आज फिर देर रात हो गयी
लेकिन तुम नहीं आये
कल ही तो आपने कहा था
आज जल्दी आ जाऊंगा
जानती हूं मैं
झूठा था वह आश्वासन .......
पता नहीं क्यों
फिर भी एक आस दिखती हैं
हर बार ही
तुम्हारे झूठे आश्वासन में........
हाँ रोज की तरह आज भी
मैं खूद को भूलने की कोशिश कर रही हूँ
यादों के सहारे
रोज की तरह सुबह हो जाए
और तुमको बाय कहते ही देख लूं..........
आज भी वहीं दिवार सामने है मेरे
जिसमे तस्वीर तुम्हारी दिखती है
जो अब धूंधली पड़ रही है
जो आपके वफा का
अंजाम है या शायद
बढ़ती उम्र का एहसास........
वही बिस्तर भी है
जिसपर मैं रोज की तरह
आज भी तन्हा हूँ
अब तो इसे भी लत लग गई है
मेरी तन्हाई की..............
दिवार में लगा पेंट भी
कुरेदने से मिटनें लगा है
मेरे नाखून भी जैसे
खण्डहर से हो गये है
आसुओं की धार से
तकिए का रंग भी हल्का होने लगा है
सजन लेकिन तुम नहीं आये
तुम नहीं आये ।।
6 comments:
बेहतरीन
ये मिथिलेश की एक सुन्दर रचना है पहले भी पढी थी…………सुन्दर भाव्।
गहन अनुभूति से परिपूर्ण एक मर्मस्पर्शी रचना..बहुत सुन्दर.
पुनर्पठन से आनंदित हुआ !
बहुत ही सुंदर भाई........बहुत खूब
Superb blog post, I have book marked this internet site so ideally I’ll see much more on this subject in the foreseeable future!
एक टिप्पणी भेजें