काली बिल्ली ने सफेद बिल्ली को देखा और सफेद ने काली को। काली ने खुश होकर सफेद से कहा- ‘‘तुम्हें देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई।’’
‘‘मुझे भी’’ सफेद ने जवाब दिया।
‘‘कहां रहती हो?’’ काली ने पूछा।
‘‘अभी नई-नई आई हूं, रहने की जगह तलाश कर रही हूं।’’
‘‘मेरे घर रहोगी?’’ काली बिल्ली ने उससे आग्रह किया।
‘‘मैं अकेली रहती हूं तुम साथ रहोगी तो अच्छा लगेगा।’’
सफेद बिल्ली खुश होकर काली के साथ उसके घर चल दी। दोनों घर पहुंची।
‘‘वाह! तुम्हारा घर तो बहुत सुन्दर है। क्या खूब तुमने इसे सजाया है। इसमें लाईब्रेरी भी है! क्या कहने।’’ सफेद बिल्ली प्रशंसा करते हुए बोली।
‘‘मुझे पढ़ने का बेहद शौक है। अच्छी किताबे पढ़ना मुझे पसन्द है। तुम बैठो मैं खाने का कुछ लाती हूं।’’ कहती हुई काली बिल्ली रसोई में चली गई।
एक दूसरे को पाकर दोनों बिल्लियां बहुत खुश थी। काली बिल्ली को सफेद बिल्ली का रंग भा गया था और सफेद को काली का करीने से सजा घर। घर में वे सारी सुख-सुविधाएं थी जो वह चाहती थी।
सुबह काली ने सफेद को पुकारा- ‘‘उठो-उठो सुबह हो गई है।’’
‘‘ऊं हूं इतनी जल्दी! अभी थोड़ा सोने दो मुझे....।’’
कुछ देर बाद काली बिल्ली ने फिर सफेद को उठाने का प्रयास किया।‘‘उठो-उठो सफेद रानी, देखो मैं तैयार हो गई और नाश्ता भी ठण्डा हो रहा है...।’’
नाश्ते का नाम सुन सफेद बिल्ली उठ खड़ी हुई।
‘‘ये सुबह-सुबह कहां जाने की तैयारी कर रही हो काली?’’
‘‘चलो मैं तुम्हें भी ले जाना चाहती हूं। अब सुस्ती छोड़ो और फटाफट तैयार हो जाओ।’’
सफेद बिल्ली ने लम्बी जम्हाई ली और हाथ पैर मरोड़ने लगी। यह देख काली बोली- ‘‘उठो नहीं तो मुझे देर हो जायगी।’’
दोनों बिल्लियां तैयार होकर बाहर निकल पड़ी। काली सफेद को अपने खेत पर ले गई, ‘‘ये मेरा खेत है। इस बार मैंने चने की फसल बोई है।’’
सफेद आश्चर्य से आंखे मटकाती हुई बोली- ‘‘आहा! इत्ती बढ़िया फसल ऐसी लहलहाती फसल मैंने पहले कभी नहीं देखी। वाकई तुम बहुत मेहनती हो काली।’’
‘‘हां अब हम दोनों मिलकर काम करेंगी तो और अच्छी-अच्छी फसल बोएंगी। चलो ये फावड़ा लेकर तुम इस सिरे से खुदाई शुरू कर दो और मैं उस सिरे से।’’
सफेद ने बेमन से फावड़ा उठाया। अभी उसने दो-तीन फावड़े मिट्टी में चलाए ही थे कि उसे पसीना छूटने लगा।
‘‘इतनी तेज धूप बर्दाश्त नहीं होती काली।’’
‘‘हां तभी तो जल्दी आ जाती हूं। सुबह कुछ देर काम कर दिन में यहीं थोड़ा सुस्ता लेती हूं। खेती करना आसान काम नहीं है सफेद...।’’
‘‘हां बड़ी मेहनत करनी पड़ती है यह तो मैं देख रही हूं।’’ थोड़ी देर बाद सफेद बिल्ली फावड़ा छोड़ खड़ी हो गई।
‘‘तेज धूप में मेरा सिर दुखने लगा है काली।’’
‘‘लगता है तुम्हें मेहनत करने की आदत नहीं। जाओ, घर जाकर सो जाओ।’’
सफेद बिल्ली खुशी-खुशी घर की ओर चल दी। काली दिन भर खेत पर काम करके जब लौटी तो देखा सफेद बिल्ली बिस्तर पर लेटी किताब पढ़ने में मगन है। काली को देखते ही कहने लगी- ‘‘तुम आ गई, मुझे तो बहुत भूख लग रही है। मारे सिरदर्द के मैं खाना बना ही नहीं पायी।’’ ‘‘अभी बना लेती हूं’’ कहती हुई काली बिल्ली खाना बनाने में जुट गई। प्लेटो में खाना सजाकर उसने सफेद को पुकारा-
‘‘आओ खाना खा ले।’’
‘‘क्या बनाया है।’’ किताब पढ़ते हुए सफेद ने वहीं से पूछा।
‘‘चने के पत्तों की सब्जी, बस आज यहीं बना पायी हूं।’’
‘‘ऊंह! यह भी कोई खाना है।’’
‘‘जल्दी में इतना ही बना पायी। फिर मैं थकी हुई भी थी। सुबह मक्खन-रोटी बना लूंगी।’’
मक्खन-रोटी के नाम से सफेद के मुंह में पानी भर आया ‘चलो आज चने की साग खाकर ही संतुष्ट हो जाएं कल तो मक्खन रोटी मिल रही है न!’ सोचती हुई सफेद बिल्ली उठ खड़ी हुई। दोनों ने खाना खाया और सो गई। काली बिल्ली को सोते ही नींद आ गई पर सफेद सुबह के इन्तजार में करवटे बदलने लगी। उसे सपने में मक्खन रोटी दिखाई देने लगी।
सुबह फिर काली ने सफेद को उठाया। किन्तु सफेद बिल्ली नहीं उठी। कहने लगी- ‘‘रात को देर तक नींद नहीं आयी, अब नींद आ रही है तो थोड़ा जी भर कर सो लूं।’’ यह कहकर उसने चादर में मुंह ढ़क लिया।
काली, सफेद की मक्खन रोटी छोड़ अपने काम पर निकल पड़ी। दिन भर वह खेत में काम करती हुई सफेद बिल्ली का इन्तजार करती रही पर सफेद बिल्ली नहीं आयी।
शाम जब वह घर पहुंची तो देखा सफेद लेटी हुई है। वह चिन्तित होती उसके पास पहुंची- ‘‘क्या हुआ सफेद रानी?’’
‘‘अरी तुम आ गयी! माफ करना भई! आज पेट में बहुत दर्द था इसलिये खेत पर न आ सकी।’’
काली ने चुपचाप खाना बनाया, सफाई की। सफेद लेटी हुई देखती रही।
‘‘आओ खाना तैयार है’’ काली बिल्ली ने उसे पुकारा।
‘‘क्या बनाया है?’’
‘‘आज दो चूहों का शिकार किया था सो मेरे लिये वहीं बनाएं परन्तु तुम्हारे लिये दलिया बनाया है।’’
चूहों के नाम से सफेद के मुंह में पानी भर आया, ‘‘चूहे! सुना है चूहे खाने से पेट दर्द ठीक हो जाता है। ऐसा करो चूहे मैं खा लेती हूं और दलिया तुम खा लो’’ और फटाफट उठकर उसने दोनों चूहे खा लिए। काली से पूछा तक नहींं। अब काली बिल्ली को समझ आ गया था कि सफेद बिल्ली न केवल बहानेबाज है बल्कि आलसी भी है। मेहनत करना नहीं चाहती और अच्छा खाना चाहती है। कोई उपाय करना होगा।
दूसरे दिन काली बिल्ली ने तैयार होते हुए सफेद से कहा- ‘‘आज मेरा जन्मदिन है। मलाई वाली खीर बनाऊंगी। शाम को मेरे सभी मित्र दावत खाने आएंगे। आज जरा खेत पर तुम चली जाओ।’’
मजबूरन सफेद बिल्ली को उठकर खेत पर जाना पड़ा। ‘‘अगर आज उसने कोई बहाना बनाया तो शायद मलाई वाली खीर खाने को न मिले।’’ मन ही मन उसने सोचा।
शाम जब सफेद बिल्ली लौटी तो घर की सजावट देख चौंक उठी। खीर की मीठी सुगन्ध से उसका मन नाच उठा। उसने तेज सांस खींची। खीर की सुगन्ध से उसके मुंह में पानी भर आया।
‘‘आ गई सफेद रानी। जाओ जरा बगीचे से फूल चुन लाओ। मेरे मित्र आते ही होंगे।’’
‘‘ओह!’’ सिवाय काली बिल्ली का कहना मानने के और कुछ उपाय भी तो उसके पास न था। थकी होने के बाद भी वह फूल चुनने निकल पड़ी।
टिंकू खरगोश, पिंकी मेमना, झुंझुन मुर्गा, हरिल तोता, भूरी गौरया सभी मित्र काली बिल्ली को जन्मदिन की बधाई देते हुए एक-एक कर अन्दर आए। काली बिल्ली के लिये सभी कुछ न कुछ उपहार लेकर आये थे। काली ने सभी मित्रों से सफेद का परिचय कराया।
दावत शुरू होने से पहले सफेद बिल्ली बोली- ‘‘मित्रों आप सभी जन्मदिन का कोई न कोई उपहार लेकर आये है परन्तु मैं उपहार में एक खेल लेकर आई हूं। सबके मनोरजंन के लिए।
‘‘कौनसा खेल?’’ सभी एकसाथ बोल उठे।
‘‘लुका छिपी का खेल है यह। मैं आंख बंद करूंगी तब सब छिप जायेंगे। जब मैं आंखे खोलूंगी तो सबको ढूंढूगी।’’
‘‘आहा! बड़ा अनूठा खेल है। मैंने तो पहले कभी नहीं खेला।’’
सभी खेल के लिए उत्सुक थे। सफेद बिल्ली सभी को छिपने के लिए कहकर बोली- ‘‘पहले खेल होगा फिर दावत का आनंद होगा’’ इतना कह वह रसोई में चली गई और गिनती बोलने लगी। एक...दो...तीन...तभी उसकी नजर खीर पर गयी। वह गिनती भूल खीर चाटने लगी। ‘‘वाह! बहुत स्वादिष्ट खीर बनी है।’’ जबान फिरा उसने होठो को साफ किया।
उसने दुबारा भगोने में मुंह डाला और चाटने लगी तभी ‘धड़ाम’ से भगौना नीचे गिर पड़ा। गिरने की आवाज सुन सभी अन्दर दौड़े आए।
सफेद बिल्ली रंगे हाथों पकड़ी गई थी। शर्म से वह पानी-पानी हो गई, उसका बुरा हाल था। वह दुम दबाकर वहां से भाग जाना चाहती थी किन्तु वह नीचे और खीर का भगौना उसके उपर औंधा गिरा हुआ था। रसोई के दरवाजे पर सभी खड़े उसे घूर रहे थे। उन सबमें काली बिल्ली भी थी और उससे आंख मिलाने की तो उसमें हिम्मत ही नहीं बची थी। अब? उसने किसी तरह से भगोने के नीचे से खुद को निकाला और चुपचाप सिर झुकाये दुम दबाकर घर से बाहर निकल जाने में ही अपनी खैर समझी। जाते-जाते उसके कानों में आवाज गिरी, ‘‘जाने दो मक्कार को। ये हमारे साथ रहने के काबिल नहीं।’’
टांग के दर्द से वह लंगड़ाती चली जा रही थी। किन्तु इस दर्द से ज्यादा अपनी बुरी आदत के कारण इतना अच्छा घर और मित्र छूट जाने का उसे बेहद अफसोस था। उसके बारे में कहे गये मित्रों के शब्द कानों में लगातार गूंज रहे थे। उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे।
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
दुम दबाकर.......(बाल कहानी) ......विमला भंडारी
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