जीवन राग की तान मस्तानी
समझे न ये मन अभिमानी
बंधता नित नव बन्धन में
करता क्रंदन फिर मन ही मन में
गिरता संभलता चोट खाता
बावरा मन चलता ही जाता
जिस्म से ये रूह के तार
कर देते जब मन को लाचार
होता तब इच्छाओं का अर्पण
मन पर ज्यूँ यथार्थ का पदार्पण
छंट जाता स्वप्निल कोहरा
दिखता जीवन का स्वरूप दोहरा
स्मरण है आती वो तान मस्तानी
न समझा था जिसे ये मन अभिमानी !!
4 comments:
बंधता नित नव बन्धन में
सुंदर प्रस्तुति .
jivan ke marm ko darshati kavita...
जीवन राग की तान मस्तानी
समझे न ये मन अभिमानी
जी हाँ बिलकुल ठीक लिखा है .
शुभकामनाएं
सुमन जी बहुत अच्छा लिखा आपने..... आपको बहुत पढ़ा है....हर रचना में अलग अंदाज़.... बहुत खूब........
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