बहुत दिन हुए
कोई चिट्ठी नहीं आई
कोई मित्र नहीं आया दरवाजे पता पूछते
चिल्लाते नाम
बहुत दिन हुए
दाखिल नहीं हुई कोई नन्ही सी चिड़िया
तिनका-तिनका जोड़ा नहीं घर
खिड़कियों से होकर किसी सुबह
किसी शाम
उतरा नहीं आकाश
बहुत दिन हुए भूल गया
जाने क्या था उस लड़की का नाम !
बहुत दिन हुए
करता रहा चाकरी
गँवाता रहा उम्र
कमाता रहा रुपए
बहुत दिन हुए
छोड़ दिया लड़ना
बहुत दिन हुए
भूल गया जीना।
रविवार, 25 अप्रैल 2010
बहुत दिन हुए -- (कविता)..... कुमार विश्वबंधु
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6 comments:
बहुत दिन हुए
छोड़ दिया लड़ना
बहुत दिन हुए
भूल गया जीना।
शानदार रचना ..
jivan ki hakikat hai iss rachna me
......bahut sundar
बहुत दिन हुए
करता रहा चाकरी
गँवाता रहा उम्र
कमाता रहा रुपए
बहुत दिन हुए
छोड़ दिया लड़ना
बहुत दिन हुए
भूल गया जीना।
bahut hi acchi lagi aapki kavita ..
अच्छी कविता लगी किन्तु मुझे लगा कि इसको और अच्छा किया जा सकता था किन्तु मेरा मानना है कि कवि के भावो के अनुसार ही कविता होनी चाहिये।
बहुत दिन हुए
छोड़ दिया लड़ना
बहुत दिन हुए
भूल गया जीना।
jeevan ke yatharth ka sundar chitran.
अब क्या कहूँ, सबकुछ तो आपने कह ही दिया है। बधाई इस मन को झकझोड़नेवाली रचना के लिए.
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