नौकरी मे हैं और मम्मी
चंदा गृहणी हैं. जब अंकित नौवी क्लास मे थें तब पहली बार इन्होने कविता
लिखी.घर पर मम्मी पापा से और दोस्तो से जब प्रोत्साहन मिला तो अंकित ने
यह महसूस किया कि अपनी भावनाए व्यक्त करने का कविता से अच्छा माध्यम कोई
हो ही नही सकता बस उस दिन से जब भी मन मे कोई भाव पैदा हुए इन्होने उसे
कविता मे पिरो दिया.
“दोस्त” को अंकित की सबसे अच्छी बात यह लगी कि जब वो कविता सुनाते हैं
तो सुनाते समय ऐसे भाव झलकते हैं जोकि किसी को भी अपनी और खींच लेते हैं
और शायद यही उनके लेखन की सबसे बडी खासयित भी है.अलग अलग विषयो पर अंकित
ने कविताए लिखी हैं
“नन्ही भिखारिन”,”हम राही”,”मेरा बचपन”,”दो पत्थर”,”तब सोया, अब जागा”
आदि इनकी कुछ खास कविताएं हैं जोकि सुनने वाले को इतना प्रभावित कर देती
हैं कि वो कुछ न कुछ सोचने पर मजबूर हो जाते हैं. बातो बातो मे उन्होने
बताया कि वो “माँ” पर कभी लिख नही पाएगे क्योकि उनके बारे मे इतना कुछ है
कहने को. वो शब्दो मे उन्हे कभी भी बाँध ही नही पाएगे.

अंकित ने “दोस्त” से बातचीत मे बताया कि जब भी उनके मन मे कोई विचार आता
है तो वो बस लिखने बैठ जाते हैं और जितनी भी अभी तक कविताए लिखी है यह
सभी कविताए एक ही बार मे लिखी गई हैं.बात करते करते अचानक वो मंद मंद
मुस्कुराने लगे जब उनसे वजह पूछी तो उन्होने बताया कि एक बार परीक्षा
शुरु होने से पहले एक विचार मन मे बार बार आ रहा था. पेपर शुरु होने मे
बस आधे घंटा ही बचा था पर उन्होने उस विचार को शब्दों का रुप देने मे समय
नही लगाया. उस पर कविता लिखी और फिर परीक्षा भवन भागे.
हैरानी की बात है कि अंकित टीवी नही देखते. हाँ, कभी मौका मिले तो
क्रिकेट मैच देख लेते हैं पर सीरीयल इत्यादि तो बिल्कुल नही पसंद करते.
.खाने मे दाल, बाटी, चूरमा बहुत पसंद है.फेस बुक से अंकित बहुत प्रभावित
है.वो कहते हैं कि एक दूसरे को जानने का पहचानने का बहुत अच्छा मंच है.
अपने प्ररेणा स्रोत्र के बारे पूछने पर उन्होने बताया कि “आचार्य श्री
महाप्रज्ञ” जोकि तेरापंथी जैन आचार्य हैं उनसे बहुत कुछ सीखा है और
उन्होने ही राह दिखाई है.वो उन्ही से ही प्रेरित हैं.
अंकित का मानना है कि कभी भी रुकना नही चाहिए. बस आगे बढते जाना
चाहिए.कोई राह नही मिले तो अपनी राह खुद बनानी चाहिए. अंकित को “दोस्त”
भी बहुत पसंद आया.उन्होने बताया कि आजकल हम एक दूसरे को कभी उत्साहित
नही करते.जिस वजह से जो कुछ करना भी चाहता है उसका हौंसला खत्म हो जाता
है पर दोस्त का ये प्रयास काबिले तारीफ है. आगे बढने के लिए उत्साहित
करने से निसंदेह आत्मबल बहुत ज्यादा बढता है. अब वो आगे भी नया और
अच्छा लिख कर ना सिर्फ “दोस्त” के सम्पर्क मे रहेगें बल्कि और
प्रतिभावान बच्चो को भी यह मंच दिलवाने का प्रयास करेगें.
“दोस्त” के कहने पर जाते जाते अंकित ने अपनी कविता की चंद पंक्तियाँ
सुनाई. निकल जाना चाहिए,लक्ष्य की छानबीन करने मैं भी निकला था यही सोच
कर मन मे लक्ष्य की गाठँ बाँध कर
सबसे लडता- झगडता राही निकल गया अपनी राह पर ,मझधार तक खाई इतनी ठोकर पर
पीछे नही मुडे, आगे बढे क्योकि सूनसान राहे अपनी सी लगे ...
“दोस्त” ने अपनी शुभकामनाएं अंकित को दी और तलाश मे चल दिया किसी और छिपी
प्रतिभा को खोजने. पर जाते जाते अंकित के बारे मे यही विचार आ रहे थे कि
...
परिंदो को मिलेगी मंजिल एक दिन ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं वही लोग
रहते हैं खामोश अकसर जमाने मे जिनके हुनर बोलते हैं ....



प्रस्तुति--
मोनिका गुप्ता
सिरसा
हरियाणा

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

" बातों में गुम ".........ललित कर्मा


दो लड़कियों को देखा

कचरा बीन रही थी,

चार-पांच साल उम्र रही थी,

दोनों की,

वह जा रहा था,

सायकल पर हो सवार,

रोज की तरह,

जब जाता है वह ,

देखता है मकान-दुकान,

गाड़ी-घोड़े, आते-जाते लोग,

सहसा दो ये बालिकाएँ भी दिख पड़ी,

उसने मुझसे पूछा,

तुम्हे कुछ होता है?,

ऐसा देखता है जब,

मैंने कहा - मुझे क्या होगा?

तुझ जैसा मैं भी हूँ,

दो बातें तू कह लेगा,

और उनको चार बना कर,

मैं कह दूंगा,

इन्ही बातों में बच्चियाँ गुम हो जाएगी,

वे बच्चियाँ जो कचरा बीन रही थी|

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मंगलवार, 4 जनवरी 2011

शरद ॠतु कि अगुवाई में.............(सत्यम शिवम)

शरद ॠतु कि अगुवाई में,
पेड़ों के पते सिहर गए,
ठंडक ने ठिठुराया तन को,
अकुलाहट के सारे पल गए।

इक सुहानी सुबह,
हौले हौले बहती हवाएँ,
प्रकृति की मधुरता को देख,
पंक्षियों ने सुरीले गीत गाए।

कँपकपाने लगी ठँडक से तन,
नदियों में जल भी जम गए।


शरद ॠतु कि अगुवाई में,
पेड़ों के पते सिहर गए,

मौसम ये बड़ा निराला है,
अब आसमान भी काला है,
झम झम बारिश होने वाली,
शरद ॠतु का ये पाला है।

सब घर में है छिप गए,
जैसे वक्त सारे थम गए।

शरद ॠतु कि अगुवाई में,
पेड़ों के पते सिहर गए,

स्वेटर पहनो,ओढ़ो कम्बल,
घर में अलाव भी गया है जल,
रहना इस मौसम में जरा सम्भल,
ऊनी कपड़े है बस ठंडक का हल।

जल की इक बूँद पड़ी जो तन पर,
हम न जाने क्यों सहम गए। 

शरद ॠतु कि अगुवाई में,
पेड़ों के पते सिहर गए,

ठंडक ने ठिठुराया तन को,
अकुलाहट के सारे पल गए।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

नारी उत्थान में निहित भारत विकास-------------मिथिलेश

नारी के महान बलिदान योगदान के कारण ही भारत प्राचीन में समपन्न और विकसित था . प्राचीन काल में नर-नारी के मध्य कोई भेद नहीं था और नारियां पुरुषों के समकक्ष चला करती थी फिर चाहे वह पारिवारिक क्षेत्र हो या धर्म , ज्ञान विज्ञानं या कोई अन्य , सर्वांगीण विकास और उत्थान में नारी का योगदान बराबर था . नारी न सिर्फ सर्वांगीण विकास में सहायक थी पुरुष को दिशा और बल भी प्रदान करती थी . भारत के विकास में नारी योगदान अविस्मरणीय है. शायद इनके योगदान बिना भारत के विकास का आधार ही न खड़ा हो पता . इतिहास में भी नारी का लम्बा हस्तकक्षेप रहा . प्राचीन भारत को जो सम्मान मिला उसके पीछे नारियों का सहयोग व सहकार कि भावना सन्निहित रही है .वर्तमान समय में भले ही नारी शिक्षा का अवमूल्यन हो रहा हो , अन्धानुकरण के उफान पर भले ही उसकी शालीनता , मातृत्वता को मलीन और धूमिल किया गया हो परन्तु प्राचीन भारत में ऐसा नहीं था . तब चाहे कोई क्षेत्र हो , ज्ञान का हो या समाज का हो, नारी को समान अधिकार प्राप्त थे . नर-नारी को समान मानकर समान ऋषिपद प्राप्त था .

वैदिक ऋचाओं की द्रष्टा के रूप में सरमा , अपाला, शची , लोवामुद्रा , गोधा ,विस्वारा आदि ऋषिकाओं का आदरपूर्वक स्थान था .यही नहीं सर्वोच्य सप्तऋषि तक अरुंधती का नाम आता है. नर और नारी में भेद करना पाप समझा जाता है . इसी कारण हमारे प्राचीन इतिहास में इसे अभेद मन जाता रहा है.ब्रह्मा को लिंग भेद से परे और पार मन जाता है . ब्रह्मा के अव्यक्त एवं अनभिव्यक्त स्वरुप को सामन्य बुद्धि के लोग समझ सके इसीलिए ब्रह्मा ने स्वयं को व्यक्त्त किया तो वे नर और नारी दोनों के रूप में प्रकट हुए . नर के रूप को जहाँ परमपुरुष कहा गया वाही नारी को आदिशक्ति परम चेतना कहा गया . नर और नारी में कोई भेद नहीं हैं . केवल सतही भिन्नता है और यही भ्रम नारी और पुरुष के बिच भेद कि दीवार खड़ी करती है. शास्त्रों में ब्रह्मा के तीनों रुपों को जहां ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा गया तो वहीं नारियों को आदिशक्ति, महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली कहा गया । देवासुर संग्राम में जब देवताओं को पराजय का मुँह देखना पड़ा था तब देवीशक्ती के रुप में देवताओं की मदद करना तथा राक्षसों को पराजित करना अध्यात्म-क्षेत्र में नारी को हेय समझने वाली मान्यता को निरस्त करती है ।

नारी शक्ति के बिना भगवान शिव को शव के समान माना जाता है । पार्वती के बिना शंकर अधुरे हैं । इसी तरह विष्णु के साथ लक्ष्मी, राम के साथ सीता को हटा दिया तो वह अधूरा सा लगता है । रामायण से अगर सीता जी को हटा दिया तो वह अधूरा सा लगता है । द्रोपदी, कुंती गांधारी का चरित्र ही महाभारत को कालजयी बनाता है अन्यथा पांडवो का समस्त जीवन बौना सा लगता । नारी कमजोर नहीं है, अबला नहीं है, वह शक्ति पर्याय है । देवासुर संग्राम में शुंभ निशुंभ, चंड-मुंड, रक्तबीज, महिषासुर आदि आसुरी प्रोडक्ट को कुचलने हेतु मातृशक्ति दुर्गा ही समर्थ हुई । इसी तरह अरि ऋषि की पत्नी अनुसूइया ने सूखे-शुष्क विंध्याचल को हरियाली से भर देनें के लिए तपश्चर्या की और चित्रकूट से मंदाकिनी नदी को बहने हेतु विवश किया । यह घटना भागीरथ द्वारा गंगावतरण की प्रक्रिया से कम नहीं मानी जा सकती ।
साहस और पराक्रम के क्षेत्र में भी नारी बढ‌ी-च‌ढी़ । माता सीता उस शिवधनुष को बड़ी सहजता से उठा लेती जिसे बड़े-बड़े योद्धा नहीं उठा पाते थे । इनके अलावा नारियां वर्तमान समय में भी विभिन्न क्षेत्रों, जैसे-- प्रशासनिक क्षत्र में किरण वेदी , खेल में सानिया नेहवाल, सानिया मिर्जा, झूल्लन गोस्वामी, राजनीति में सोनिया गांधी, प्रतिभा देवी सिंह पाटील, मीरा कुमार, विज्ञान के क्षेत्र में कल्पना चावला, सुनिता विलियम्स, आदि सभी अपने क्षेत्रों में अग्रणी रही हैं और भारत स्वाभीमान को बढ़ाया है ।
इस तरह ऐसे बहुत से प्रमाण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि भारत के विकास के लिए आदर्शवादी नारियों ने अपनी क्षमता योग्यता का योगदान दिया । समाज में नारी के विकास के लिए समुचित व्यवस्थाएं की जाए । नारी के
विकास से ही भारत अपनी प्रतिष्ठा, सम्मान, गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है ।