दीप बना कर याद तुम्हारी, प्रिय, मैं लौ बन कर जलती हूँ
प्रेम-थाल में प्राण सजा कर लो तुमको अर्पण करती हूँ।
अकस्मात ही जीवन मरुथल में पानी की धार बने तुम,
पतझड़ की ऋतु में जैसे फिर जीवन का आधार बने तुम,
दो दिन की इस अमृत वर्षा में भीगे क्षण हृदय बाँध कर,
आँसू से सींचा जैसे अब बन कर इक सपना पलती हूँ।
दीप बना कर...
मेरे माथे पर जो तारा अधरों से तुमने आँका था,
अंग-अंग हर स्पर्श तुम्हारा लाल दग्ध हो मुखर उठा था,
उन चिह्नों को अंजुरि में भर पीछे डाल अतीत अंक में,
दे दो ये अनुमति अब प्रियतम, अगले जीवन फिर मिलती हूँ।
दीप बना कर...
तुम रख लेना मेरी स्मृति को अपने मन के इक कोने में,
जैसे इक छोटा सा तारा दूर चमकता नील गगन में,
मौन रो रहे दंश हृदय के, घाव रक्त से ज्यों हो लथपथ ,
आहुति के आँसू से धो कर आंगन लो अब मैं चलती हूँ।
दीप बना कर...
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
दीप बना कर याद तुम्हारी....(गीत)...मनोशी जी
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7 comments:
दीप बना कर याद तुम्हारी, प्रिय, मैं लौ बन कर जलती हूँ
प्रेम-थाल में प्राण सजा कर लो तुमको अर्पण करती हूँ।
sundar geet ...
bahut khub ...samarpan ka bahv acche se ubhara hai aapne
हिंदी साहित्य मंच पर आपका प्रथम आगमन बहुत ही शानदार है ...सहयोग के लिए धन्यवाद ..
bahut hi shandaar geet...man prasann ho gaya...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
bahut khub
jabardast he
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
ap ki kavita kafi achchhi hai
मौन रो रहे दंश हृदय के, घाव रक्त से ज्यों हो लथपथ ,
आहुति के आँसू से धो कर आंगन लो अब मैं चलती हूँ...
बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...बहुत ही सुन्दर ...!!
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