कवि को हो गया लेखनी से प्यार,
इसी उधेरबुन में वो है लाचार,
अपनी पीडा लेखनी को क्या बताऊँ,
साथी को अपना साथ कैसे समझाऊँ।
उस दीप का जो बात के बिन क्या अँधेरा दूर करे,
मेरी संगीत है तेरे बगैर,
उस गीत सा जो ताल के बिन क्या मधुर रस शोर करे।
तु राग है,और मै तेरा हमराज हूँ,
कैसे कहुँ मेरी कविता का बस तु ही साज है।
शब्दों को गढ़ कैसे मुझे लुभाती है,
कविता से कवि को कैसे कैसे सपने दिखाती है।
छन छन थिरक नर्तकी सी,
वो नृत्यांगना मेरे दिल पे,
कामदेव के बाण चलाती है।
मै लिखना चाहता हूँ कुछ और,
वो लिख देती है कुछ और ही,
मै कहना चाहता हूँ कुछ और,
वो सुन लेती है कुछ और ही।
कुछ कहना चाहता हूँ मै,
अपनी प्रेम गाथा,
पर लेखनी से कैसे कहूँ दिल की व्यथा।
वो तो बस शर्मा के हँस देती है,
मेरी हर कविता को नया रँग वो देती है।
चाहता हूँ कर दूँ प्यार का इजहार,
बस डरता हूँ क्या होगा इसका प्रतिकार।
यदि लेखनी मुझसे रुठ कर मुँह फेर ले,
कैसे सजाऊँगा फिर विचारों को शेर में।
कवि को हो गया लेखनी से प्यार,
इसी उधेरबुन में वो है लाचार...........
8 comments:
कवि को तो लेखनी से ही प्यार होना है।
lajawab ..........sirph ek shabd iss kavita k liye ........
bhavpoorn prastuti.badhai...
apki kavita mai prem ki abhivayekti hai jisne kavita ke manohari chunar ko oad liya hai,ye shabd uske saundary prasadhan hai,shabdo ke utkarsht samanjasye se hi to sundar rachna ka hirday-vistaar hota hai.
निसंदेह ।
यह एक प्रसंशनीय प्रस्तुति है ।
धन्यवाद ।
satguru-satykikhoj.blogspot.com
ap ki kavita ne to thand ko bdadiya
maph kijiyega sivam ji kavi ki prem ktha se phle maine kuch mina ji ki kavita ko pda jisse ye glti ho gyi
Thanks all of u to appreciate my poetry..
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