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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मन संगीत

सुर,लय, ताल,छंदमय है मन संगीत



बहते रहते हर पल, प्रेम विरह के गीत


जैसे चाँद चकोर की प्रेम कहानी


वैसे ही है मन-विचार मन मीत



आशा निराशा के सुरों से पुलकित होता ह्रदय



मिलन-विरह की निरंतर चलती रहती रीत



सुख दुःख तो है मन संगीत के उतार चढाव



सौहार्द के पुष्प खिल जाए, जब हो मन से मन को प्रीत




सुखद,दुखद, सहज, कठिन मन संगीत



उम्मीदों अरमानो की धुन में, जाए जीवन बीत


मन से मन संगीत के मर्म को समझों


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

प्रगति या पतन ???

मानते हैं हर राह में तुमने सफलता पाई


आसानी से निपटलिया प्रगति पथ पर जो भी मुश्किल आई

नित नव विषय पर तुमने आविष्कार किया

जड़ ज्ञान का तुमने खूब प्रचार किया

मानते है चद्रमा पर भी तुम विजय पताका फहरा आए

मृत्युके मुख से भी जीवन को छीन लाए

निज विवेक से आकाश में भी गमन किया

मानते हैं तीनो लोक का तुमने भ्रमण किया

मानते है तुमने कई मुश्किलों को आसान बनाया है

स्रष्टिके कई रहस्यों से तुमने परदा उठाया है

पर शायद भूल गए विज्ञानं कितना व्याल है

इसका वास्तविक रूप कितना विकराल है

क्या इतना करके भी तुम्हे मिली है शान्ति

सच बताओ क्या तुमने पाई है विश्रांति

भूल रहे हो ख़ुद को होकर विज्ञानं में अविरल अलमस्त

स्वयं को भी समय नही दे पा रहे हो हो गए हो इतना व्यस्त

जरा सोंचो और बताओ की यह प्रगति है या पतन ?

क्या सिर्फ़ इसी लिए है यह जीवन ?

भूल गए हो ऋषि मुनियों के पवित्र वचन

क्या करते हो कभी यम् नियम आशन और ब्रह्मचर्य का पालन ?

क्या इतना कर के भी मिति है तुम्हारी आरजू क्या बुझी है तुम्हारी "प्यास" ?

सभ्यता संस्कृति साहित्य आराधना भी है कुछ

क्या तुम्हे इस बात का है अहसास ????

जरा सोंचो और बताओ की यह प्रगति है या पतन

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

मै कवी हूँ

मै कवी हूँ मुझे भावनाओं के संग बहना पड़ता है



जो चाहते है सब सुनना, समाज में हो रहा है जो वही मुझे

कहना पड़ता है !

मै कवी हूँ मुझे भावनाओं के संग बहना पड़ता है

गरीब तुम हो तो गरीब मै नही हूँ, दुखी तुम हो तो दुखी मै भी हूँ

प्रकृति का यह नियम मुझे भी सहना पड़ता है !


मै कवी हूँ मुझे भावनाओं के संग बहना पड़ता है

पता है मुझे की समाज में फैली है बुराई, हर जगह खून खराबा


और कुछ नहीं तो घरेलू लड़ाई

पर क्या करूँ मजबूरन यहाँ रहना पड़ता है !


मै कवी हूँ मुझे भावनाओं के संग बहना पड़ता है !


आदमी के लहू का "प्यासा" है आदमी, इस कदर जुल्मो सितम

से ऊब गई है जमीं

बस यही सोंच कर बढ जाती है हिम्मत, पाप का महल चाहे

लाख बना हो मजबूत

एक न एक दिन उसे ढहना पड़ता है !

मै कवी हूँ मुझे भावनाओं के संग बहना पड़ता है !

लव इज ब्लाइंड

 जब भी मै प्यार के बारे में कुछ बुरा सुनता हूँ तो मुझे मानशिक कष्ट होता है !

वर्तमान समय में प्यार के बारे में तरह तरह की कहावते हिंदी और अंग्रेजी में उपलब्ध हैं जो प्यार को आरोपित कर रहे है ! एवं आज का युवा वर्ग भी प्यार की वाश्त्विकता को न समझने के कारण भ्रम में है ! अत: मैंने प्यार की वाश्त्विकता एवं महानता को सबके सन्मुख लाने हेतु एक पुस्तक लिखने का विचार किया है , इसी विचार की परिपूर्ति हेतु एक छोटा सा लेख आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ कृपया मेरा मार्गदर्शन करे, एवं मेरी त्रुटियों का अहसास मुझे बेझिझक कराएँ !
लोग बड़ी सरलता se प्यार को अँधा कहते है, यदि उनसे प्यार को अँधा कहने का कारन पूंछा जाए तो कहते है की प्यार जाति पाति ऊँच नीच इत्यादि को नहीं देखता अत: प्यार अँधा है ! अब मै इन महाज्ञानियों से पूंछना चाहता हूँ की जाति पाति ऊँच नीच जैसी तुच्छ संकीर्ण मानसिकता को तो बड़े बड़े दार्शनिको, महात्माओं, ऋषि, मुनियों ने भी कोई महत्व नहीं दिया तो क्या ये लोग भी अंधे और मुर्ख है ! प्यार पाक अहसास है जो सिर्फ अच्छे गुणों और विचारों को महत्व देता है , प्यार तो दिलो की सच्चाई को देखता है इसिलए मै कहता हूँ की - ऋषि मुनियों की भांति स्वच्छ सुन्दर और पवित्र होता है प्यार/ जाति पाति ऊँच नीच न देखे, देखे तो केवल सत्यता सद्गुण और उच्च विचार ! ath pyar ko andha kahna sarwatha anuchit hai ! pyar ek alaukik anubhuti evm shrati ka mool hai ! pyar mahan , pavitra tha hai aur rahega

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

झूठ

झूठ हमारा नहीं हमारे पूर्वजो का संस्कार है



जनता, नेता, अभिनेता सबको यह स्वीकार है !


झूठ बोले बिना आजकल गाडी नहीं चलती है


झूठ बोलने से कभी-कभी सफलता भी मिलती है !


जो जितना ज्यादा झूठ बोलता है वो उतना ज्यादा पाता है


इतिहास उठा कर देख लो सच बोलने वाला पत्थर ही खaता है !


अजीब विडंबना है ये, की आजकल सच्चे का मुह काला है

सबको पता की झूठे का बोल बाला है !


झूठ तो कुछ है ही नहीं, जहां तक मुझको ज्ञान है


ये मै नहीं कहता कहते वेद पुराण है !


"सर्व खल्विदं ब्रह्म" छान्दोग्योप्निशत का यह मन्त्र है एक


सच और झूठ की लड़ाई अब मुझसे नहीं जाती देख !


जो होता है वो होने दो मेरा यह विचार है


झूठ हमारा नहीं पूर्वजों का संस्कार है !

मनुष्य प्रकृति और समय

हर क्षण हर पल इस स्रष्टि में कुछ न कुछ होता रहता है ! "समय" इक पल भी नहीं ठहरता ! समय का चक्र निरंतर घूमता रहता है ! जब मै इस लेख को लिख रहा हूँ, मुझे मै और मेरे विचार ही दिख रहे है ! ऐसा प्रतीत होता है, जैसे की कुछ हो ही नहीं रहा ! हवा शांत है ! सरसों के पीले खेत इस भांति सीधे खड़े है, जैसे किसी ने उन्हें ऐसा करने का आदेश दिया हो ! चिड़ियों की चहचहाहट, प्रात: कालीन समय और ओस की बूंदे, बहुत भली लग रहीं हैं ! सूर्य खुद को बादलों के बीच इस भांति छुपा रहा है, जैसे कोई लज्जावान स्त्री पर पुरुष को देख कर अपना मुंह आँचल में छुपा लेती है ! कोहरे को देख कर, बादलों के प्रथ्वी पर उतर आने का भ्रम हो रहा है ! दिग दिगंत तक शांति और सन्नाटा फैला हुआ है ! एक ऐसा दुर्लभ अनुभव हो रहा है, की अब मेरे विचार और मेरी कलम के सिवा कुछ है ही नहीं ! मानो समय थम सा गया हो! लगता है समय ने अपना नियम तोड़ दिया है ! किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है ! अभी भी स्रष्टि में कहीं न कहीं कुछ न कुछ हो रहा है ! समय अपने नियम पर अटल है ! इस समय जब आप मेरे लेख को पढ़ रहें हैं, उसी क्षण इस प्रथ्वी पर कहीं न कहीं कुछ न कुछ हो रहा है ! किसी के यहाँ खुशियाँ तो किसी के घर पर किसी के म्रत्यु का शोक मनाया जा रहा है ! कोई बीमारी से पीड़ित है, तो किसी को रोग से मुक्ति मिली है ! समय अपना कार्य कर रहा है ! प्रकृति का यह नियम अटूट है ! मनुष्य और प्रकृति का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है ! "मनुष्य की उत्त्पति प्रकृति की सहायता के लिए तथा प्रकृति का निर्माण मनुष्य की सहायता के लिए हुआ है" ! मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं ! कहा जाता है की मनुष्य अपने लाभ के लिए कुछ भी कर सकता है, हुआ भी वही ! अपने लाभ हेतु मनुष्य प्रकृति के प्रति अपना कर्तब्य भूल गया ! उसने पेड़ काटने शुरू कर दिए ! मनुष्य ने बड़े बड़े वनों को काट डाला ! उसने पर्वतों को भी नहीं छोड़ा ! कई पहाड़ों को बेध डाला ! मनुष्य ने प्रकृति के साथ विशवास घात किया ! जिससे प्रकृति को बहुत कष्ट हुआ ! वनों में रहने वाले जीव जंतु इधर उधर भटकने लगे, उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया ! कई दुर्लभ जीव जंतु और वनस्पतियों का अस्तित्व ही मिट गया ! इससे प्रक्रति बहुत क्रोधित हो गई ! उसने भी मनुष्य के प्रति अपने कर्तब्य को भुला दिया ! पर्यावरण असंतुलित हो रहा है ! वर्षा का कोई ठिकाना नहीं ! कभी सूखा तो कभी बाढ़, तो कभी लहलहाते फसलों पर ओलों का आक्रमण पता नहीं क्या होने वाला है ! पर्वतों के क्षरण से प्रथ्वी असंतुलित हो गई ! फलस्वरूप भूकंप आने लगे ! वनों के कटने से हवा मानसून को एक जगह टिकने नहीं देती ! ठंडी गर्मी और बरसात का कोई नियम ही नहीं रहा ! गर्मी बढ़ रही है, ओजोन परत का छिद्र दिन ब दिन बढ़ रहा है ! प्रदुषण से वातावरण ग्रसित हो गई है !

हवा विषैली हो गई है ! पानी भी पीने योग्य नहीं रहा ! मृदा में भी मनुष्य ने ज़हर घोल दिया है ! प्रतीत होता है की "क़यामत" की शाम नजदीक है !
लेकिन मनुष्य अभी भी नहीं चेता, उसके लोभ ने उसे अँधा कर रखा है ! वनों की कटाई अभी भी जारी है ! बड़े-बड़े कारखानों से निकलने वाला धुंवा लगातार हवा को विषैला बना रहा है ! कारखानों का केमिकल मिला पानी नदियों के जल को जहरीला बना रहा है ! आखिर क्या होगा ! तरह तरह के राशायानिक खादों का प्रयोग करके मृदा को दूषित किया जा रहा है, जिससे मिटटी की उर्वरा शक्ति दिन ब दिन कम होती जा रही है, जो की फसलों के उत्पादन में कमी का कारण है ! फलस्वरूप महंगाई बढ़ रही है, जिसके परिणाम स्वरूप भ्रस्टाचार और मानवीय हिंसा बढ़ रही है !
एक समय था जब हर तरफ हरियाली ही हरियाली और शुद्ध हवा थी, नदियों का पीने योग्य था, और आज बिलकुल विपरीत है ! "मनुष्य" "प्रकृति" और "समय" ! मनुष्य और प्रकृति के इस लड़ाई का साक्षी "समय" है ! समय अपना कार्य कर रहा है ! इस लड़ाई से "समय" का तो कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, किन्तु "मनुष्य" और "प्रक्रति" का पति नहीं क्या होगा ! "समय" ने ऐसी कई घटनाओं को देखा और इतिहास के पन्नो में दफ्न किया है ! "समय" अपना कार्य कर रहा है ! "समय" का चक्र चल रहा है, और सदा चलता रहेगा !

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मन आंधी

मन में चलती है आंधी या मन ही है आंधी
नव प्रकार के नव विचार
कल्पनाओं के इश्वर ने , रच दिया नव संसार
ह्रदय व्याकुल है , उठी वेदना
फिर उमड़ी मन की आंधी
कभी तीव्र कभी मंद गति से करती,
मन को बेकल मन की आंधी
मन में चलती है आंधी या मन ही है आंधी
हवा के रुख को मोड़ा किसने?
कुछ अच्छे कुछ मलिन विचारों को
लेकर उड़ चली मन की आंधी

मन नौका

मन नौका विचरती है विचारों के सागर पर












आश निराश के मौजों में डगमगाती इधर उधर









कहीं गहरा तो कहीं उथला है सागर









सुख दुःख के दो पतवारों से पार करनी है तूफानी डगर









उम्मीदों के टापू मिलते









व्याकुलता तज , कुछ क्षण को जाते ठहर









अरमानो का पंक्षी उड़ जाता है









बेबस होकर पुन: वापस आए लौट कर



मन नौका विचरती है विचारों के सागर पर

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

गर्मी

जालिम है लू जानलेवा है ये गर्मी



काबिले तारीफ़ है विद्दुत विभाग की बेशर्मी



तड़प रहे है पशु पक्षी, तृष्णा से निकल रही जान



सूख रहे जल श्रोत, फिर भी हम है, निस्फिक्र अनजान




न लगती गर्मी, न सूखते जल श्रोत, मिलती वायु स्वक्ष



गर न काटे होते हमने वृक्ष



लुटी हजारों खुशियाँ, राख हुए कई खलिहान


डराता रहता सबको, मौसम विभाग का अनुमान


अपना है क्या, बैठ कर एसी, कूलर,पंखे के नीचे गप्पे लड़ाते हैं



सोंचों क्या हाल होगा उनका, जो खेतों खलिहानों में दिन बिताते है



अब मत कहना लगती है गर्मी, कुछ तो करो लाज दिखाओ शर्मी


जाकर पूंछो किसी किसान से क्या है गर्मी

रविवार, 25 अप्रैल 2010

बहुत दिन हुए -- (कविता)..... कुमार विश्वबंधु

बहुत दिन हुए
कोई चिट्ठी नहीं आई
कोई मित्र नहीं आया दरवाजे पता पूछते
चिल्लाते नाम

बहुत दिन हुए
दाखिल नहीं हुई कोई नन्ही सी चिड़िया
तिनका-तिनका जोड़ा नहीं घर

खिड़कियों से होकर किसी सुबह
किसी शाम
उतरा नहीं आकाश
बहुत दिन हुए भूल गया
जाने क्या था उस लड़की का नाम !

बहुत दिन हुए
करता रहा चाकरी
गँवाता रहा उम्र
कमाता रहा रुपए

बहुत दिन हुए 
छोड़ दिया लड़ना

बहुत दिन हुए
भूल गया जीना।

आठवीं रचना ( डा श्याम गुप्त )

कमलेश जी की यह आठवीं रचना थी | अब तक वे दो महाकाव्य, दो खंड काव्य व तीन काव्य संग्रह लिख चुके थे | जैसे तैसे स्वयं खर्च करके छपवा भी चुके थे | पर अब तक किसी लाभ से बंचित ही थे | आर्थिक लाभ की अधिक चाह भी नहीं रही| जहां भी जाते प्रकाशक, बुक सेलर ,वेंडर, पुस्तक भवन, स्कूल, कालिज, लाइब्रेरी एक ही उत्तर मिलता , आजकल कविता कौन पढ़ता है ; वैठे ठाले लोगों का शगल रह गया है, या फिर बुद्धि बादियों का बुद्धि-विलास | न कोई बेचने को तैयार है न खरीदने को | हां नाते रिश्तेदार , मित्रगण मुफ्त में लेने को अवश्य लालायित रहते हें , और फिर घर में इधर-उधर पड़ी रहतीं हैं |

काव्य गोष्ठियों में उन्हें सराहा जाता; तब उन्हें लगता कि वे भी कवि हैं तथा कालिदास, तुलसी, निराला के क्रम की कड़ी तो हैं ही | पर यश भी अभी कहाँ मिल पाया था | बस एक दैनिक अखवार ने समीक्षा छापी थी -आधी अधूरी | एक समीक्षा दो पन्ने वाले नवोदित अखवार ने स्थान भरने को छापदी थी | कुछ काव्य संग्रहों में सहयोग राशि के विकल्प पर कवितायें प्रकाशित हुईं | पुस्तकों के लोकार्पण भी कराये; आगुन्तुकों के चाय-पान में व कवियों के पत्र-पुष्प समर्पण व आने-जाने के खर्च में जेब ढीली ही हुई | अधिकतर रचनाएँ रिश्तेदारों , मित्रों व कवियों में ही वितरित हो गईं | कुछ विभिन्न हिन्दी संस्थानों को भेज दी गईं जिनका कोई प्रत्युत्तर आजतक नहीं मिला | जबकि हुडदंग -हुल्लड़ वाली कवितायेँ, नेताओं पर कटाक्ष वाली फूहड़ हास्य-कविताओं वाले मंचीय कवि मंच पर, दूरदर्शन पर, केबुल आदि पर अपना सिक्का जमाने के अतिरिक्त आर्थिक लाभ से भी भरे-पूरे रहते हैं |

किसी कवि मित्र के साथ वे प्रोत्साहन की आशा में नगर के हिन्दी संस्थान भी गए | अध्यक्ष जी बड़ी विनम्रता से मिले , बोले, पुस्तकें तो आजकल सभी छपा लेते हैं, पर पढ़ता व खरीदता कौन है? संस्थान की लिखी पुस्तकें भी कहाँ बिकतीं हैं | हिन्दी के साथ यही तो होरहा है, कवि अधिक हैं पाठक कम | स्कूलों में पुस्तकों व विषयों के बोझ से कवितायें पढ़ाने-पढ़ने का समय किसे है | कालिज के छात्र अंग्रेज़ी व चटपटे नाविलों के दीवाने हैं , तो बच्चे हेरी-पौटर जैसी अयथार्थ कहानियों के | युवा व प्रौढ़ वर्ग कमाने की आपाधापी में शेयर व स्टाक मार्केट के चक्कर में , इकोनोमिक टाइम्स, अंग्रेज़ी अखवार, इलेक्ट्रोनिक मीडिया के फेर में पड़े हैं | थोड़े बहुत हिन्दी पढ़ने वाले हैं वे चटपटी कहानियां व टाइम पास कथाओं को पढ़कर फेंक देने में लगे हैं | काव्य, कविता ,साहित्य आदि पढ़ने का समय व समझने की ललक है ही कहाँ |

पुस्तक का शीर्षक पढ़कर अध्यक्ष जी व्यंग्य मुद्रा में बोले, " काव्य रस रंग " -शीर्षक अच्छा है पर शीर्षक देखकर इसे खोलेगा ही कौन | अरे ! आजकल तो दमदार शीर्षक चलते हैं , जैसे- 'शादी मेरे बाप की', ईश्वर कहीं नहीं है' , नेताजी की गप्पें ' , राज-दरवारी आदि चौंकाने वाले शीर्षक हों तो इंटेरेस्ट उत्पन्न हो |
वे अपना सा मुंह लेकर लौट आये | तबसे वे यद्यपि लगातार लिख रहे हैं , पर स्वांत -सुखाय; किसी अन्य से छपवाने या प्रकाशन के फेर में न पड़ने का निर्णय ले चुके हैं | वे स्वयं की एक संस्था खोलेंगे | सहयोग से पत्रिका भी निकालेंगे एवं अपनी पुस्तकें भी प्रकाशित करायेंगे|

पर वे सोचते हैं कि वे सक्षम हैं, कोई जिम्मेदारी नहीं, आर्थिक लाभ की भी मजबूरी नहीं है | पर जो नवोदित युवा लोग हैं व अन्य साहित्यकार हैं जो साहित्य व हिन्दी को ही लक्ष्य बनाकर ,इसकी सेवा में ही जीवन अर्पण करना चाहते हैं उनका क्या? और कैसे चलेगा ! और स्वयं साहित्य का क्या ?

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

गजल ......(परिचय )....कवि दीपक शर्मा



दीपक शर्मा जी का जन्म २२ अप्रैल १९७० में चंदौसी जिला मुरादाबाद ( उ.प) में हुआ . दीपक जी ने वस्तु प्रबंधन में परा स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है . दीपक जी कारपोरेट जगत में एक प्रबंधक के पद पर आसीन हैं .

दीपक जी की रचनाएँ नज़्म , गीत , ग़ज़ल एवं कविताओं के रूप में शारदा प्रकाशन द्वारा उनकी दो पुस्तकों " फलक दीप्ति " एवं " मंज़र" में प्रकाशित की गई हैं.

पूरा नाम : दीपक शर्मा
+ उपनाम : कवि दीपक शर्मा
+ चित्र : संलग्न है
+ जन्मतिथी ; २२ अप्रैल 1970
+ जन्मस्थान : चंदौसी जिला मुरादाबाद ( उ.प)

+वर्तमान पता : 186,2ND Floor,Sector-5,Vaishali Ghaziabad(U.P.)
+ प्रकाशित पुस्तको और उनके प्रकाशकों के नाम

१. फलक दीप्ति : गीत, ग़ज़ल, नज़्म एवं कविताओं का पहला

मौलिक संग्रह सन २००५ में इंडियन बुक डिपो

( शारदा प्रकाशन ) द्वारा प्रकाशित

२. मंज़र : गीत, ग़ज़ल, नज़्म एवं कविताओं का दूसरा

मौलिक संग्रह सन २००६ में लिट्रेसी हाउस

( शारदा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित )

दीपक शर्मा जी हिंदी कवि सम्मलेन और मुशायरों में अनवरत रूप से अपनी रचनाएन प्रस्तुत करते रहते हैं.देश विदेश में पिछले २० सालों से अपनी रचनायों के द्वारा साहित्य की सेवा कर रहे हैं.




गजल



मेरे जेहन में कई बार ये ख्याल आया
की ख्वाब के रंग से तेरी सूरत संवारूँ

इश्क में पुरा डुबो दूँ तेरा हसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारू और ज्यादा निखारूँ ।

जुल्फ उलझाऊँ कभी तेरी जुल्फ सुलझाऊँ
कब्भी सिर रखकर दामन में तेरे सो जाऊँ

कभी तेरे गले लगकर बहा दूँ गम अपने
कभी सीने से लिपटकर कहीं खो जाऊँ

कभी तेरी नज़र में उतारूँ मैं ख़ुद को
कभी अपनी नज़र में तेरा चेहरा उतारूँ।

इश्क में पूरा डुबो दूँ तेरा हसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारू और ज्यादा निखारूँ ॥

अपने हाथों में तेरा हाथ लिए चलता रहूँ
सुनसान राहों पर, बेमंजिल और बेखबर

भूलकर गम सभी, दर्द तमाम, रंज सभी
डूबा तसव्वुर में बेपरवाह और बेफिक्र

बस तेरा साथ रहे और सफर चलता रहे
सूरज उगता रहे और चाँद निकलता रहे

तेरी साँसों में सिमटकर मेरी सुबह निकले
तेरे साए से लिपटकर मैं रात गुजारूँ

इश्क में पुरा डुबो दूँ हँसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारूँ और ज्यादा निखारूँ ॥

मगर ये इक तसव्वुर है मेरी जान - जिगर
महज़ एक ख्वाब और ज्यादा कुछ भी नहीं

हहिकत इतनी तल्ख है की क्या बयाँ करूँ
मेरे पास कहने तलक को अल्फाज़ नहीं ।

कहीं पर दुनिया दिलों को नहीं मिलने देती
कहीं पर दरम्यान आती है कौम की बात

कहीं पर अंगुलियाँ उठाते हैं जग के सरमाये
कहीं पर गैर तो कहीं अपने माँ- बाप ॥

कहीं दुनिया अपने ही रंग दिखाती है
कहीं पर सिक्के बढ़ाते हैं और ज्यादा दूरी

कहीं मिलने नहीं देता है और ज़ोर रुतबे का
कहीं दम तोड़ देती है बेबस मजबूरी ॥

अगर इस ख़्वाब का दुनिया को पता चल जाए
ख़्वाब में भी तुझे ये दिल से न मिलने देगी

कदम से कदम मिलकर चलना तो क़यामत
तुझे क़दमों के निशान पे भी न चलने देगी ।

चलो महबूब चलो , उस दुनिया की जानिब चलें
जहाँ न दिन निकलता हो न रात ढलती हो

जहाँ पर ख्वाब हकीकत में बदलते हों
जहाँ पर सोच इंसान की न जहर उगलती हो ।।
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नन्हें फूल- रोज़ ही एक नया मज़ेदार कि़स्सा.....(संस्मरण).....मनोशी जी


"अब के इस मौसम में नन्हें
फूलों से महकी गलियाँ हैं"

इस शेर को जब लिखा था तो वो प्यारे-प्यारे, छोटे-छोटे बच्चे थे दिमाग़ में, जिन्हें पढ़ाने का मौक़ा मिला है इस साल। कक्षा किंडर्गार्टन से कक्षा दूसरी तक के बच्चे, ४ - ७ साल तक के।


शुरुआत में बड़ी परेशानी होती थी। मैं घबराई हुई सी इन कक्षाओं में जाती थी। इतने छोटे बच्चों को पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं था मुझे। मगर अब कोई २-३ महीने बाद, हर दिन एक खुशगवार दिन होता है और हर दिन के नये कि़स्सों को घर आकर याद कर के चेहरे पर अपने आप मुस्कराहट आ जाती है। रोज़ एक नया मज़ेदार क़िस्सा।

अभी कल की ही बात है। किंडरगार्टन के बच्चों को स्कूल में ही, लाइब्ररी ले कर जाना था। उनकी कक्षा से दूर, सीढ़ियों से ऊपर लाइब्ररी में ले जाना मतलब, पहले ही हिदायतें दोहरानी होती हैं-
"हम लाइन में कैसे चलते है?"
" मुँह पर उँगली रख कर...."
"क्या हम लाइन में चलते हुए अपने दोस्त से बात करते हैं?
"न-हीं--" (-कोरस में सभी-)
"जब हम सीढ़ी चढ़ते हैं तो क्या ज़रूरी है?"
"सीढ़ी की रेलिंग पकड़ना"
आदि आदि...
इस तरह से उनको (मैं बच्चों की लाइन की तरफ़ मुँह किये हुये, अपनी उँगली अपने होठों पर रखे हुये, धीरे-धीरे क़दम दर क़दम पीछे की ओर चलते हुये) लाइब्ररी तक ले कर जाती हूँ। यहाँ बच्चे अपनी पसंद की किताब लेते हैं और एक बेंच पर बैठ कर सब बच्चों के किताब ले लेने तक प्रतीक्षा करते हैं।

कल देखा, बेंच पर बैठी, ये छोटी सी बच्ची, चार-साढ़े चार साल, की खूब खी-खी कर के हँस रही है। मैंने पूछा कि क्या हुआ है? पास ही बैठी दूसरी बच्ची ने बताया, "मिसेज़ चटर्जी, फ़लाना इज़ टेलिंग दैट दे आर किसिंग" । मुझे हँसी आई, और मैंने कहा, "व्हाट इज़ इट हनी? " तो उस बच्ची ने अपनी किताब दिखाई, परी कथा थम्बलीना की कहानी में, आखिरी पन्ने पर राजकुमार और राजकुमारी पास-पास खड़े थे। वो कहने लगी, "दे आर किसिंग" । मैंने कहा, :" नो दे आर नाट..., दे आर स्टैंडिंग"। बच्ची ने थोड़े ध्यान से उस तस्वीर को फिर देखा और मुझे समझाते हुए कहा," येस, बट दे आर गोंइंग टु किस आफ़्टर" - (बस मन में यही कह पाई- जी अच्छा दादी अम्मा)

एक बच्चा है कक्षा पहली में, उसे मैंने कारीडर में चलते हुये नहीं देखा है कभी। वो अपने जूतों से लगातार फिसलते हुए ही चलता है। और फिर ब्रेक लगाते हुये, गिरते हुये, और फिर फ़िसलते हुये...हम टीचर भी अपना काम करते हैं, उसे रोज़ समझाते हैं, और वापस जाकर फिर चल कर आने को कहते हैं...आदि आदि, न वो सुधरा है अब तक, न हम :-)

सबसे अच्छा लगता है जब ये बच्चे खिल-खिल कर के हँसते हैं। छोटी-छोटी बातें इनको हँसाने के लिये काफ़ी होती हैं। कल एक खेल खिलवा रही थी बच्चों से। सभी एक गोलाकार में बैठे। एक बच्चे को खड़े होकर सबसे पहले अपनी उँगली को पेन्सिल मान कर हवा में अपना नाम लिखना था। फिर अपने सिर को पेन्सिल मान कर, फिर अपने पेट को , कुहनी को, आदि आदि...उनकी निश्छल हँसी देखते बनती थी।

रोज़ के कई कि़स्से...जाने कितने, इन दो महीनों में ही...जो सालों से इस उम्र के बच्चों को पढ़ा रहे हैं, उनके पास तो किस्सों का ख़ज़ाना होगा, इसमें भला क्या संदेह है...

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

एक सपना जी रही हूँ......(कविता)......मनोशी जी


एक सपना जी रही हूँ






पारदर्शी काँच पर से
टूट-बिखरे झर रहे कण 
  विहँसता सा खिल रहा है
आँख चुँधियाता हर इक क्षण
  कुछ दिनों का जानकर सुख
मधु कलश सा पी रही हूँ

एक सपना जी रही हूँ

वह अपरिचित स्पर्श जिसने
छू लिया था मेरे मन को 
अनकही बातों ने फिर धीरे
से खोली थी गिरह जो
और तब से जैसे हाला
जाम भर कर पी रही हूँ
 
एक सपना जी रही हूँ

इक सितारा माथ पर जो
तुमने मेरे जड़ दिया था
और भँवरा बन के अधरों
से मेरे रस पी लिया था
उस समय के मदभरे पल
ज्यों नशे में जी रही हूँ

एक सपना जी रही हूँ

कागज़ की नाव...(बाल कविता )...कुमार विश्वबंधु

आओ बनायें कागज़ की नाव !
आओ चलायें कागज़ की नाव !

" लो खा लो खाना ''
कहते हैं नाना -
फिर तुम चलाना
कागज़ की नाव ।

आओ बनायें कागज़ की नाव !
आओ चलायें कागज़ की नाव !

'' आँगन में पानी ''
कहती है नानी -
जाना है हमको
सपनों के गाँव ।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

सुख बिजली जाने का...(व्यंग्य)...मोनिका गुप्ता

अरे भाई, हैरान होने की कोई बात नही है लगातार लगते कटो से तो मैने यही नतीजा निकाला है कि बिजली जाने के तो सुख ही सुख है.सबसे पहले तो समाज की तरक्की मे हमारा योगदान है. भई, अर्थ आवर मे 100% हमारा योगदान है क्योकि बिजली रहती ही नही है.तो हुआ ना हमारा नाम कि फलां लोगो का सबसे ज्यादा योगदान है बिजली बचाओ मे.

चलो अब सुनो, बिजली नही तो बिल का खर्चा भी ना के बराबर. शापिंग के रुपये आराम से निकल सकते हैं. बूढे लोगो के लिए तो फायदा ही फायदा है भई हाथ की कसरत हो जाती है. हाथ का पखां करने से जोडो के दर्द मे जो आराम मिलता है. घरो मे चोरी कम होती है भई, बिजली ना होने की वजह से नींद ही नही आती या खुदा ना करे कि सच मे, चोर आ भी गया और अचानक लाईट आ गई तो आप तो हीरो बन जाऐगे चोर को जो पकड्वा देगे, है ना समाचार पत्रो मे आपकी फोटो आएग़ी वो अलग. 

अच्छा, घर मे बिजली ना रहने से लडाई ना के बराबर होती है. भई कूलर या पंखे मे तो अकसर आवाज दब जाती है पर लाईट ना होने पर खुल कर आवाज बाहर तक जाती है. धीमी आवाज मे तो लड्ने मे मजा आता नही इसलिए लडाई कैंसिल करनी पड्ती है. और पता है सास बहू के झगडे कम हो जाते हैं दोनो बजाय एक दूसरे को कोसने के बिजली विभाग को कोसती हैं इससे मन की भडास भी निकल जाती है और मन को शांति भी मिलती है.पता है बिजली जाने से दोस्ती भी हो जाती है. अब लाईट ना होने पर आप घर से बाहर निकलेगे आपके हाथ मे रुमाल भी होगा पसीना पोछ्ने के लिए. सामने से कोई सुन्दर कन्या आ रही होगी तो आप जान बूझ कर अपना रुमाल गिरा कर कहेगे लगता है मैडम, आपका रुमाल गिर गया है यह सुन कर वो आपकी तरफ देखेगी,मुस्कुराएगी और दोस्ती हो जाएगी.

एक और जबरदस्त फायदा है कि आप विरह के गीत, कविताए लिखने लगेगें क्योकि आप बिजली को हर वक्त याद करेगें जब वो नही आएगी तो आपके मन मे ढेरो विचार उठने लगेगें. यकीन मानो आप उस समय विरह की ऐसी ऐसी कविता या लेख लिख सकते हैं कि अच्छे अच्छो की छुट्टी हो जाएगी.एक और सुख तो मै बताना ही भूल गई कि आप जोशीले भी बन सकते है बिजली घर मे ताला लगाना, तोड फोड करना, जलूस की अगवाई तभी तो करेगे जब आपमे गुस्सा भरा होगा और वो गुस्सा सिवाय बिजली विभाग के आपको कोई दिला सकता है सवाल ही पैदा नही होता .बाते और भी है बताने की पर हमारे यहाँ 5घंटे से लाईट गई हुई है और अब इंवरटर मे लाल लाईट जलने लगी है. बिजली विभाग मे मोबाईल कर रही हूँ पर कोई फोन ही नही उठा रहा. गुस्से मे मेरा रक्तचाप बढ रहा है डाक्टर को फोन किया तो वो बोले तुरंत आ जाओ. अब आँटो का खर्चा, डाक्टर की फीस ,दवाईयो का खर्चा सबके फायदे ही फायदे हैं और कितने सुख गिनवाऊँ बिजली जाने के.

तुम चले क्यों गये? ...(कविता)...मुईन शमसी

तुम चले क्यों गये 

मुझको रस्ता दिखा के, मेरी मन्ज़िल बता के 

तुम चले क्यों गये 


तुमने जीने का अन्दाज़ मुझको दिया 

ज़िन्दगी का नया साज़ मुझको दिया 

मैं तो मायूस ही हो गया था, मगर 

इक भरोसा-ए-परवाज़ मुझको दिया. 

फिर कहो तो भला 

मेरी क्या थी ख़ता 

मेरे दिल में समा के, मुझे अपना बना के 

तुम चले क्यों गये 








साथ तुम थे तो इक हौसला था जवाँ 

जोश रग-रग में लेता था अंगड़ाइयाँ 

मन उमंगों से लबरेज़ था उन दिनों 

मिट चुका था मेरे ग़म का नामो-निशाँ. 

फिर ये कैसा सितम 

क्यों हुए बेरहम 

दर्द दिल में उठा के, मुझे ऐसे रुला के




तुम चले क्यों गये 

तुम चले क्यों गये 

तुम चले क्यों गये?

शब्दार्थ:

परवाज़ = उड़ान
रग-रग = नस-नस
लबरेज़ = भरा हुआ

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

‘कवि शिरोमणि संत सुंदरदास समारोह 2010’...(रिपोर्ट) ...विमला भंडारी



श्री शिवनारायण रावत स्मृति शब्द संस्थान, दौसा एवं कौशिक विद्या मंदिर समिति के संयुक्त तत्वावधान में ‘कवि शिरोमणि संत सुंदरदास समारोह 2010’ का आयोजन किया गया। इस समारोह में ‘काव्य माधुरी’

तथा ‘साहित्यकार सम्मान’ कार्यक्रम का आयोजन भी किया गया। बालवाटिका (भीलवाड़ा) के संपादक डॉ. भैरूलाल गर्ग, संगरिया के बाल साहित्यकार तथा व्यंग्यकार श्री गोविन्द शर्मा, सलूम्बर की साहित्यकार

और जिलापरिषद सदस्या श्रीमती विमला भण्डारी तथा मंडला के साहित्यकार डॉ. शरदनारायण खरे को शॉल ओढा सम्मान पट्टिका अर्पित कर सम्मानित किया गया।

समारोह में आयोजित कवि सम्मेलन में रमेश बांसुरी(अलवर), जगदीश लवानिंया(हाथरस), सुरेन्द्र सार्थक

(डीग), श्यामसुन्दर अकिंचन(छाता,मथुरा), रामवीर सिंह साहिल एवं अंजीव अंजुम(दौसा) आदि कवियों ने

अपनी रोचक कविताएं सुनाईं।

समारोह की अध्यक्षता शंभूदयाल सर्राफ ने की तथा रामावतार चौधरी (अध्यक्ष ब्लाक कांग्रेस)

मुख्यअतिथि थे।

समारोह में उपस्थित गणमान्य व्यक्तियों में गोपीशंकर चौधरी, अजयवीर सिंह, संस्था के अध्यक्ष एवं सह

संयोजक सम्मिलित थे। इसी समारोह में श्रीमती विमला भण्डारी के दो बालकथा संग्रह ‘करो मदद अपनी’

तथा ‘मजेदार बात’ का अतिथियों ने लोकार्पण किया। अंजीव रावत की बाल काव्य पुस्तक ‘कौन फलों का राजा’,

रामवीर सिंह साहिल की ‘सूरज की हुंकार’ आदि पुस्तकों का भी इस समारोह में विमोचन किया गया।

लिखूं ग़ज़ल ...(ग़ज़ल ).....कवि दीपक शर्मा

मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिखूँ

मैं भी चाहता हूँ की इश्क के नगमें गाऊं

अपने ख्वाबों में में उतारूँ एक हसीं पैकर

सुखन को अपने मरमरी लफ्जों से सजाऊँ ।

लेकिन भूख के मारे, ज़र्द बेबस चेहरों पे

निगाह टिकती है तो जोश काफूर हो जाता है

हर तरफ हकीकत में क्या तसव्वुर में 

फकत रोटी का है सवाल उभर कर आता है ।

ख़्याल आता है जेहन में उन दरवाजों का

शर्म से जिनमें छिपे हैं जवान बदन कितने 

जिनके तन को ढके हैं हाथ भर की कतरन

जिनके सीने में दफन हैं , अरमान कितने 

जिनकी डोली नहीं उठी इस खातिर क्योंकि

उनके माँ-बाप ने शराफत की कमाई है

चूल्हा एक बार ही जला हो घर में लेकिन 

मेहनत की खायी है , मेहनत की खिलाई है । 

नज़र में घुमती है शक्ल उन मासूमों की 

ज़िन्दगी जिनकी अँधेरा , निगाह समंदर है ,

वीरान साँसे , पीप से भरी -धंसी आँखे

फाकों का पेट में चलता हुआ खंज़र है ।

माँ की छाती से चिपकने की उम्र है जिनकी

हाथ फैलाये वाही राहों पे नज़र आते हैं ।

शोभित जिन हाथों में होनी थी कलमें 

हाथ वही बोझ उठाते नज़र आते हैं ॥ 

राह में घूमते बेरोजगार नोजवानों को

देखता हूँ तो कलेजा मुह चीख उठता है

जिन्द्के दम से कल रोशन जहाँ होना था

उन्हीं के सामने काला धुआं सा उठता है ।

फ़िर कहो किस तरह हुस्न के नगमें गाऊं

फ़िर कहो किस तरह इश्क ग़ज़लें लिखूं

फ़िर कहो किस तरह अपने सुखन में

मरमरी लफ्जों के वास्ते जगह रखूं ॥

आज संसार में गम एक नहीं हजारों हैं

आदमी हर दुःख पे तो आंसू नहीं बहा सकता ।

लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से

मीठे अल्फाजों से कोई मन बहला नही सकता ।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

धरी लुट गयी (गीत) .............. कुमार विश्वबंधु

धरी
धरी लुट गयी 
सपनों की टोकरी,
मिली नहीं नौकरी।
 
क्या
हम कहें 
कुछ कहा नहीं जाए,
जीवन से  मौत अच्छी
सहा नहीं जाए।
 
झूठे
अरमान हुए सपनें बेइमान हुए, 
अपने अनजान हुए
रहा नहीं जाए।
 
कर
गई बाय बाय 
मुम्बई की छोकरी !
मिली नहीं नौकरी।

धरी धरी लुट गयी ...
 कितने जतन किए
पूरी की पढ़ाई,
फिर भी जमाने में
बेकारी हाथ आई।
 
दर
दर की ठोकर खाते, 
पानी पी भूख मिटाते,
पर हम लड़ते ही जाते
जीवन की लड़ाई।
 
होकर
मजबूर यारों 
करते हैं जोकरी !
मिली नहीं नौकरी।

धरी
धरी लुट गयी ..

दीप बना कर याद तुम्हारी....(गीत)...मनोशी जी

दीप बना कर याद तुम्हारी, प्रिय, मैं लौ बन कर जलती हूँ
प्रेम-थाल में प्राण सजा कर लो तुमको अर्पण करती हूँ।

अकस्मात ही जीवन मरुथल में पानी की धार बने तुम,
पतझड़ की ऋतु में जैसे फिर जीवन का आधार बने तुम,
दो दिन की इस अमृत वर्षा में भीगे क्षण हृदय बाँध कर,
आँसू से सींचा जैसे अब बन कर इक सपना पलती हूँ।
 दीप बना कर...

मेरे माथे पर जो तारा अधरों से तुमने आँका था,
अंग-अंग हर स्पर्श तुम्हारा लाल दग्ध हो मुखर उठा था,
उन चिह्नों को अंजुरि में भर पीछे डाल अतीत अंक में,
दे दो ये अनुमति अब प्रियतम, अगले जीवन फिर मिलती हूँ।
दीप बना कर...

तुम रख लेना मेरी स्मृति को अपने मन के इक कोने में,
जैसे इक छोटा सा तारा दूर चमकता नील गगन में,
मौन रो रहे दंश हृदय के, घाव रक्त से ज्यों हो लथपथ ,
आहुति के आँसू से धो कर आंगन लो अब मैं चलती हूँ।
दीप बना कर...

रविवार, 18 अप्रैल 2010

कल ढलना है ........(कविता)....कवि दीपक शर्मा


डाल कर कुछ नीर की बूंदे अधर में

कर अकेला ही विदा अज्ञात सफ़र में

कुछ नेह मिश्रित अश्रु के कतरे बहाकर

संबंधों से अपने सब बंधन छूटाकर 

बाँध तन को कुछ हाथ लम्बी चीर में

डूबकर स्वजन क्षणिक विछोह पीर में

तन तेरा करके हवन को समर्पित

कुछ परम्परागत श्रद्धा सुमन करके अर्पित

धीरे -धीरे छवि तक तेरी भूल जायेंगे

काल का ऐसा भी एक दिवस आएगा

आत्मीय भी नाम तेरा भूल जायेंगे


साथ केवल कर्म होंगे, माया न होगी

सम्बन्धी क्या संग अपनी छाया न होगी

बस प्रतिक्रियायें जग की तेरे साथ होगी

नग्न होगी आत्मा, संग काया न होगी

फिर रिश्तों के सागर में मानव खोता क्यों है

अपनी - परायी भावना लिए रोता क्यों है

जब एक न एक दिन तुझको चलना है

जो आज उदित सूर्य है ,कल ढलना है
 

अगीत -----डा श्याम गुप्त के पांच अगीत ....

( नव अगीत ---अगीत विधा का यह एक नवीन छंद है---३ से ५ तक पंक्तियाँ , तुकांत बंधन नहीं . )

१. नज़दीकियाँ -

मोबाइल,
उनके पास भी है
हमारे पास भी है ;
हम इतने करीब हैं कि ,
अभी तक नहीं मिलपाये हैं |

२. झुनुझुना --

चुनाव हारने के बाद 

वे झुनुझुना बजा रहे हैं ;
और क्या करें 
समझ नहीं पारहे हैं |

३.दूरियां---
दूरियां ,
 दिलों को करीब लाती हैं;
इन्तजार के बाद,
मिलन केअनुभूति,
अनूठी हो जाती है ।

४.समत्व---
जो आधि व व्याधि
दोनों में ही सम रहता है;
उसे ही शास्त्र,
समाधिस्थ व समतावादी कहता है ।

५.मूर्ख--
कुत्ते की उस पूंछ के समान है,
जो नतो गुप्त अन्ग ही ढकती है
न मच्छरों के उडाने के काम आती है।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

तुम इतने समीप आओगे मैंन कभी नहीं सोचा था......- डा. बुद्धिनाथ मिश्र


मधेपुरा की ऐतिहासिक साहित्यिक परम्परा को सम्वर्द्धित करते हुए बी. एन मंडल विश्वविधालय, मधेपुरा के वर्तमान कुलपति डा. आर. पी. श्रीवास्तव के सद्प्रयास से विश्वविधालय के सभागार में काव्य संध्या का एक महत्वपूर्ण आयोजन किया गया। विश्वविधालय स्थापना के 17 वर्षों में यह पहला मौका था जब साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा (कविता) पर रचनाकारों का इस तरह भव्य समागम हुआ। विशिष्ठ अतिथि एवं गीतकाव्य के शिखर पुरुष डा. बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) सहित अन्य कवियों को श्रोताओं ने जी भर सुना। कवियों में डा. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’, डा. कविता वर्मा, डा.पूनम सिंह, रमेश ऋतंभर (मुजफ्फरपुर) डा. रेणु सिंह, डा. एहसान शाम, रेयाज बानो फातमी, (सहरसा) डा. विनय चौधरी, अरविन्द श्रीवास्तव (मधेपुरा) ने काव्य पाठ किया। डा. बुद्धिनाथ मिश्र ने एक मुक्तक से काव्य पाठ आरम्भ किया - राग लाया हूँ, रंग लाया हूँ, गीत गाती उमंग लाया हूँ। मन के मंदिर मे आपकी खातिर, प्यार का जलतरंग लाया हूँ।  

डा. मिश्र ने अपने कई गीतों का सस्वर पाठ किया, देखें कुछ की बानगी-

नदिया के पार जब दिया टिमटिमाए
अपनी कसम मुझे तुम्हारी याद आये.....

मोर के पाँव ही न देख तू
मोर के पंख भी तो देख 
शूल भी फूल हैं बस इक नजर
गौर से जिन्दगी तो देख.....

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे 
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो.......

तुम इतने समीप आओगे मैंन कभी नहीं सोचा था......

 काव्य संध्या की अध्यक्षता करते हुए डा. रिपुसूदन श्रीवास्तव ने कविता को मानव हृदय का स्पंदन कहा। उन्होंने अपनी कविता कुछ इस तरह सुनायी-

जंग, धुआं, गम के साये में जैसे-तैसे रात ढ.ली
एक कली चटकी गुलाब की, सुबह जो तेरी बात चली........।

 इस अवसर पर प्रकृति भी मेहरबान दिखी, बारिश की हल्की फुहार के साथ इस यादगार काव्य संध्या का समापन हुआ।

आभार ....जन्शब्द 

क्या है कविता ....(कविता ) ...कवि दीपक शर्मा

महज़ अलफाज़ से खिलवाड़ नहीं है कविता

कोई पेशा ,कोई व्यवसाय नही है कविता ।

कविता शौक से भी लिखने का काम नहीं

इतनी सस्ती भी नहीं , इतनी बेदाम नहीं ।

कविता इंसान के ह्रदय का उच्छ्वास है,

मन की भीनी उमंग , मानवीय अहसास है ।

महज़ अल्फाज़ से खिलवाड़ नही हैं कविता

कोई पेशा , कोई व्यवसाय नहीं है कविता ॥

कभी भी कविता विषय की मोहताज़ नहीं

नयन नीर है कविता, राग -साज़ भी नहीं ।

कभी कविता किसी अल्हड यौवन का नाज़ है

कभी दुःख से भरी ह्रदय की आवाज है

कभी धड़कन तो कभी लहू की रवानी है

कभी रोटी की , कभी भूख की कहानी है ।

महज़ अल्फाज़ से खिलवाड़ नहीं है कविता,

कोई पेशा , कोई व्यवसाय नहीं है कविता ॥


मुफलिस ज़िस्म का उघडा बदन है कभी
बेकफन लाश पर चदता हुआ कफ़न है कभी ।
बेबस इंसान का भीगा हुआ नयन है कभी,
सर्दीली रात में ठिठुरता हुआ तन है कभी ।
कविता बहती हुई आंखों में चिपका पीप है ,
कविता दूर नहीं कहीं, इंसान के समीप हैं ।
महज़ अल्फाज़ से खिलवाड़ नहीं है कविता,
कोई पेशा, कोई व्यवसाय नहीं है कवित

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

अँधियारा और आशा.....(कविता)......जोगिन्दर



थका हारा बैठा मुसाफिर

जाने कौन कहाँ से आया

और

दरवाजा खटखटाया ...

मैं न हिलूंगा

मैं नहीं खोलूँगा द्वार

मैंने ठान लिया था


मुझे मालूम था

इस अंधियारे द्वार कोई नहीं आया होगा

शायद दरवाजा खुद ब खुद हवाओं ने ही खटखटाया होगा

मैं सोचता रहा

मैं न हिलूंगा अब

अब मैं थक गया हूँ


ये अँधियारा अब

मन भाने लगा है

ये घर का एक कोना

अब यही पूरा घर बन गया है

मैं न हिलूंगा अब

मैं न जाऊंगा उस पार ।


उस पार न जाने क्या होगा

होगा अँधियारा घना

होऊंगा मैं फिर से अकेला

तो क्यों जाऊँ मैं

मुझे अब इसी तन्हाई से प्यार है

मुझे बस मुझसे ही प्यार है


मैं न जाऊंगा कहीं

मैं न हिलूंगा अब

मैं न खोलूँगा द्वार अपने

न खोलने की द्वार

मन में सोच

बैठा रहा मैं अकेला

सिर्फ अकेला

अपने साथ अपने पास ।


आज फिर लगा क़ि

किसी ने दरवाजा खटखटाया

मुझे लगा क़ि आज फिर कोई आया

पर मुझे पता था क़ि

हमेशा की तरह ही कोई नही आया होगा ।


मेरे मासूम मन के

किसी कोने से आवाज आई

"कौन है "

पहले कोई उत्तर न मिला

मेरे मन ने दोबारा आवाज लगाई

"कौन है "


प्रत्युतर में सुना मैंने

"आशा हूँ मैं "

मेरे मन ने कहा

"यहाँ क्यों आई हो ?"

"तुम्हे अंधकार में

एक किरण दिखाने के लिया " उत्तर मिला मुझे ...


मुझे छोड़ दो अकेला

अब यही अंधकार रसमय है मुझे

न जाने उस पर क्या होगा

होगा अँधियारा घना ।


"ये रसमय नहीं नीरस है

इस अंधकार से बाहर निकलो

नया सवेरा

नया उजाला है

तुम्हारे लिए नए रास्ते हैं

मंजिलें हैं

हमसफ़र हैं "


" मेरे साथ 'हिम्मत' और 'साहस' हैं

तुम्हे उस पर के उजाले में ले के जायेंगे

चलना है ??"


मुझमें अंतर्द्वंद आरम्भ हुआ ,

'चलो आशा ,हिम्मत ,साहस के साथ

नए उजाले मिलेंगे'


नहीं ,नहीं मैं न जाऊंगा

उस पर होगा अँधियारा घना , न जाने क्या होगा ...


"आशा ,हिम्मत और साहस हैं न

निसंदेह उजाला ही मिलेगा "


एक मन ने कहा

'न मिला तो ?'


'न मिला तो नया विश्वास मिलेगा

नए उजाले की ओर चलने का '


मैं उठा

और अंतत चलने लगा

अंधकार के किवाड़ खोले

'आशा' ने साथ दिया

उस पर जाने में

हिम्मत और साहस भी साथ ही थे

निसंदेह उस पर उजाला ही होगा

विश्वास होने लगा था मुझे ॥

हड़ताल....(कहानी).....मनीष कुमार जोशी


‘क्या मैं अंदर आ सकता हॅू।’ तेजस ने नीले रंग की ड्रेस पहने हुए दरवाजा खोलकर कहा। 

यस । कम इन । ’ मैंनेजर ने कम्प्यूटर पर काम करते हुए तेजस की ओर देख बिना कहा। 

  तेजस मैनेजर का उत्तर सुनकर अंदर आ गया। नीली ड्रेस पहने और माथे पर थोड़े बहुत बाल बिलकुल आज की उम्र के नौजवान की तरह ही था तेजस । मैनेजर की टेबिल की नजदीक पहुंचते ही मैनेजर ने बैठने के लिए कह दिया। बिलकुल शांति का वातावरण था। फैक्ट्री में मशीनो की घड़ घड़ की आवाज यहां बिलकुल नहीं पहुंच रही थी जबकि यह कमरा फैक्ट्री के बिलकुल नजदीक था। कमरे में सभी अत्याधुनिक सुविधाऐं थी और इससे आभास हो रहा था कि कंपनी मैनेजर को उनके काम के अनुरूप पूरी सुख सुविधाऐ देती है। तेजस कुर्सी पर बैठकर मैनेजर के कुछ कहने का इंतजार कर रहा था। आखिर मैनेजर ने ही उसे बुलाया था हांलाकि तेजस को पता था कि मैनेजर ने क्यों बुलाया है ? उसे अच्छी तरह से पता था कि उसे सुपरवाईजर की हैसियत से नहीं बुलाया गया है। मैनेजर ने कुछ ही देर में अपनी कुर्सी कम्प्यूटर की ओर से तेजस की ओर धुमाई और अपने दोनो हाथ टेबिल पर आराम की मुद्रा रखते हुए तेजस की ओर आंखे करते हुए बोला- ‘ इस हड़ताल के नोटिस पर तुम्हारे साईन है।’

हाॅ! तो ? 

‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है कि हड़ताल के नोटिस पर किसने साईन किये है। इसकी भी ज्यादा परवाह नहीं है कि हड़ताल से किसका नुकसान होगा। परन्तु मुझे तुम्हारी चिंता है।’ मैनेजर तेजस की ओर अंगुली करते हुए कहा। परन्तु तेजस ने वापिस अपने हाथ की हथेली खोलकर मैनेजर की ओर हिलाते हुए कहा - ‘ आप मेरी चिंता मत कीजिए। आप तो हमारी बात मालिको तक पहुंचाईये और कहिए कि ये मांगे नहीं मांगी गई तो पूरी कंपनी के मजदूर अगली 8 तारीख को हड़ताल पर चले जायेंगे। ’ 

तेजस की तेज और ऊंची आवाज के बावजूद मैनेजर ने कोई उग्रता नहीं दिखाई और पूछा -‘ तुम्हारी उम्र क्या है।’ 

‘ 24 साल’

‘ तुम जानते हो । यह कंपनी 48 साल से भी ज्यादा पूरानी है और आज तक इस कंपनी में कोई हड़ताल सफल नहीं हो पाई है।’

‘ मैनेजर साब! पहले क्या हुआ ? इससे मुझे कोई सरोकार नहीं है। मैं आगे की ओर देखता हूॅ। 

‘ मैं भी तुम्हे यही कहता हूॅ कि तुम आगे की ओर देखो। तुम्हे नौकरी लगे हुए 1 साल भी नहीं हुआ। इस कंपनी ने यदि रेड मार्क करके निकाल दिया तो तुम्हे कहीं नौकरी नहीं लगेगी। तुम्हारा भविष्य चैपट हो जायेगा। थोड़ा समझदारी से काम लो।’ 

  मैनेजर की बात सुनकर तेजस कुर्सी से उठकर खिड़की की ओर गया। अपने हाथ से कांच की खिड़की खोल दिया। खिड़की को खोलते ही मशीनो की घड़ घड़ की आवाज अंदर आने लगी। तेजस ने खिड़की से बाहर देखते हुए ही कहा - ‘ साहब! कांच के साउण्ड प्रुफ कमरो मंे बैठने वालो को ये आवाज डिस्टर्ब करती है परन्तु मेरे लिए यह आवाज जीवन का संगीत है। जब तक यह आवाज सुनाई देती है सैकड़ो मजदूरो का जीवन चलता है। उनके बच्चो को खाना मिलता है। मुझे नहीं लगता कि इन सैकड़ो परिवारो के भविष्य से ज्यादा जरूरी मेंरा भविष्य है। ’ 

‘ तेजस तुम समझना ही नहीं चाहते हो तो मैं क्या कर सकता हॅॅॅू। तुम्हे आगाह करना मेरा फर्ज था। आगे तुम ख्ुाद समझदार हो। यदि अच्छी सोच रखोगे तो आज सुपरवाईजर हो कल मैनेजर और फिर कंपनी में हिस्सेदार भी बन सकते हो। फैसला तुम्हे करना है ? मैनेजर ने अपने दोनो हाथ घुमाते हुए कहा।  

  मैनेजर की बात सुनकर तेजस ने घूमकर मैनेजर की ओर देखा, फिर कमरे से बाहर आ गया। बाहर आते ही मजदूरो ने उसे घेर लिया। किसी से कुछ कहे बिना तेजस आगे की ओर निकल गया। सभी मजदूर पीछे पीछे थे। तेजस सीधे फैक्ट्री में बने अपनी केबिन में जाकर बैठ गया। दीनूकाका भी उसके पीछे पीछे आ गये और उसके सामने आकर बैठ गये। तेजस टेबिल पर अपने हाथ की कुहनी टिकाकर हथेली को अपने चेहरे पर रखकर बैठा था। दीनू काका ने अपनी सफेदी होती दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा -‘ तेजस एक बार सोच लो।’

‘ सोच लिया काका। 8 तारीख को हड़ताल पर जायेंगे। एक एक मजदूर अपने साथ है।’

‘ वो तो ठीक है। मुझे तुम्हारी चिंता है। तुम्हारी नई नौकरी है। ऐसा करो हड़ताल के नोटिस में मेंरा नाम दे दो और मैं इस कंपनी का पूराना मजदूर हूूॅ। कंपनी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। ’

‘ बिलकुल नहीं काका। आप मुझे काम करने दीजिए। इस कंपनी में मजदूरो ने हमेंशा जंग हारी है परन्तु इस बार मजूदरो की जीत होगी। ’

‘ तेजस । तुम इन लफड़ो में मत पड़ो । तुम तो अपना कैरियर बनाओ। यह सब हमारे ऊपर छोड़ दो।  

इस बार तेजस अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया। दीनूकाका के पीछे जाकर उनके कंधो पर हाथ रखकर बोला- ‘ दीनूकाका । अब सब चिंताऐ छोड़ दीजिए । मैं नौजवान हूॅ। कैसे भी कमा लूंगा । लेकिन आप जैसे उम्रदराज लोग कहां जायेंगे। इसलिए मुझे काम करने दीजिए और इस लड़ाई में सफलता के लिए मुझे आर्शीवाद दीजिए। ’ तेजस के ईरादो को देखकर दीनूकाका ने भी आगे कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा।  

  पूरी फैक्ट्री में हलचल थी। दिनभर काम के बाद सभी मजदूरो का एक ही सवाल था 8 तारीख को क्या होगा ? सभी को तेजस जैसे नौजवान पर भरोसा था। सभी को लग रहा था उसमें कोई बात है। उसकी आवाज पर सभी शाम को कंपनी के मैदान में इकट्ठे हो जाते । उधर कंपनी के अधिकारियों के माथे पर चिंता की लकीरे साफ पढ़ी जा सकती थी।  

  कंपनी के मैदान मे आज सभी मजदूर इकटठा थे। कल से हड़ताल होनी थी। तेजस को सुनने के लिए छट्टी के बाद सभी मजदूर जमा हुए थे। तेजस उन्हे एक नायक की तरह लग रहा था। तेजस ज्यों ही मंच ओर पहुंचा। मैनेजर का चपरासी जयदीप दौड़ता हुआ आया और कहा- ‘ तेजस भैया। आपको बडे़ साब बुला रहे है।’

तेजस ने कहा - ‘ तुम चलो । मै आता हूॅ। ’ यह कहने के बाद तेजस ने सभी मजदूरो से मालिक से मिलने के लिए जाने की अनुमति मांगी और मजदूरो की हामी के बाद वह मालिक से मिलने के लिए गया। 

  कंपनी के स्वागत कक्ष के आगे ही कंपनी के मालिक की गाड़ी खड़ी थी। मालिक शांतिलाल जी स्वागत कक्ष में ही बैठे थे। तेजस ने पहंुचते ही मालिक को प्रणाम किया।  

‘ आओ तेजस। बैठो। आखिर तुमने हमें यहां बुला ही लिया । ’ शांतिलाल जी ने बैठने का ईशारा किया। शांतिलालजी के कहने पर तेजस उनके सामने की कुर्सी पर बैठ गया।  

  शांति लाल जी ने टेबिल पर रखी फाईल को खोला और फाईल के पन्ने की ओर नजर रखते हुए कहा -‘ अच्छा। तेजस तुम तो खूब पढ़े लिखे हो। सुपरवाईजर की नौकरी के लायक नहीं हो । तुम तो मैनेजर जैसे पद के लायक हो। मुझे बहुत बुरा लगा। इतना होनहार नौजवान मजदूरो के चक्कर में पड़ा तो। ’ 

शांतिलाल जी की बाते सुनकर तेजस थोड़ा परेशान होता नजर आया । उसे रहा नही गया और बोल पड़ा- ‘ सर। मैं वर्तमान में विश्वास करता हूूॅ। वर्तमान में मैं सुपरवाईजर हूूॅ और मजदूरो के साथ अन्याय मैं देख नहीं सकता। ’ 

‘ मजदूरो का न्याय और अन्याय देखने के लिए हम है। तुम तो अपने कैरियर को देखो। मजदूर और हड़ताल यह सब बात नौजवानो के लिए ठीक नहीं । तुम तो अपना कैरियर बनाओ और मैं तुम्हारी योग्यता की कद्र करता हॅॅू। 

‘ सर। धन्यवाद। आप मेरी योग्यता की कद्र करते है। परन्तु इस समय मैं अपने फर्ज से पीछे नहीं हट सकता। इस समय आप यह बताईये आप मजदूरो की मांगो पर कोई फैसला करते है या नहीं ? नहीं तो तो कल से सब मजदूर हड़ताल पर जा रहे है।’ 

तेजस की तल्ख आवाज को भांपते हुए शांतिलाल जी ने भी अपनी भाषा को थोड़़ा तल्ख करते हुए कहा - ‘ नौजवान। इस समय तुम्हे हमारी बाते समझ नहीं आयेगी। तुम पर नेतागिरी को भूत सवार है। लेकिन यह समझ लो मैं तुम्हारी योग्यता की कद्र करता हूॅ। तो तुम्हारा भविष्य बिगाड़ भी सकता हॅॅू। तुम कल तक समझ जाओ तो ठीक नही ंतो मैं खुद अपने हाथ से तुम्हारे कागजो में रेडमार्क लगा दूंगा और तुम दुनिया में कहीं भी नौकरी नहीं कर पाओगे। जहां तक मजदूरो की बात उनको तो मै देख लूंगा। कल शाम तक का समय तुम्हारे पास है। कल मैं फिर आऊंगा। अब तुम जा सकते हो।’ शांतिलालजी ने यह कहते हुए झटके के साथ फाईल बंद कर खड़े हो गये। तेजस भी खड़ा होकर मजदूरो की सभा की ओर चल दिया।  

  आज 8 तारीख थी। फैक्ट्री में हमेंशा की तरह काम हो रहा था। सभी मजदूर अपनी मशीनो पर काम कर रहे थे। तेजस भी मजदूरो के काम की पूरी देखरेख कर रहा था। यह जरूर था आज मजदूरो ने दोपहर की छुट्टी नहीं की। दिनभर फैक्ट्री में काम चलता रहा । रात होने के बाद भी फैक्ट्री में काम चल रहा था। रात के 8 बजे शांतिलाल जी की गाड़ी कंपनी के स्वागत कक्ष के सामने आकर रूकी। शांतिलाल जी के साथ उनका मैनेजर भी उनके साथ था। शांतिलाल जी ने मैनेजर से कहा ‘ तेजस की फाईल लाओ और मै जैसे बता रहा हूॅ। वैसे उसे नौकरी से हटाने का आदेश बनाओ। ’ यह कहते हुए शांतिलालजी वहां उनके लिए अलग से बने कक्ष की ओर जाने लगे। लेकिन मशीनो की घड़ घड़ की आवाज सुनकर उनके कदम रूक गये। उन्हाने मैनेजर को वापिस आवाज लगाई और कहा - ‘ जाओ देखकर आओ फैक्ट्री से इतनी रात को यह कैसी आवाज आ रही है। ’ मालिक आदेश पाते ही मैनेजर दौड़कर फैक्ट्री की ओर गया। इसी बीच शांतिलाल जी अपने कक्ष मे जाकर बैठ गये।  
 

  शांतिलालजी कुर्सी पर बैठकर वहां पड़ा अखबार टटोल ही रहे थे कि मैनेजर फैक्ट्री से लौटकर आ गया। शांतिलाल जी ने नजरे अखबार में गढ़ाये हुए ही कहा - ‘ क्या खबर लाये। इतनी रात को फैक्ट्री में कैसी आवाज है। कहीं मजदूर तोड़फोड़ तो नहीं कर रहे है। ’ 

‘ नहीं बाॅस। मजदूरो ने कहा है कि वे हड़ताल पर है और जब तक हमारी मांगे पूरी नहीं होगी। हम लगातार काम करते रहेगे। उन्होने काफी माल भी तैयार कर दिया है। वे सुबह से लगातार काम कर रहे है सर। ’ 

मैनेजर की बात सुनकर शांतिलाल जी ने आश्चर्य से पूछा- ‘ये कैसी हड़ताल है।’

‘ सर! मजूदरो को कहना है कि तेजस भैया ने ही बताया है । यह नये जमाने की हड़ताल है। जब तक मांगे पूरी नहीं होगी हम काम करते रहेगे। ’ 

  यह सुनकर शांतिलाल जी खिड़की की ओर गये। खिड़की खोलते ही मशीनो की घड़ घड़ की आवाज आ रही थी। खिड़की तरफ मुंह किये हुए मैनेजर से कहा - ‘ जाओ और सभी मजदूरो से कह दो कि काम बंद कर दो। उनकी सभी मांगे मान ली गई है। ’ 

  मशीनो की घड़ घड़ की आवाज अब शांतिलाल जी के कानो में मिश्री घोल रही थी। 

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

एक किनारे की नदी....(कविता).....राजीव

अचानक .........
छोड़ गई तुम मेरा साथ,
बुझा गयी अपना जीवन दीप,
बिना कुछ कहे,
बिना कुछ सुने
कर गयी मेरे जीवन में
कभी न ख़त्म होनेवाला
अँधियारा .........

जन्म-जन्मान्तर के लिए थामा था
तुमने मेरा हाथ ,
वेदी पर बैठ खाई थी कसमें
संग जीने ,संग मरने की ।

इतनी भी क्या जल्दी थी,
ऐसी भी क्या थी बात ,
जो मुझे छोड़ गयी -जीवन के दोराहे पर
यादों के अंतहीन सुरंग में
आखिरी सांस तक
भटकने के लिए ।

क्या करूंगा
ऐसा नीरस और निरर्थक जीवन
जिसमें तुम नहीं ,
तुम्हारा साथ नहीं ।
कैसे कटेगा दिन,
कैसे कटेंगी रातें
तेरे बिना!

हर पल-हर क्षण
याद आएगी तू,
तेरे साथ कटा जीवन,
तेरे साथ बटी बातें ,
घर के भीतर,घर के बाहर ,
हर जगह, हर- वक्त,
बस तू ही नजर आएगी ,

तेरा जाना
किसी भूचाल से कम नहीं
मेरे लिए ,
जिसने सारी आशाएं,
सारे अरमान धराशायी कर दिए मेरे ,
तोड़ दिए सपने सुहाने ,
जो देखे थे हमने साथ बिताने।

बेसहारा कर गयी मुझे
जब सहारे की जरूरत थी ।
तेरे बिन ठहर गई है रातें ,
ठहर गया है दिन ।

तेरा जाना........
सुनामी बन जायेगा
मेरे जीवन का
कभी सोचा ना था
और
मैं बनकर रह जाऊँगा
यादों की उछाल लेती लहरों पर
तैरती
जिन्दा लाश ।

दो किनारे थे हम - मैं और तुम ,
एक नदी के ।
एक किनारे की
नदी नहीं होती।

डंक मारते हैं बिच्छू की तरह ,
डसते हैं नाग सा ,
भर देते हैं जेहन
यादों के जहर से ।


तुम्हारी यादें
मुझे चैन से जीने नहीं देंगी ,
हर-पल झपट्टा मारती रहेंगी मुझपर,
चील-कौवों की तरह
और
नोंच -नोंचकर खाती रहेंगी
मेरे अस्तित्व को ,
खोखला करती रहेंगी
मेरा तन- मन ।

समय
ये घाव
कभी नहीं भर पायेगा ,
नहीं लगा पायेगा कोई मरहम,
मेरे जख्मों पर ।

कोई और नहीं ले पायेगा
तुम्हारी जगह
हर जगह
तुम-ही-तुम नजर आओगी मुझे,
हर-पल गूंजेगी मेरे कानों में
तेरी आवाज ,
हर-पल याद आएगा
तेरा साथ ।
कैसे भागूँगा
इस हकीकत से ,
उस हकीकत से ।

बच्चों में नहीं ढूंढ़ पाऊंगा
तेरा पर्याय ,
भीड़ में रह जाऊंगा,
बेहद अकेला।
रह जाएँगी मेरे साथ
ढेर सारी यादें
मेरे जाने तक
रुलाने के लिए , गुदगुदाने के लिए ......

राजनीति मे न्यूनतम शिक्षा का मापदंड होना ज़रूरी है .....कवि दीपक शर्मा

बहुत पुरानी कहावत है कि "विद्या ददाति विनयम्" .आप सबको इस श्लोक की यह पंक्ति ज़रूर याद होगी .जीवन के प्रारंभ मे ही इस तरह की पंक्तियाँ विधालय मे हर छात्र को पढाई जाती हैं .यह सब इसलिए नहीं कि हम पदकर परीक्षा उतीर्ण कर लें और अगली कक्षा मे पहुँच जाएँ.अपितु ये हमारी बौद्धिक बुनियाद को सुद्रढ़ करने के लिए हैं और यह समझाने का प्रयास है कि जितना पढोगे और जैसा अच्छा पठन होगा जीवन उतना ही सरल ,उत्तम और परिपक्व होगा .जिसका लाभ इस समाज को मिलेगा और समाज इस कारण उन्नति करेगा. फिर समाज के साथ साथ देश भी तरक्की करेगा .मतलब देश के साथ साथ आम आदमी का गौरव भी बढेगा या आप इसे उल्टा भी कह सकते हैं की आम आदमी के साथ साथ देश का गौरव भी बढेगा .बात को किसी भी तरह से कह लीजिये लौट कर वहीँ आ जायेंगे "विद्या ददाति विनयम्" .

राजतंत्र मे पहले राजा के सिपहसालार और मंत्री अपनी एक ख़ास पहचान रखते थे और जो भी जिस विद्या या कला ने निपुण होता था उसे उसी की क्षमता के लिहाज से विभाग बाँट दिए जाते थे .वहां केवल गुण और निपुणता मायने रखती थी ना की आरक्षण और सिफारिश या वर्ण भेद या ज़ाति विशेषता. सब अपनी अपनी कला मे माहिर और निपुण .राजा भी उनकी बात को गौर से सुनता था और उनकी सलाह से निर्णय लेता था . कई कई भाषाओ का ज्ञान होता था राजा को ,मंत्री को और रणनीतिकारों को .उसकी वजह थी कि विभिन्न भाषा -भाषी प्रजा कि बात समझना और उनकी बेहतरी के लिए निर्णय लेना .

कहने का तात्पर्य यह है कि राज्य के कर्णधार अति शिक्षित होते थे और समय के हिसाब से निर्णय लेते थे .एक उम्र के बाद जब शारीरिक और मानसिक शक्तियां क्षीर्ण होने लगती हो अपने यथा योग्य उत्तराधिकारी को सब अधिकार देकर संन्यास आश्रम मे प्रवेश कर लेते थे . और शायद यही उस राज्य या क्षेत्र की उन्नति का कारण था .जितना शिक्षित राजा और राजा का मंत्रिमंडल और सभासद उतना की उन्नत साम्राज्य . बिना किसी आदेश के और नियम के यह परिपाटी चलती रही और शासन चलता रहा .जिस किसी भी राजा ने इस नियम का पालन नहीं क्या वो इतिहास भी ना बन सका और इतिहास के पन्नो मे ही खो गया .आज हम सिर्फ उन्ही राजा महाराजाओं को याद करते है जो समाज मे अपनी पहचान छोड़ गए.
समय ने करवट ली और प्रजा ही राजा बन गई .लेकिन हम इस राजसत्ता की चाहत मे बहुत कुछ पीछे छोड़ आये . आरक्षण ,वर्णवाद ,जातिवाद ,धर्मवाद ,क्षेत्रवाद ,वंशवाद ना जाने क्या क्या समां गया हमारी राजनीति मे और देश एक अँधेरे कुँए मे गिरता रहा .आज तो हालत यह हो गए की पता ही नहीं चल रहा कि राजनेता कौन हैं और मूढ़ कौन .सिर्फ ज़ाति,धरम ,वंश ,क्षेत्र ,भाषा के नाम पर राजनेता चुन कर आते हैं और किस भाषा का प्रयोग करते हैं आप सब से तो छिपा ही नहीं है."मतलब देश लगातार दुखों को सह रहा है."

जब इस देश मे हर पद ,ओहदे और पदवी के लिए एक शारीरिक ,शेक्षिक,और आयु का मानदंड है तो राजनीति मे क्यों नहीं?यह बात आज तक गले के नीचे नहीं उतरती.राजनीति मे भी एक माप्दंध होना चाहिए कि कोई भी नेता पहले एक स्नातक या समकक्ष हो और मंत्री पद के लिए उसके पास उस क्षेत्र की परा स्नातक योग्यता या समकक्ष तकनीकी निपुणता हो और जिस विभाग का मंत्रिपद उसे दिया जा रहा है उसका उपमंत्री पद का कुछ वर्ष का अनुभव हो .राजनेता का शारीरिक मापदंड भी निर्धारित किया जाए.हर सरकारी और गैर सरकारी कर्मियों की तरह इनका भी वार्षिक आंकलन किया जाए .जितने दिन यह अपने संसदीय क्षेत्र या संसद मे अनुपस्थित रहे इकना भी वेतन कटा जाए.अगर निर्धारित मानदंड से नीचे पाया जाए तो इनकी सदस्यता तत्काल से समाप्त कर दी जाये.
आप सब सोच कर हंस रहे होगे की यह भी किया अनाप शनाप लिखे जा रहा है .परन्तु मेरे मित्रों यह तो करना की होगा अगर कल का सवेरा देखना हैं."रथ को तेज़ दौड़ाना है तो घोडों के साथ साथ सारथी भी निपुण और चतुर होना चाहिए.

मेरी साँसों में यही दहशत समायी रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा ।

यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा ।

जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पे ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा ।

मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा ।

मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो , ज़रा अमन का क्या होगा ।

अहले -वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है देख लो फिर दामन का क्या होगा ।

ना जाने कितने ही नेताओ की शेक्षिक योग्यता किसी सरकारी दफ्तर के एक चतुर्थ श्रेणी कर्मी से कम है और वो देश के कर्णधार बने हुए हैं .जिनका अपना बौद्धिक विकास नहीं हुआ वो क्या सोच सकते हैं देश के विकास के बारें मे .यह तो कुछ वैसा ही हो गया कि एक ज़र्राह किसी के ह्रदय की शल्य चिकित्सा कर रहा हो .आप स्वं ही अनुमान लगा लें की परिणाम क्या होगा.जब एक कील बनाने वाला विमान बनाने की सलाह देगा तो परिणाम की अपेक्षा करना भी जुर्म हैं.

आज रोज़ अखबार मे राजनेताओ की गाली गलौज और एक दूसरे पर उलाहना और अपमान पढने और सुनने को मिलता है .सड़कों पर खुले आम आरोप प्रत्यारोप और वो भी अभद्र भाषा मे .सोचकर ही दर लगता है कि आने वाले दिन कितने भयाभय है. ज़रा कल्पना कीजिये .यह सब उनकी योग्यता के हिसाब से नहीं है और कुपात्र को जब सत्ता मिल जाती है तो उसे कुछ भी याद नहीं रहता वो पहले अपना घर भरता है और बाद मे दूसरों से लड़ता है .हर सही निर्णय उसे गलत नज़र आता है क्योंकि उसके सिपहसालार द्वारा निर्णय उसे समझ नहीं आता और फिर अपने राजनेता या मंत्री होने का भी तो उसने अधिकार प्रयोग करना है .बस अपनी सोच से वो उसे संशोधित कर देता है और हो जाती है एक ज़र्राह द्वारा शल्य चिकित्सा और परिणाम मे मिलती है मृत देह. इन्ही ज़र्राहों कि शल्य चिकित्साओं से देश ही देह रोज़ चिर रही है.

कम लिखे को ज्यादा समझें और लेख नहीं इशारा माने .आप सब खुद इस देश के जिम्मेदार नागरिक हैं

झूठ-मूठ.....कविता.....- कुमार विश्वबंधु

जो कहा
सब झूठ

जो लिखा
सब झूठ

जो सोचा
सब झूठ

जो जिया
झूठ-मूठ

इस बाज़ार में
उड़ रहे हैं रुपये
गिर रहे हैं लोग !

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

जाने वाले कभी नही आते ....मोनिका गुप्ता

जी हाँ ... एक कटु सत्य है.. जाने वालो की बस याद आती है .. वो कभी नही आते .. लेकिन हम फिर भी इस बात को समझ ही नही पा रहे है .. हाल ही मे दिशा की सास बहुत बीमार चल रही थी पर वो उनसे मिलने एक बार भी नही गई ... ना ही फोन पर बात की ना हाल पूछा .. अचानक वो एक दिन मर गई .. फिर तो उसकी हालत देखने वाली थी .. इतना रोई ...इतना रोई कि बस ..अब ये सारा ड्रामा ही लग रहा था ...भले ही उनके जाने के बाद उसके दिल मे प्यार जाग गया हो ..पर अब तो कुछ नही हो सकता ..सोचने वाली बात यह है कि जब आदमी जिन्दा होता है तब हम उसकी कद्र क्यो नही करते ...उसे वो सम्मान क्यो नही देते जिसके वो हकदार है हो सकता है हमारे द्वारा अगर वो इज्जत मिली होती तो शायद वो इतनी जल्दी मरे ही ना होते .. आज हमारे ही बीच मे होते ..यही बात मीडिया पर भी लागू होती है ...जब वो आदमी जिन्दा होगा तब उसकी खैर खबर लेने कोई नही आएगा पर जहाँ वो मरा नही .. पूरा मीडिया वहाँ इक्कठा होकर दिन रात ब्रेकिंग न्यूज बनाएगा ..भले आदमियो ....अगर पहले ही उन पर ध्यान दे देते ...उनका और उनके कामो का प्रचार ही कर देते तो शायद उनके मरने की नौबत ही ना आई होती ..वो शायद मरे ही इस वजह से है कि इतना करने के बाद भी उनकी वो पहचान नही बनी जिसके वो हकदार थे ..इसलिए हे मृत्यु लोक के वासियो ...जीवन की डोर बडी कमजोर ना जाने कब छूट जाए... इस जीवन मे रहते हुए सभी का आदर करो ..सम्मान दो .. खुशी दो .. और समय दो .. ताकि बाद मे यह ना कहना पडे कि काश मै उनकी फलां इच्छा पूरी कर पाता .. काश ये .. काश वो ....जरा सोचिए ....

समीक्षा—— कृति --शूर्पणखा-----


समीक्षा—— कृति --शूर्पणखा -(अगीत विधा- खंड काव्य), रचयिता—डा श्याम गुप्त-

समीक्षक---मधुकर अस्थाना, प्रकाशन—सुषमा प्रकाशन , आशियाना एवम

अखिल भारतीय अगीत परिषद, लखनऊ, मूल्य-७५/=



नारी विमर्श का खन्ड-काव्य : शूर्पणखा

समकालीन साहित्य में नारी-विमर्श बहुत महत्वपूर्ण होगया है, इस सम्बन्ध में विभिन्न विधाओं में पर्याप्त सृजन किया जा रहा है, जिसमें नारी स्वतन्त्रता, समानता के साथ ही उसका मनोविश्लेषण भी प्रस्तुत करने का भरपूर प्रयास किया जारहा है। वस्तुतः विश्व की आधी जनसंख्या होने के बावज़ूद नारी को पुरुषों की भांति स्वाधीनता प्राप्त नही है और उसका हर प्रकार से शोषण किया जारहा है।नारी समुदाय का ७५% प्रतिशतशिक्षा व अज्ञान के अंधेरे में जीने को विवश है। नारियों को उचित प्रतिनिधित्व देने के सम्बन्ध में अभी तक संसद में भी कोई कानून व नियम नहीं बन सका है। विदेशों में जहां विकास उत्कर्ष पर है ,वहां परिवार टूट रहे हैं, परिवार विघटन पर हैं, जनसंख्या मे असंतुलन बढ रहा है। इन परिस्थितियों में डा.श्याम गुप्त का यह खन्ड काव्य “शूर्पणखा” अत्यंत महत्वपूर्ण होजाता है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने अनेक एसे प्रश्न उठाये हैं जो विघटन कारी हैं एवम उनके समाधान को खोजने का भी प्रयास किया है। डा गुप्त ने इस खन्ड काव्य मे उन्मुक्त एवं उच्छ्रन्खल नारी तथा भारतीय संस्कृति -सभ्यता के अनुरूप आदर्श नारी का भी विशद वर्णन किया है जो समाज़ को उचित दिशा देने में समर्थ है।

सहज़ सरल प्रवाहपूर्ण प्रसाद-गुण संपन्न, संप्रेषणीय भाषा, नवीनतम शिल्पविधान-- संस्कृत के वर्णवृत्त छंदों के समान छ: पंक्तियों में कथ्य की निबद्धता आदि पाठकों को प्रत्येक द्रष्टि से नूतनता का परिचय देती है। रचनाकार ने इस काव्य में अपनी मौलिकता सूझ-बूझ का उपयोग करते हुए अपनी भाषा,शिल्प, कथ्य व शैली का स्वयं विकास किया है जिसे किसी विशेष विधा से जोडना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। भारतीय संस्कृति -सभ्यता से नहाया हुआ डा गुप्त का अन्तर्मन –पुरुष व नारी दोनों की गरिमा पर ध्यान देते हुए एसा मध्य मार्ग चिन्हित करता है जो भारतीय परिस्थिति के तो सर्वथा अनुकूल है ही, यदि पूरे विश्व में इसका समुचित प्रचार-प्रसार होजाये तो उसकी तीन-चौथाई समस्याओं का समाधान होजाये ।यद्यपि डा श्याम गुप्त ने आजीविका के लिये शल्यक के पद पर कार्य किया एवम रेलवे से वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक पद से सेवा निवृत्त हुए किन्तु भारतीय संस्कृति व साहित्य में विशेष अभिरुचि के कारण निरंतर अध्ययनशील रहे । वे अनेक साहित्यिक संस्थाओं के केन्द्र बिन्दु हैं,

२.

हिन्दी साहित्य में प्रचलित लगभग समस्त विधाओं में वे सिद्धहस्त लेखन में संलग्न हैं। सेवा निवृत्ति के उपरान्त अल्पकाल में हे उन्होंने हिन्दी जगत में चर्चित स्थान बना लिया है। स्वाध्याय को समर्पित उनके द्वारा प्रस्तुत स्थापनाएं, आम आदमी का मार्ग प्रशस्त करती हैं, उनके

विचार से समाज़ में विश्रन्खलता व विघटन का मूल कारण मानव मन में नैतिक बल का अभाव है। अति भौतिकता,महत्वाकांक्षा, के सम्मुख नैतिकता, सामाज़िकता, धर्म, अध्यात्म, व्यवहारिक शुचिता, धैर्य, समानता, संतोष, अनुशासन आदि मानवीय गुणों का संतुलन समाप्त होजाता है। डा गुप्त के अनुसार शास्त्रकारों ने कहा है—

“आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः।

तज्जय: संपदां मार्गो येनेष्ट तेन गम्यताम ॥“

अर्थात इन्द्रिय असंयम को विपत्ति तथा उन पर विजय को संपत्ति का मार्ग समझना चाहिये; दोनों पन्थों का विचार करके ही उचित मार्ग पर चलना चाहिये। अतीत के संदर्भों में वर्तमान के प्रासन्गिक प्रश्नों से झूझते हुए इस क्रति में कवि ने नारी-मुक्ति आंदोलनों के नाम पर होरहे आन्तरिक अनाचार, भ्रष्टाचार को भी तटस्थ रूप से व्यक्त किया है। विद्रूपताओं से युक्त पाश्चात्य जीवन शैली का प्रभाव भारत पर भी पडा है एवम तलाक, वाइफ़ स्वेपिन्ग आदि की घटनाएं बढी हैं। अनुचित कार्यों के प्रतिरोधक- स्वयं की अंतरात्मा, समाज़ का भय, परिवार का ्डर, कानून का निषेध आदि निरर्थक सिद्ध होरहे हैं। एसी विषम परिस्थिति में इस रचना का महत्व और बढ जाता है।

नौ सर्गों में विभक्त यह खन्ड काव्य पारम्परिक शैली में प्रारम्भ होता है। वंदना में भी संपूर्ण विश्व की कामना निहित है। कवि का फ़लक विशाल है जिसमें संपूर्ण श्रष्टि समाहित रहती है – “ग्यान भाव से सकल विश्व को ,करें पल्लवित मातु शारदे” मानव कल्याण भाव से ही इस काव्य का सृजन किया गया है,ताकि लोग इसे पढकर उचित-अनुचित, स्वच्छंदता-अनुशासन, सुकर्म-कुकर्म, सदाचरण- कदाचरण में अन्तर और उनके दुष्परिणामों से अवगत हॊं;” पूर्वा-पर’ में वे शूर्पणखा के चरित्र का परिचय देते हैं-

“सुख विचरण, स्वच्छंद आचरण / असुर वंश की रीति नीति युत / नारी की ही

प्रतिकृति थी वह ।“

स्वतंत्रता एक सीमा तक तो उचित है, परंतु समाज़ में अनुशासन व मर्यादा भी है; केवल नारी ही नहीं , पुरुष के लिये भी आचरण की व्यवस्था है, जो नारी-पुरुष में संतुलन्रखती है। सर्ग अरण्य-पथ में कहा है—“पुरुष धर्म से जो गिर जाता / अवगुण युक्त वही पति करता / पतिव्रत धर्म हीन नारी को।“

सर्ग छः “शूर्पणखा” में मूल कथ्य में कवि शूर्पणखा द्वारा दानव-कुल पुरुष विद्युज्जिहव से प्रेम विवाह करलेने पर एवम रावण द्वारा उसके पति की हत्या करदेने पर उसके असामान्य मनोवैज्ञानिक रूप का चित्रण किया गया है—

“पर पति की हत्या होने पर/ घ्रणा-द्वेष का ज़हर पिये थी ।

“पुरुष जाति प्रति घ्रणा भाव में/ काम दग्ध रूपसी बनगयी/ एक वासना की पुतली वह”

राक्षस कुल , भोग वासना पद्दति में पली शूर्पणखा ने आचरण युक्त जीवन नहीं सीखा था अतः वह स्वच्छंद आचरण व कामाचार में लिप्त रहने लगी।

३.

रचना में साम्प्रदायिक जातीय दम्भ का भी रचना में संज्ञान लिया गया है जिसके कारण शूर्पणखा के पति की हत्या हुई एवम जो आगे उसके नैतिक पतन एवम विभिन्न घटनाओं का कारण बनी।

पंचवटी सर्ग में शूर्पणखा के नखशिख का वर्णन किया गया है जो उनकी सौन्दर्य-द्रष्टि का परिचायक है।---

“ सब विधि सुन्दर रूपसि बनकर/ काम बाण दग्धा शूर्पणखा…

भरकर नयनों में आकर्षण / प्रणय निवेदन किया राम से ।“

कामोन्मादित नारी किसी भी शिक्षा, नीति आचरण, उपदेश पर अमल नहीं करती। जब शूर्पणखा सीता को ही मारने दौडती है तो राम के इन्गित पर लक्षमण द्वारा उसकी नाक काट ली जाती है---“सीता पर करने वार चली/ कामातुर राक्षसी नारी ।“

“नाक कान से हीन कर दिया/ रावण को संदेश देदिया।“

तत्पश्चात राम भयभीत वन बासियों, ऋषियों ,मुनियों को आश्वश्त करते है एवम साबधान रहने का निर्देश भी देते हैं । लक्षमण को समझाते हुए संदेश देते हैं कि अति भौतिकता, अनीति, मर्यादाहीनता, स्वच्छंद सामाज़िक व्यवस्था वर्ज़ित होनी चाहिये, इससे अहन्कार व अधिक भौतिक सुख की आकान्क्षा मानव को पतन की ओर लेजाती है।----

“ यह ही रावणत्व रावण का/ विडम्बना है शूर्पणखा की;

जिसके कारण लंकापति को/ अपनी भगिनी के पति को भी;

म्रत्यु दंड देना पडता है ? चाहे कारण राज़नीति हो।“

अन्तिम सर्ग में रावण का मानसिक चिन्तन व शूर्पणखा-मन्दोदरी संबाद है जो नई दृष्टि है। विषय एवम वर्णन की दृष्टि से समाजोपयोगी एवं प्रासंगिक यह खन्ड काव्य चिन्तन प्रधान भी है, जिसके लिये रचनाकार की विवेक सम्मत विचारशीलता की सराहना की जानी चाहिये। प्रत्येक दृष्टि से उत्कृष्ट इस खंड काव्य का निश्चित रूप से हिन्दी जगत में स्वागत होगा।



विद्यायन,एस एस १०८-१०९ मधुकर अष्ठाना

सेक्टर-ई,एल डी ए कालोनी व. साहित्यकार व नवगीतकार

कानपुर रोड, लखनऊ-२२६०१२

९४५०४४७५७९

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

तस्वीर .....(कविता) ..नीशू तिवारी


मंदिरों की घंटियों की गूँज से ,
शंखनाद की ध्वनियों से

वीररस से भरे जोशीले गीत से
नव प्रभात की लालिमा ली हुई सुबह से ,
कल्पित भारत वर्ष की छवि
आँखों में रच बस जाती है
लेकिन
नंगे बदन घूमते बच्चों को ,
कुपोषण और संक्रमण से जूझती
गर्भवती महिला को
और
चिचिलाती धुप में मजार पर बैठा
गंदे और बदबूदार उस इन्सान को
तो बदल जाती है
आँखों में बसी तस्वीर ,
फिर सोचता हूँ
इस भीड़ तंत्र के बारे में ,
जो
व्यवस्था और व्यवस्थापक के बीच
लड़ रहा है
दो जून की रोटी को ,
तब
बदल जाती हैं परिभाशायें
जो समझाती है
आकडे की वास्तविकता को
जिसमें सच नहीं
झूठ का पुलिंदा बंधा है हमारे लिए
महसूस करता हूँ
दर्द और कलह की वेदना को,

सुख और दुःख के फासले को
जो दिखा रहा है दर्पण
तमाम झूठी छवियों का ,
जिसमे असंख्य प्राणियों के
संघर्ष को बेरहमी से कुचल दिया जाता है
क्यूँ की
दर है तानाशाहों को
की कही न हो जाये पैदा
और खतरे में न पड जाये आस्तित्व
इसलिए
इनको ऐसे ही जीने दो ...

रविवार, 11 अप्रैल 2010

महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन की १०७ वीं जयंति.........रौशन जसवाल


हिमाचल साहित्यकार सहकार सभा ने ९ अप्रेल को महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन की १०७ वीं जयंति पर बिलासपुर में साहित्यक सभा का आयोजन किया! तीन सत्रों मे आयोजित इस सभा में सांस्कृत्यायन के व्यकितत्व और कृतित्व पर विचार विमर्श हुआ तथा लेखक गोष्ठी, पत्र वाचन और कवि पाठ क आयोजन किया गया! आयोजन के मुख्यातिथि थे हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड के सचिव प्रभात शर्मा और कार्यक्रम की अध्य्क्षता हिमाचल के व्योवृद्ध वरिष्ठ रचनाकार संत राम शर्मा ने की! इस अवसर पर बिलासपुर की ज़िला भाषा अधिकारी डा० अनिता शर्मा भी उपस्तिथ थी!
लेखक गोष्ठी में साहित्य्कात सभा के अध्यक्ष रतन चंद निर्झर ने राहुल सांस्कृत्यायन के हिमाचल पर लेखन पर विवेचना की और मन्डी के जगदीश कपूर ने विवेचना पर अपने विचार व्यक्त किये! आयोजन के दूसरे चरण में हिमाचल पत्रकार संघ के अध्यक्ष जय कुमार ने हिमाचल के साहित्य की प्रगति पर अपना पत्र वाचन किया!
तीसरे चरण में काव्य पाठ का आयोजन किया गया! इस सत्र में देहरादून के तेज पाल नेगी, चण्डीगढ़ के रतन चंद रत्नेश, आलमपुर कांगडा़ के प्रीतम आलमपुरी, चम्बा के अशोक दर्द, हमीरपुए के नरेश राणा, सुंदरनगर के सुरेश सेन निशांत और पवन चॊहान, पद्दर मंडी के कृष्ण चंद महादेविया, मंडी के जगदीश कपूर, सोलन के प्रो० नरेन्द्र अरुण, बल्देव चॊहान ने काव्य पाठ किया जबकि बिलासपुर के स्थानिय कवियों मेम अनुप मस्ताना, सुशील पुंडेर, रतन चंद निर्झर, प्रदीप गुप्ता, अरुण डोगरा रितु, रवि सांख्यायन, जगदीश जमथली, शक्ति उपाध्याय, राम लाल पुंडीर, कु० सुरभि शर्मा और स्वंत्रता सैनानी के० एल० दबड़ा ने काव्य पाठ किया!
इसी आयोजन में हिमाचल साहित्यकार सहकार सभा ने प्रतिवर्ष ९ अप्रेल को सांस्कृत्यायन जयंति पर साहित्यिक आयोअजन करने, और उनके सम्मान में साहित्यिक पुरस्कार शुरु करने और क्षेत्रिय स्तर पर हिमाचल साहित्यकार सहकार सभा के आयोजन करने के निर्णय लइये गये ! सभा ने हिमाचल विधान सभा में पहाडी़ बोली के विकास के निर्णय पर खुशी जाहिर करते हुए सरकार का अभार व्यक्त किया गया!
सभा का निकट भविष्य में सहयोगी आधार पर काव्य और लघु कथा संकलन निकालने की योजना है! सभा का पता है
रतन चंद निर्झर, अध्यक्ष, हिमाचल साहित्यकार सहकार सभा, मकान न० २१०, रौड़ा सेक्टर २, बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

मानता हूँ ......(कविता ).......नीशू तिवारी

"प्रेम के वशीभूत होकर
सात फेरे में बधनें के
अपराध की सजा
जिन्दा जला कर दी जाती है
लेकिन
खापों और पंचायतों के
कूर्र्तापूर्ण फैसले को
इसकी परिणति
नहीं मानता हूँ


"दर्द से तड़पता
हादसे का शिकार हुआ इन्सान
दम तोड़ देता है
इलाज के आभाव में
लेकिन
मानवता के दंश व अभिशाप
के बीच
दर्दनाक मौत को ,
चटकारे लेकर पढ़ा जाना
साहस नहीं
कायरता मानता हूँ"


"दंतेवाडा में सैनिक
खून की होली खेल
शहीद हो जाता है
लेकिन
तानाशाहों की
नम आँखों को
गहरे जख्मों पर
मरहम नहीं
प्रहार मानता हूँ"

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

मोहब्बत....( ग़ज़ल )....कवि दीपक शर्मा


मोहब्बत के सफर पर चलने वाले राही सुनो,
मोहब्बत तो हमेशा जज्बातों से की जाती है,
महज़ शादी ही, मोहब्बत का साहिल नहीं,
मंजिल तो इससे भी दूर, बहुत दूर जाती है ।

जिन निगाहों में मुकाम- इश्क शादी है
उन निगाहों में फ़कत हवस बदन की है,
ऐसे ही लोग मोहब्बत को दाग़ करते हैं
क्योंकि इनको तलाश एक गुदाज़ तन की है ।

जिस मोहब्बत से हजारों आँखें झुक जायें ,
उस मोहब्बत के सादिक होने में शक है
जिस मोहब्बत से कोई परिवार उजड़े
तो प्यार नहीं दोस्त लपलपाती वर्क है ।

मेरे लफ्जों में, मोहब्बत वो चिराग है
जिसकी किरणों से ज़माना रोशन होता है
जिसकी लौ दुनिया को राहत देती है
न की जिससे दुखी घर, नशेमन होता है ।

मेरे दोस्त ! जिस मोहब्बत से परेशां होना पड़े
मैं उसे हरगिज़ मोहब्बत कह नहीं सकता
नज़र जिसकी वजह से मिल न सके ज़माने से
मैं ऐसी मोहब्बत को सादिक कह नहीं सकता ।

मैं भी मोहब्बत के खिलाफ नहीं हूँ
मैं भी मोहब्बत को खुदा मानता हूँ
फर्क इतना है की मैं इसे मर्ज़ नहीं
ज़िन्दगी सँवारने की दवा मानता हूँ ।

साफ हरफों में मोहब्बत उस आईने का नाम है
जो हकीकत जीवन की हँस कर कबूल करवाता है
आदमी जिसका तस्सव्वुर कर भी नहीं सकता
मोहब्बत के फेर में वो कर गुज़र जाता है ।

ग़ज़ल....मोनी शम्सी

गमों की धूप से तू उम्र भर रहे महफ़ूज़,
खुशी की छांव हमेश तुझे नसीब रहे.

रहे जहां भी तू ऐ दोस्त ये दुआ है मेरी,
मसर्रतों का खज़ाना तेरे करीब रहे.

तू कामयाब हो हर इम्तिहां में जीवन के,
तेरे कमाल का कायल तेरा रकीब रहे.

तू राहे-हक पे हो ता-उम्र इब्ने-मरियम सा,
बला से तेरी कोई मुन्तज़िर सलीब रहे.

नहीं हो एक भी दुश्मन तेरा ज़माने में,
मिले जो तुझसे वो बनके तेरा हबीब रहे.

न होगा गम मुझे मरने का फिर कोई ’शमसी’,
जो मेरे सामने तुझसा कोई तबीब रहे.

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

नारी .....(कविता)..... कवि दीपक शर्मा


कितनी बेबस है नारी जहां में
न हंस पाती है, न रो पाती है
औरों की खुशी और गम में
बस उसकी उमर कट जाती है

नारी से बना है जग सारा
नारी से बने हैं तुम और हम
नारी ने हमें जीवन देकर
हमसे पाए अश्रु अपरम
इन अश्रु का ही आंचल पकड़े
बस उसकी उमर कट जाती है

नारी का अस्तित्व देखो तो ज़रा
कितना मृदु स्नेह छलकाता है
कभी चांदनी बन नभ करे शोभित
कभी मेघों सी ममता बरसाता है
कुछ दी हुई उपेक्षित श्वासों में
बस उसकी उमर कट जाती है

सदियों को पलटकर देखो तो
हर सदी ने यही दोहराया है
नारी को जी भर लूटा है
नारी को खूब सताया है

इस विश्व में स्वयं को तुम
अगर मानव कहलवाना चाहते हो
नारी को पूजो , पूजो नारी को
जो फिर जीवन पाना चाहते हो।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

कल रात नींद न आई ......कविता ......नीशू तिवारी


कल रात नींद न आई
करवट बदल बदल कर
कोशिश
की थी सोने की
आखें खुद बा खुद भर आई
तुम्हारे न आने पर
मैं उदास होता हूँ जब
भी
ऐसा ही होता है मेरे साथ
फिर जलाई भी मैंने माचिस
और
बंद डायरी से निकली थी तुम्हारी तस्वीर
कुछ ही देर में बुझ गयी थी रौशनी
और उसमे खो गयी थी
तुम्हारी हसी
जिसे देखने की चाहत लिए मैं
गुजर देता था रातों को
सजाता था सपने तुम्हारे
तारों के साथ
चाँद से भी खुबसूरत
लगती थी तुम
हाँ तुम से जब कहता ये
सब
तुम मुस्कुराकर
मुझे पागल
कहकर कर चिढाती थी
मुझे अच्छा लगता था
तुमसे यूँ मिलना
जिसके लिए तुम लिखती ख़त
लेकिन
कभी वो पास न आया मेरे
और जिसे पढ़ा था मैंने हमेशा ही

तुम, मैं...और हमारी असल सूरतें...........अनिल कान्त जी

सुनो आँखें बंद करो...क्यों...अरे बंद करो ना...पहले बताओ फिर...आँखें बंद करने पर मैं तुम्हें कहीं ले चलूँगा...कहाँ...ओह हो...कहता हुआ मैं उसकी आँखों पर अपनी नर्म हथेलियाँ रख देता हूँ...मैं तुम्हें अपनी फेवरेट जगह ले जा रहा हूँ


अपने घर के पीछे का दरवाजा खोलते ही तुम दौड़ रही हो अपने पैरों तले बिछी हरी घास पर...उन पर बिखरी हल्की हल्की ओंस की बूँदें ऐसे चमक रही हैं जैसे मोती...दूर दूर तक फैला हुआ आसमान है...और उस पर अपनी खूबसूरती बिखेरता इन्द्रधनुष ऐसा लग रहा है मानों उसने अभी अभी होली खेली हो...उसे देखते ही तुम दौडी दौडी आकर मेरा हाथ पकड़ लेती हो और कहती हो वो देखो इन्द्रधनुष...कितना प्यारा है ना...तुम खिलखिला कर हंस रही हो...बिलकुल नेक दिल हँसी...जिसमें तुम शामिल हो और मैं...और तुमने उसमें इन्द्रधनुष के रंग कब शामिल कर लिए मुझे पता ही नहीं चला

हरी घास के एकतरफ बनी हुई पगडंडियों पर तुम नंगे पैर दौडे जा रही हो और मैं तुम्हारे पीछे पीछे चल रहा हूँ...कहीं तुम गिर ना जाओ इस बात से भी डर रहा हूँ...पर तुम यूँ लग रही हो जैसे हवा ने तुम्हारा साथ देना शुरू कर दिया है...रास्ते में खड़े वो मुस्कुराते हुए बाबा तमाम रंग बिरंगे गुब्बारे लेकर खड़े हुए हैं...हरे, लाल, पीले, गुलाबी, नीले...हर रंग में रंगे हुए गुब्बारे...तुम उन्हें देखकर ऐसे खुश हो रही हो जैसे एक मासूम बच्ची...उन गुब्बारों में एक रंग मुझे तुम्हारा भी जान पड़ता है...मासूमियत का रंग...या शायद प्यार का रंग...या फिर ख़ुशी का रंग

जानता हूँ तुम्हें वो गुब्बारे चाहिए इसी लिए तुम मेरे पास आकर मेरा हाथ पकड़ कर चल दी हो...तुम्हें गुब्बारे मिल जाने पर तुम कैसे दौडी दौडी जा रही हो उन गुब्बारों के साथ...और एक ही पल में तुमने उन गुब्बारों को छोड़ दिया है...बिलकुल आजाद...किसी पंक्षी की तरह वो उडे जा रहे हैं या शायद तुम्हारी तरह...ना जाने किस देश...और पास आकर तुम जब ये पूंछती हो कि ये उड़ कर कहाँ जाते हैं...मैं बस मुस्कुरा भर रह जाता हूँ...तुम कहती हो बोलो ना...मेरी मुस्कराहट देखकर तुम फिर बाहें फैलाये दौड़ने लगती हो

आगे तुम्हें सेब का बाग़ दिख जाता है और तुम दौड़ती हुई उसमें चली जाती हो...और कहीं छुप जाती हो...मेरे वहाँ पहुँचने पर तुम आवाज़ देती हो...कहाँ हूँ मैं...और फिर तुम्हारी खिलखिलाती हँसी गूँज जाती है...बिलकुल पंक्षियों के चहचहाने की आवाज़ में घुली सी लगती है तुम्हारी हँसी...और तुम पेडों की ओट में छुपी हुई बार बार मुझे आवाज़ देती हो...कभी इस पेड़ के पीछे तो कभी उस पेड़ के पीछे...जानता हूँ तुम्हें लुका छुपी का खेल बहुत पसंद है...शुरू से अब तक...और मेरे थक जाने पर कैसे अचानक से पीछे से आकर तुम मुझे अपनी बाहों में थाम लेती हो...और फिर मेरे सीने से लग जाती हो...मैं तुम्हें बाहों से पकड़ कर हवा में झुलाता हूँ...और फिर तुम सेब तोड़ कर पहले खुद चखती हो और मुझे देती हो कि खाओ बहुत मीठा है...

पास ही बह रही नदी जो ना जाने कहाँ दूर से चली आ रही है...और ना जाने कहाँ जा रही है...शायद कुछ गाती सी...हाँ कुछ गाती सी ही लग रही है...उसका संगीत सबसे मीठा है...पास ही की उस बैंच पर तुम मेरा हाथ पकड़ कर ले जाती हो...और उस पर बैठते ही तुम मेरे सीने पर अपने सर को रख लेती हो...हम बहुत देर तक खामोश यूँ ही नदी के बहने को देखते रहे...उस पानी में उसके अन्दर के छोटे छोटे पत्थर साफ़ दखाई दे रहे हैं...और वो रंग बिरंगी मछलियाँ जिन्हें देख कर तुम्हारे लवों पर मुस्कराहट सज गयी...जिनसे तुम्हारे लवों की मिठास बढ़ गयी सी लगती है

हम यूँ ही घंटो चुप चाप से खामोशी में एक दूसरे से बातें करते रहे...फिर तुम कहती हो कि तुम्हें नदी में नहाना है...मैं तुम्हें मना नहीं कर सकता ये तुम जानती हो...जानता हूँ भीगने पर तुम्हें सर्दी भी लग सकती है...तुम नदी के पानी में चली जाती हो...तुम और तुम्हारे कपडे भीग चुके हैं...हाथ देकर तुम मुझे बुलाने लगती हो...आओ ना...और हम दोनों बहुत देर तक उसमें नहाते रहते हैं...आस पास के पेडों पर से पंक्षी हमारा नहाना देख रहे हैं...और उन पर नज़र जाते ही तुम शरमा जाती हो और मेरे सीने से लग जाती हो...उन पलों में तुम्हारे लवों की मिठास का एहसास मुझे होता है...हमारी साँसे एक दूसरे में घुल सी जाती हैं...

पास के ही पत्थरों से बने टीले पर सूरज गुनगुनी धूप देकर जा रहा है...शायद कहीं से इकट्ठी कर कर लाता हो...हम अपने अपने कपडों को उस गुनगुनी धूप में पत्थरों पर बिछाकर सूखने के लिए छोड़ देते हैं...उतनी प्यारी गुनगुनी धूप में लेटने का हम लुत्फ़ ले रहे हैं...पास ही में रखे हुए रंगों से तुम रंगोली बनाने लग जाती हो और बार बार मुझे मुस्कुरा कर देखती हो...और मेरे कहने पर कि क्या देख रही हो...तुम कहती हो कि तुम्हारी आँखों से ख्वाब चुरा चुरा कर उनमें रंग भर रही हूँ...मैं भी मुस्कुरा जाता हूँ.

हमारे कपडे सूख जाने पर हम वहाँ से चल देते हैं...सूरज डूबने लगता है...दूर नदी में डूबता सा लगता है...तुम मुझसे पूंछने लगती हो...क्या सूरज नदी में रहता है...मैं डूबते सूरज को एक बार फिर देखता हूँ...और तुम्हारे हाथों को अपने हाथों में थाम कर वापस चल देता हूँ...रास्ते में खड़े फिर वही बाबा अबकी बार आइस क्रीम बेच रहे हैं...तुम पगडंडियों पर दौड़ती हुई उनके पास पहुँचती हो...मेरे कहने पर कि तुम्हें सर्दी लग जायेगी...तुम आइस क्रीम लेने के लिए जिद करती हो.

कुछ दूर हम दोनों आइस क्रीम खाते हुए चले जा रहे हैं...वापसी में हमें गुलाबों से भरा बगीचा मिलता है...मैं जब गुलाब को तोड़ने लगता हूँ तो तुम पूंछती हो कि गुलाब को दर्द तो नहीं होगा...मैं ना में सर हिलाता हूँ...साथ चलते चलते मैं तुम्हारे बालों में गुलाब लगा देता हूँ...तुम मुस्कुराते हुए मेरी आँखों में झांकती हो...चलते चलते फिर से तुम खिलखिला जाती हो...ढेर सारी रंग बिरंगी तितलियाँ वहाँ से गुजरती हुई जा रही हैं...तुम्हारे चारों और आ आकर कुछ कह रही हैं...शायद सूरज के डूबने पर अपने घरों को जा रही हैं और तुमसे ख़ास तौर पर अलविदा कहने चली आई हैं...तुम एक तितली को अपनी हथेली पर बैठा कर कुछ बोलती हो...शायद अलविदा ही कहा होगा

खुशियाँ बिखेरती हुई तितलियाँ अपने अपने घरों को चली जाती हैं..तुमने मेरा हाथ फिर से पकड़ लिया है...और हम चहलकदमी करते हुए अपने दरवाजे तक पहुँच गए हैं...फिर तुम अचानक से मेरे गाल को चूम कर दरवाजा खोलकर अन्दर चली जाती हो...मैं भी मुस्कुराता हुआ तुम्हारे साथ आ जाता हूँ.

सुबह उठ कर तुम मेरे सीने पर अपने सर को रख कर बोल रही हो...कहाँ ले गए थे मुझे...और मैं तुम्हारे बालों को चूमकर कहता हूँ...हमारी फेवरेट जगह...तुम मुस्कुरा जाती हो

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

अगीत...........डा श्याम गुप्त

(ये प्रेम-अगीत, अतुकांत काव्य की एक विधा "अगीत" के नवीन छंद ’लयबद्ध अगीत’ में निबद्ध हैं)


(१)
गीत तुम्हारे मैंने गाये,
अश्रु नयन में भर-भर आये,
याद तुम्हारी घिर-घिर आई;
गीत नहीं बन पाये मेरे।
अब तो तेरी ही सरगम पर,
मेरे गीत ढला करते हैं;
मेरे ही रस,छंद,भाव सब ,
मुझसे ही होगये पराये।

(२)
जब-जब तेरे आंसू छलके,
सींच लिया था मन का उपवन;
मेरे आंसू तेरे मन के,
कोने को भी भिगो न पाये ।
रीत गयी नयनों की गगरी,
तार नहीं जुड पाये मन के ;
पर आवाज मुझे देदेना,
जब भी आंसू छलकें तेरे।

(३)
श्रेष्ठ कला का जो मंदिर था,
तेरे गीत सज़ा मेरा मन;
प्रियतम तेरी विरह-पीर में ,
पतझड सा वीरान होगया।
जैसे धुन्धलाये शब्दों की,
धुन्धले अर्ध-मिटे चित्रों की;
कला बीथिका एक पुरानी।

(४)
तुम जो सदा कहा करतींथी,
मीत सदा मेरे बन रहना ;
तुमने ही मुख फ़ेर लिया क्यों,
मैने तो कुछ नहीं कहा था।
शायद तुमको नहीं पता था,
मीत भला कहते हैं किसको;
मीत शब्द को नहीं पढा था,
तुमने मन के शब्द-कोश में।

(५)
बालू से, सागर के तट पर,
खूब घरोंदे गये उकेरे;
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा लेगयी;
छोड गयी कुछ घोंघे-सीपी,
सजा लिये हमने दामन में।

(६)
तेर मन की नर्म छुअन को,
वैरी मन पहचान न पाया।
तेरे तन की तप्त चुभन को,
मैं था रहा समझता माया।
अब बैठा यह सोच रहा हूं,
तुमने क्यों न मुझे समझाया ।
ग्यान ध्यान तप योग धारणा,
में, मैंने इस मन को रमाया;
यह भी तो माया-संभ्रम है,
यूंही हुआ पराया तुमसे ॥

दुम दबाकर.......(बाल कहानी) ......विमला भंडारी


काली बिल्ली ने सफेद बिल्ली को देखा और सफेद ने काली को। काली ने खुश होकर सफेद से कहा- ‘‘तुम्हें देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई।’’
‘‘मुझे भी’’ सफेद ने जवाब दिया।
‘‘कहां रहती हो?’’ काली ने पूछा।
‘‘अभी नई-नई आई हूं, रहने की जगह तलाश कर रही हूं।’’
‘‘मेरे घर रहोगी?’’ काली बिल्ली ने उससे आग्रह किया।
‘‘मैं अकेली रहती हूं तुम साथ रहोगी तो अच्छा लगेगा।’’
सफेद बिल्ली खुश होकर काली के साथ उसके घर चल दी। दोनों घर पहुंची।
‘‘वाह! तुम्हारा घर तो बहुत सुन्दर है। क्या खूब तुमने इसे सजाया है। इसमें लाईब्रेरी भी है! क्या कहने।’’ सफेद बिल्ली प्रशंसा करते हुए बोली।
‘‘मुझे पढ़ने का बेहद शौक है। अच्छी किताबे पढ़ना मुझे पसन्द है। तुम बैठो मैं खाने का कुछ लाती हूं।’’ कहती हुई काली बिल्ली रसोई में चली गई।
एक दूसरे को पाकर दोनों बिल्लियां बहुत खुश थी। काली बिल्ली को सफेद बिल्ली का रंग भा गया था और सफेद को काली का करीने से सजा घर। घर में वे सारी सुख-सुविधाएं थी जो वह चाहती थी।
सुबह काली ने सफेद को पुकारा- ‘‘उठो-उठो सुबह हो गई है।’’
‘‘ऊं हूं इतनी जल्दी! अभी थोड़ा सोने दो मुझे....।’’
कुछ देर बाद काली बिल्ली ने फिर सफेद को उठाने का प्रयास किया।‘‘उठो-उठो सफेद रानी, देखो मैं तैयार हो गई और नाश्ता भी ठण्डा हो रहा है...।’’
नाश्ते का नाम सुन सफेद बिल्ली उठ खड़ी हुई।
‘‘ये सुबह-सुबह कहां जाने की तैयारी कर रही हो काली?’’
‘‘चलो मैं तुम्हें भी ले जाना चाहती हूं। अब सुस्ती छोड़ो और फटाफट तैयार हो जाओ।’’
सफेद बिल्ली ने लम्बी जम्हाई ली और हाथ पैर मरोड़ने लगी। यह देख काली बोली- ‘‘उठो नहीं तो मुझे देर हो जायगी।’’
दोनों बिल्लियां तैयार होकर बाहर निकल पड़ी। काली सफेद को अपने खेत पर ले गई, ‘‘ये मेरा खेत है। इस बार मैंने चने की फसल बोई है।’’
सफेद आश्चर्य से आंखे मटकाती हुई बोली- ‘‘आहा! इत्ती बढ़िया फसल ऐसी लहलहाती फसल मैंने पहले कभी नहीं देखी। वाकई तुम बहुत मेहनती हो काली।’’
‘‘हां अब हम दोनों मिलकर काम करेंगी तो और अच्छी-अच्छी फसल बोएंगी। चलो ये फावड़ा लेकर तुम इस सिरे से खुदाई शुरू कर दो और मैं उस सिरे से।’’
सफेद ने बेमन से फावड़ा उठाया। अभी उसने दो-तीन फावड़े मिट्टी में चलाए ही थे कि उसे पसीना छूटने लगा।
‘‘इतनी तेज धूप बर्दाश्त नहीं होती काली।’’
‘‘हां तभी तो जल्दी आ जाती हूं। सुबह कुछ देर काम कर दिन में यहीं थोड़ा सुस्ता लेती हूं। खेती करना आसान काम नहीं है सफेद...।’’
‘‘हां बड़ी मेहनत करनी पड़ती है यह तो मैं देख रही हूं।’’ थोड़ी देर बाद सफेद बिल्ली फावड़ा छोड़ खड़ी हो गई।
‘‘तेज धूप में मेरा सिर दुखने लगा है काली।’’
‘‘लगता है तुम्हें मेहनत करने की आदत नहीं। जाओ, घर जाकर सो जाओ।’’
सफेद बिल्ली खुशी-खुशी घर की ओर चल दी। काली दिन भर खेत पर काम करके जब लौटी तो देखा सफेद बिल्ली बिस्तर पर लेटी किताब पढ़ने में मगन है। काली को देखते ही कहने लगी- ‘‘तुम आ गई, मुझे तो बहुत भूख लग रही है। मारे सिरदर्द के मैं खाना बना ही नहीं पायी।’’ ‘‘अभी बना लेती हूं’’ कहती हुई काली बिल्ली खाना बनाने में जुट गई। प्लेटो में खाना सजाकर उसने सफेद को पुकारा-
‘‘आओ खाना खा ले।’’
‘‘क्या बनाया है।’’ किताब पढ़ते हुए सफेद ने वहीं से पूछा।
‘‘चने के पत्तों की सब्जी, बस आज यहीं बना पायी हूं।’’
‘‘ऊंह! यह भी कोई खाना है।’’
‘‘जल्दी में इतना ही बना पायी। फिर मैं थकी हुई भी थी। सुबह मक्खन-रोटी बना लूंगी।’’
मक्खन-रोटी के नाम से सफेद के मुंह में पानी भर आया ‘चलो आज चने की साग खाकर ही संतुष्ट हो जाएं कल तो मक्खन रोटी मिल रही है न!’ सोचती हुई सफेद बिल्ली उठ खड़ी हुई। दोनों ने खाना खाया और सो गई। काली बिल्ली को सोते ही नींद आ गई पर सफेद सुबह के इन्तजार में करवटे बदलने लगी। उसे सपने में मक्खन रोटी दिखाई देने लगी।
सुबह फिर काली ने सफेद को उठाया। किन्तु सफेद बिल्ली नहीं उठी। कहने लगी- ‘‘रात को देर तक नींद नहीं आयी, अब नींद आ रही है तो थोड़ा जी भर कर सो लूं।’’ यह कहकर उसने चादर में मुंह ढ़क लिया।
काली, सफेद की मक्खन रोटी छोड़ अपने काम पर निकल पड़ी। दिन भर वह खेत में काम करती हुई सफेद बिल्ली का इन्तजार करती रही पर सफेद बिल्ली नहीं आयी।
शाम जब वह घर पहुंची तो देखा सफेद लेटी हुई है। वह चिन्तित होती उसके पास पहुंची- ‘‘क्या हुआ सफेद रानी?’’
‘‘अरी तुम आ गयी! माफ करना भई! आज पेट में बहुत दर्द था इसलिये खेत पर न आ सकी।’’
काली ने चुपचाप खाना बनाया, सफाई की। सफेद लेटी हुई देखती रही।
‘‘आओ खाना तैयार है’’ काली बिल्ली ने उसे पुकारा।
‘‘क्या बनाया है?’’
‘‘आज दो चूहों का शिकार किया था सो मेरे लिये वहीं बनाएं परन्तु तुम्हारे लिये दलिया बनाया है।’’
चूहों के नाम से सफेद के मुंह में पानी भर आया, ‘‘चूहे! सुना है चूहे खाने से पेट दर्द ठीक हो जाता है। ऐसा करो चूहे मैं खा लेती हूं और दलिया तुम खा लो’’ और फटाफट उठकर उसने दोनों चूहे खा लिए। काली से पूछा तक नहींं। अब काली बिल्ली को समझ आ गया था कि सफेद बिल्ली न केवल बहानेबाज है बल्कि आलसी भी है। मेहनत करना नहीं चाहती और अच्छा खाना चाहती है। कोई उपाय करना होगा।
दूसरे दिन काली बिल्ली ने तैयार होते हुए सफेद से कहा- ‘‘आज मेरा जन्मदिन है। मलाई वाली खीर बनाऊंगी। शाम को मेरे सभी मित्र दावत खाने आएंगे। आज जरा खेत पर तुम चली जाओ।’’
मजबूरन सफेद बिल्ली को उठकर खेत पर जाना पड़ा। ‘‘अगर आज उसने कोई बहाना बनाया तो शायद मलाई वाली खीर खाने को न मिले।’’ मन ही मन उसने सोचा।
शाम जब सफेद बिल्ली लौटी तो घर की सजावट देख चौंक उठी। खीर की मीठी सुगन्ध से उसका मन नाच उठा। उसने तेज सांस खींची। खीर की सुगन्ध से उसके मुंह में पानी भर आया।
‘‘आ गई सफेद रानी। जाओ जरा बगीचे से फूल चुन लाओ। मेरे मित्र आते ही होंगे।’’
‘‘ओह!’’ सिवाय काली बिल्ली का कहना मानने के और कुछ उपाय भी तो उसके पास न था। थकी होने के बाद भी वह फूल चुनने निकल पड़ी।
टिंकू खरगोश, पिंकी मेमना, झुंझुन मुर्गा, हरिल तोता, भूरी गौरया सभी मित्र काली बिल्ली को जन्मदिन की बधाई देते हुए एक-एक कर अन्दर आए। काली बिल्ली के लिये सभी कुछ न कुछ उपहार लेकर आये थे। काली ने सभी मित्रों से सफेद का परिचय कराया।
दावत शुरू होने से पहले सफेद बिल्ली बोली- ‘‘मित्रों आप सभी जन्मदिन का कोई न कोई उपहार लेकर आये है परन्तु मैं उपहार में एक खेल लेकर आई हूं। सबके मनोरजंन के लिए।
‘‘कौनसा खेल?’’ सभी एकसाथ बोल उठे।
‘‘लुका छिपी का खेल है यह। मैं आंख बंद करूंगी तब सब छिप जायेंगे। जब मैं आंखे खोलूंगी तो सबको ढूंढूगी।’’
‘‘आहा! बड़ा अनूठा खेल है। मैंने तो पहले कभी नहीं खेला।’’
सभी खेल के लिए उत्सुक थे। सफेद बिल्ली सभी को छिपने के लिए कहकर बोली- ‘‘पहले खेल होगा फिर दावत का आनंद होगा’’ इतना कह वह रसोई में चली गई और गिनती बोलने लगी। एक...दो...तीन...तभी उसकी नजर खीर पर गयी। वह गिनती भूल खीर चाटने लगी। ‘‘वाह! बहुत स्वादिष्ट खीर बनी है।’’ जबान फिरा उसने होठो को साफ किया।
उसने दुबारा भगोने में मुंह डाला और चाटने लगी तभी ‘धड़ाम’ से भगौना नीचे गिर पड़ा। गिरने की आवाज सुन सभी अन्दर दौड़े आए।
सफेद बिल्ली रंगे हाथों पकड़ी गई थी। शर्म से वह पानी-पानी हो गई, उसका बुरा हाल था। वह दुम दबाकर वहां से भाग जाना चाहती थी किन्तु वह नीचे और खीर का भगौना उसके उपर औंधा गिरा हुआ था। रसोई के दरवाजे पर सभी खड़े उसे घूर रहे थे। उन सबमें काली बिल्ली भी थी और उससे आंख मिलाने की तो उसमें हिम्मत ही नहीं बची थी। अब? उसने किसी तरह से भगोने के नीचे से खुद को निकाला और चुपचाप सिर झुकाये दुम दबाकर घर से बाहर निकल जाने में ही अपनी खैर समझी। जाते-जाते उसके कानों में आवाज गिरी, ‘‘जाने दो मक्कार को। ये हमारे साथ रहने के काबिल नहीं।’’
टांग के दर्द से वह लंगड़ाती चली जा रही थी। किन्तु इस दर्द से ज्यादा अपनी बुरी आदत के कारण इतना अच्छा घर और मित्र छूट जाने का उसे बेहद अफसोस था। उसके बारे में कहे गये मित्रों के शब्द कानों में लगातार गूंज रहे थे। उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

नई सुबह................ (कहानी)......... निर्मला कपिला

आज मन बहुत खिन्न था।सुबह भाग दौड करते हुये काम निपटाने मे 9 बज गये। तैयार हुयी पर्स उठाया, आफिस के लिये निकलने ही लगी थी कि माँ जी ने हुकम सुना दिया *बहु एक कप तुलसी वाली चाय देती जाना।*
मन खीज उठा , एक तो लेट हो रही हूँ किसी ने हाथ तो क्या बँटाना हुकम दिये जाना है ,फिर ये भी नही कि सब एक ही समय पर नाश्ता कर लें ,एक ही तरह का खा लें सब की पसंद अलग अलग । किसी को तुलसी वाली चाय तो किसी को इलाची वाली। मेरी तकलीफ कोई नही देखता।
आज समाज को पढी लिखी बहु की जरूरत है जो नौकरी पेशा भी हो,कमाऊ हो। घर और नौकरी दो पाटों के बीच पिसती बहु को क्या चाहिये इसका समाधान कोई नही सोचता।
जैसे तैसे चाय बना कर बस स्टाप के लिये भागी, मगर बस निकल चुकी थी।मेरी रुलाई फूटने को हो आयी।मन मे आया बास की डाँट खाने से अच्छा है आज छुट्टी ले लूँ। कई दिन से सोच रही थी आँटी से मिलने जाने का मगर विकास 10 दिन से टूर पर गये थे समय ही नहीं मिल पाया।दूसरा कई दिन से सोच कर परेशान थी नौकरी और घर दोनो के बीच बहुत कुछ छूट रहा था जिन्दगी से। दोनो जिम्मेदारियों मे जो मुश्किल आती वो तो अपनी जगह थी मुझे चिन्ता केवल बच्चों की पढाई की थी। मैं इतनी थक जाती कि रात को बच्चों का होम वर्क करवाने की भी हिम्मत न रहती। विकास की नौकरी ऐसी थी कि अक्सर टूर पर जाना पडता था।मुझे गुस्सा आता कि अगर नौकरी वाली बहु चाहिये तो घर मे नौकरानी रखो। मगर माँजी बाऊ जी नौकरानी के हाथ से बना भोजन नही करते थे।मैने नौकरी छोडने की बात की तो विकास नही माने। मुझे लगता कि अगर माँ जी या बाऊ जी से कहूँगी तो पता नही क्या सोचेंगे-- घर मे कहीं कलेश न हो जाये कि शायद मैं घर के काम से कतराने लगी हूँ । ससुराल मे उतनी आज़ादी भी नही होती जितनी कि मायके मे बात कहने की होती है।
बस स्टैंड पर खडे ध्यान आया कि चलो आज छुट्टी करती हूँ और आँटी के घर हो आती हूँ, अपनी समस्या के बारे मे भी उनसे बात हो जायेगी।वो एक सुलझी हुयी महिला हैं। जरूर कोई न कोई हल मिल जायेगा। मन कुछ आश्वस्त हुया।रिक्शा ले कर मैं उनके घर के लिये चल पडी।
कमला आँटी मेरे मायके शहर की हैं। 15-20 वर्ष से वो इसी शहर मे रह रही हैं। अपने पति की मौत के बाद उन्होंने एक बोर्डिंग स्कूल मे वार्डन की नौकरी कर ली।थी वहीं रह रही हैं। जैसे ही मैं पहुँचीवो मुझे देख कर ह्रान हो गयी--
*नीतू ,तुम? इस समय? क्या आज छुट्टी है?* उन्होंने एक दम कई प्रश्न दाग दिये।
* आँटी आज आफिस से लेट हो गयी थी तो सोचा बास की डाँट खाने से अच्छा है आपके हाथ की बनी चाय पी ली जाये और कुछ मीठी खटी बातें भी हो जायें।*
* वलो अच्छा हुया तुम आ गयी*इधर बच्चों की छुट्टियां चल रही हैं हास्टल भी खाली है। बैठो मैं चाय बना कर लाती हूँ फिर बातें करते हैं।*
मैने कमरे मे सरसरी नज़र दौडाई सुन्दर व्यवस्थित छोटा स घर थआँटी बहुत सुघड गृहणी हैं ।ये मैं पहले से जानती थी । रिश्तों को सहेजना और घर परिवार को कैसे चलाना है ये महारत उनको हासिल थी तभी तो उन के बेटे बहुयें उन्हें बहुत प्यार करते हैं । उन्हें अपने पास बुलाते हैं मगर आँटी कहती हैं कि जब तक हाथ पाँव चल रहे हैं तब तक वो काम करेंगी । इसी लिये बेटे की ट्रांस्फर के बाद उनके साथ नही गयी।
चाय की चुस्की लेते हुये आँटी ने बचों का .घर का हाल चाल पूछा।मैं कुछ उदास से हो गयी तो आँटी को पता चल गया कि मैं परेशान हूँ।
* नीतू ,क्या बात है कुछ परेशान लग रही हो?*
*आँटी मैं नौकरी और बच्चों की पढाई को ले कर परेशान हूँ।नौकरी के साथ घर सम्भालना , बच्चों की पढाई भी करवानी माँ और बाऊ जी का ध्यान, दवा दारू, और रिश्तेदारों की आपे़क्षायें इन सब के बीच पिस कर रह गयी हूँ आपको पता ही है विकास को अकसर टूर पर जाना पडता है अगर घर मे भी हों तो भी बच्चों की तरफ ध्यान नही जाता। माँ जी को कीर्तन सत्संग से फुरसत नही, बिमारी मे भी कोई हाथ बंटाने वाला नहीं। वैसे मुझे घर मे कोई कुछ कहता नही मगर मुझे किसी का कुछ सहारा भी तो चाहिये ।बताईये मै क्या करूँ?*
*बेटी ये समस्या केवल तुम्हारी ही नही है,हर कामकाजी महिला की है । असल मे हमारे परिवारों मे बहु के आने पर ये समझ लिया जाता है कि बस अब काम की जिम्मेदारी केवल बहु की है। सास ननदें कई बार तो बिलकुल काम करना छोड देती हैं बस यहीं से परिवारों मे कलह बढ जाती है।*
अब यहाँ दो बातें आती हैं एक तो ये -------

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*बेटी ये समस्या केवल तुम्हारी ही नही ,हर कामकाजी महिला की है। अब यहाँ दो बातें आती हैं-- एक तो येकि वो बीसवीं सदी की औरत की तरह वो पूरी तरह अपने परिवार के लिये समर्पित हो कर जीये मगर किसी की ज्यादतियों के खिलाफ मुंह न खोले । अपनी छोटी छोटी जरूरतों के लियेभी दूसरों पर निर्भर रहे अगर तो पति अच्छा आदमी है तब तो ठीक है नही तो आदमी दुआरा शोशित होती रहे ,प्रताडना सहती रहे। अपना आत्मसम्मान अपने सपने भूल जाये।
दूसरा पहलु है कि शोशित होने की बजाये आतम निर्भर बने और एक संतुलित समाज की संरचना करे। अभी ये काम इस लिये मुश्किल लग रहा है कि सदिओं से जिस तरह पुरुष के हाथ मे औरत की लगाम रही है वो इतनी आसानी से और जल्दी छूटने वाली नही हैुसके लिये समय लगेगा।इस आदिम समाज मे औरत की प्रतिभा और सम्मान को स्थापित करने के लिये आज की नारी को कुछ तो बलिदान करना ही पडेगा।देखा गया है कि जब भी कोई क्राँति आयी उसके लिये किसी न किसी ने संघर्ष किया और कठिनाईयाँ झेली हैं तभी आने वाली पीढियों ने उसका स्वाद चखा है।
सब से बडी खुशी की बात ये है कि पहले समय से अब तक बहुत बदलाव आया है कोई समय था जब औरत को घूँघट के बिना बाहर नही निकलने दिया जाता थ पढने नही दिया जाता था, एक आज है जब् औरत आदमी के कन्धे से कन्धा मिला कर चल रही है।ाउत कुछ तो इतना आगे बढ गयी हैं कि समाज की मर्यादाओं को भी भूल गयी हैं जो गलत है।
आज के बच्चे इस बदलाव को समझ भी रहे हैं। किसी स्क़मय मे आदमी ने कभी रसोई की दहलीज़ नही लाँघी थी, आज वो पत्नि के लिये बेड टी बनाने लगा है, दोनो नौकरी पेशा पति पत्नि मिल जुल कर घर चलाने लगे हैं।*
*पर आँटी , विकास के पास तो समय ही नही है अगर कभी हो भी तो कहते हैं मुझे आराम भी करने दिया करो। और सास ससुर जी को तो जैसे भूल ही गया है कि घर कैसे चलता है।*
* बेटी यहाँ भी एक बात तो ये है कि समाज की प्रथानुसार सास अपना एकाधिकार समझती है कि जब बहु आ गयी तो उसे काम की क्या जरूरत है दूसरी जो सब से बडी बात है वो आजकल के बच्चों की बडों से बढती दूरी। बच्चे अपने दुख सुख तकलीफें खुशियाँ केवल अपने तक ही रखते हैं । पार्टी सिनेमा के लिये समय है मगर ,कभी समय नही निकालते कि दो घडी बडों के पास बैठ कर उनसे दो प्यार भरी बातें कर लें या उनके दुख सुख सुन लें फिर बताओ आपस मे सामंजस्य कैसे स्थापित हो पायेगा। ये सब से अहम बात है जो परिवार मे सन्तुलन कायम करती है। क्या तुम ने कभी सास के गले मै वैसे बाहें डाली जैसे अपनी माँ के गले मे डालती थी?*
*आँटी मुझे फुरसत ही कहाँ मिलती है। क्या उन्हें खुद नही ये देखना चाहिये कि मुझे कितना काम करना पडता है?*
*नही बेटा उन्होंने अपने जमाने मे जितना काम किया है आज के बच्चे उतना नही कर सकते। क्या उन्होंने कभी तुम्हें काम के लिये टोका है? या किसी और बात के लिये?*
नही तो वो तो सब से मेरी प्रशंसा ही करती हैं कि बहु बहुत अच्छी है सारा काम करती है मुझे हाथ नही लगाने देती। पहले पहले तो मैं खुशी से फूल कर कुप्पा होती और भाग भाग कर काम करती मग अब बच्चों के होने के बाद मुश्किल हो गयी है।*
तो बेटा तुम्हारी समस्या तो कुछ भी नही है बस तुम्हे जरा सा प्रयास करने की जरूरत है अपनी सास को अपनी सहेली बना लो। उन्हें समझा कर एक नौकरानी रख लो या दोनो मिल कर घर चलाओ अपने पति को भी अपनी समस्या प्यार से बताओ। आधी मुश्किल तो किसी समस्या को अच्छे से न समझ पाने और गलत दृिष्टीकोन अपनाने से होती है। ये शुक्र करो कि तुम अपने परिवार के साथ हो अकेले रहने वाले लोग किस मुश्किल से बच्चे पाल रहे हैं ये तुम्हें अभी पता नही है।एक बार अच्छी तरह सोचो कि क्या तुम पहले रास्ते पर चल कर अपना वजूद कायम रख सकती हों ? या फिर एक नई सुबह के लिये संघर्ष करना चाहती हो।*
ये कह कर आंम्टी चाय के बरतन ले कर उठ गयी और मैं सोच मे पड गयी। आस पास देखा अपनी सहेलियों की बातों पर गौर किया तो लगा कि आँटी की बात मे दम है। अगर हम परिवार मे अपने रिश्तों को सहेज कर रखें तो जीवन की आधी मुश्किलें तो आसानी से हल हो सकती हैं । मगर हम अपने अहं या तृ्ष्णाओं के भ्रमजाल मे बहुत कुछ अनदे4खा कर देते हैं जिसे समय रहते न देखा जाये तो कई भ्रामक स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं।
मुझे शायद अपनी समस्या का समाधान मिल गया था । एक तो ये कि मेरे उपर अगर संघर्ष का दायित्व है तो निभाऊँगी,कुछ पाने के लिये कुछ खोना तो पडेगा ही। और दूसरे ापने रिश्तों को आँटी की तरह एक नई दृष्टी से देखूँगी।अँटी ने ठीक कहा है मैं घर मे माँजी और बाऊ जी से अपनी तकलीफ भी कहूँगी और उनकी भी सुनुंगी। हो सकता है वो मेरी मनोस्थिती जानते ही न हों। मैने कब कभी उनकी तकलीफ जानने की कोशिश की है। अगर समय निकक़लना हो तो बडों के लिये निकाला जा सकता है। जब माँ बिमार होती थी तो मै उनके सिरहाने से उठती नही थी मगर यहाँ आ कर कभी समय ही नही निकाला कि मैं अपनी सास के साथ भी कुछ पल बिताऊँ। पहले पहले जब कभी वो रसोई मे आती तो मैं ही उन्हें हटा देती शायद एक अच्छी बहु साबित करने के लिये । इसके बाद शायद उन्हें भी आदत पड गयी हों और भी बहुत से ख्याल इस नई सोच के साथ मेरे मन मे आने लगे। मुझे लगने लगा था कि कहीं न कहीं मेरी भी गलती जरूर है। एक आशा की किरण लिये मैं उठ खडी हुयी।
*अच्छा आँटी अब मैं चलती हूँ आपसे बात करके मन का बोझ हल्का हो गया है। मै नये सिरे से इस समस्या पर सोचूँगी। नमस्ते आँटी।*
*ठीक है बेटा, सदा सुखी रहो। आती रहा करो *
घर पहुँची तो विकास घर आ चुके थे। माँ जी और बाऊ जी के साथ ही ड्राईँग रूम मे बैठे थे। मुझे जल्दी आये देख कर माँजी ने पूछा कि क्या बात है आज जल्दी घर आ गयी? मैं पहले त चुप रही मेरी आँखों मे आँसू आ गये । जब माँजी ने सिर पर हाथ रखा कि बताओ तो सही क्या हुया है? सभी घबरा भी गये थे। मैने उसी समय माँजी की गोदी मे सिर रख दिया--
*माँजी, बात कुछ नही है मैं बहुत थक गयी हूँ* नुझ से अब नौकरी और घर दोनो काम नही होते।*
अरे बेटी पहले चुप करो। तुम इतनी बहादुर बेटी हो मै तो सब से तुम्हारी तारीफ करते नही थकती। तुम ने कभी बताया क्यों नही कि तुम इतनी परेशान हो?*
* मैने विकास से कहा था कि नौकरी छोड देती हूँ मगर विकास नही माने।*
*वाह बेटी बात यहाँ तक हो गयी और तुम ने अपने माँ बाऊजी को इस काबिल ही नही समझा कि हम से बात करो। असल मे मैं अपने सास होने के गर्व मे तुम्हारी तकलीफ न देख सकी और तुम बहु होने के डर से मुझ से कुछ कह न सकी बस बात इतनी सी थी और् तुम कितनी देर इसी तकलीफ को सहती रही। फिर मैं डरती भी थी कि मेरा रसोई मे दखल तुम्हें कहीं ये एहसास न दिलाये कि मुझे तुम्हारी काबलियत पर भरोसा नही या मुझे तुम्हारा काम पसंद नही। चलो आज से रात का खाना मैं बनाया करूँगी।*
*नीतू तुम खुद ही तो कहा करती थी कि विकास तुम बच्चों को पढाते हुये डाँटते बहुत हो आगे से4 मैं पढाया करूँगी। तो मुझे क्या चाहिये था। मै निश्चिन्त हो गया।* विकास के स्वर मे रोष था
सही है कुछ समस्यायें हम खुद सहेज लेते हैं। हमे लगता है कि हम दूसरे से अच्छा काम कर सकते हैं। यही बात शायद यहाँ हुयी थी।
*देखो बेटा जब तक बच्चा रोये नही माँ भी कई बार दूध नही देती। वैसे अच्छा हुया अगर तुम यही बात सीधी तरह इनसे कहती तो शायद इन पर असर न होता। आज तुम्हारे आँसूओं से देखो तुम्हारी माँ भी पिघल गयी और विकास की क्या मजाल जो अब तुम्हें अनदेखा कर दे।* कह कर बाऊ जी हंस दिये
चलो बटा मेरा आशीर्वाद ले लो इसी बहाने हमे भी कई साल बाद पत्नि के हाथ का भोजन नसीब होगा जो हमे शिकायत रहती थी।*
-----* तो क्या इसी खुशी मे एक एक कप तुलसी वाली चाय हो जाए, बहु के हाथ की? * माँजी चहकी
शायद आज माँजी को पहली बार इतने खुश देखा था। मुझे लगा सम्स्या का समाधान हमारे आस पास ही कहीं होता है मगर कई बार नासमझी मे हम उसे देख नही पाते जिस से और कई समस्यायें पैदा कर लेते हैं।
मैं झट से चाये बनाने चली गयी। सुबह इसी तुलसी वाली चाय ने ही तो मुझे नई राह दिखाई थी।मैने कप उठाने के लिये हाथ बढाया तो विकास ने मेरा हाथ पकड लिया बडे प्यार से दबा कर बोले लाओ तुम चलो अगला काम मेरा है। और विकास कपौ मे चाय डाल रहे थे। मुझे लगा नई सुबह का आगाज़ हो चुका है।इस लिये नही कि विकास काम कर रहे हैं बल्कि इस लिये कि मेरी तकलीफ मे मेरा साथ निभाने का जिम्मा ले रहे हैं।