बहुत पुरानी कहावत है कि "विद्या ददाति विनयम्" .आप सबको इस श्लोक की यह पंक्ति ज़रूर याद होगी .जीवन के प्रारंभ मे ही इस तरह की पंक्तियाँ विधालय मे हर छात्र को पढाई जाती हैं .यह सब इसलिए नहीं कि हम पदकर परीक्षा उतीर्ण कर लें और अगली कक्षा मे पहुँच जाएँ.अपितु ये हमारी बौद्धिक बुनियाद को सुद्रढ़ करने के लिए हैं और यह समझाने का प्रयास है कि जितना पढोगे और जैसा अच्छा पठन होगा जीवन उतना ही सरल ,उत्तम और परिपक्व होगा .जिसका लाभ इस समाज को मिलेगा और समाज इस कारण उन्नति करेगा. फिर समाज के साथ साथ देश भी तरक्की करेगा .मतलब देश के साथ साथ आम आदमी का गौरव भी बढेगा या आप इसे उल्टा भी कह सकते हैं की आम आदमी के साथ साथ देश का गौरव भी बढेगा .बात को किसी भी तरह से कह लीजिये लौट कर वहीँ आ जायेंगे "विद्या ददाति विनयम्" .
राजतंत्र मे पहले राजा के सिपहसालार और मंत्री अपनी एक ख़ास पहचान रखते थे और जो भी जिस विद्या या कला ने निपुण होता था उसे उसी की क्षमता के लिहाज से विभाग बाँट दिए जाते थे .वहां केवल गुण और निपुणता मायने रखती थी ना की आरक्षण और सिफारिश या वर्ण भेद या ज़ाति विशेषता. सब अपनी अपनी कला मे माहिर और निपुण .राजा भी उनकी बात को गौर से सुनता था और उनकी सलाह से निर्णय लेता था . कई कई भाषाओ का ज्ञान होता था राजा को ,मंत्री को और रणनीतिकारों को .उसकी वजह थी कि विभिन्न भाषा -भाषी प्रजा कि बात समझना और उनकी बेहतरी के लिए निर्णय लेना .
कहने का तात्पर्य यह है कि राज्य के कर्णधार अति शिक्षित होते थे और समय के हिसाब से निर्णय लेते थे .एक उम्र के बाद जब शारीरिक और मानसिक शक्तियां क्षीर्ण होने लगती हो अपने यथा योग्य उत्तराधिकारी को सब अधिकार देकर संन्यास आश्रम मे प्रवेश कर लेते थे . और शायद यही उस राज्य या क्षेत्र की उन्नति का कारण था .जितना शिक्षित राजा और राजा का मंत्रिमंडल और सभासद उतना की उन्नत साम्राज्य . बिना किसी आदेश के और नियम के यह परिपाटी चलती रही और शासन चलता रहा .जिस किसी भी राजा ने इस नियम का पालन नहीं क्या वो इतिहास भी ना बन सका और इतिहास के पन्नो मे ही खो गया .आज हम सिर्फ उन्ही राजा महाराजाओं को याद करते है जो समाज मे अपनी पहचान छोड़ गए.
समय ने करवट ली और प्रजा ही राजा बन गई .लेकिन हम इस राजसत्ता की चाहत मे बहुत कुछ पीछे छोड़ आये . आरक्षण ,वर्णवाद ,जातिवाद ,धर्मवाद ,क्षेत्रवाद ,वंशवाद ना जाने क्या क्या समां गया हमारी राजनीति मे और देश एक अँधेरे कुँए मे गिरता रहा .आज तो हालत यह हो गए की पता ही नहीं चल रहा कि राजनेता कौन हैं और मूढ़ कौन .सिर्फ ज़ाति,धरम ,वंश ,क्षेत्र ,भाषा के नाम पर राजनेता चुन कर आते हैं और किस भाषा का प्रयोग करते हैं आप सब से तो छिपा ही नहीं है."मतलब देश लगातार दुखों को सह रहा है."
जब इस देश मे हर पद ,ओहदे और पदवी के लिए एक शारीरिक ,शेक्षिक,और आयु का मानदंड है तो राजनीति मे क्यों नहीं?यह बात आज तक गले के नीचे नहीं उतरती.राजनीति मे भी एक माप्दंध होना चाहिए कि कोई भी नेता पहले एक स्नातक या समकक्ष हो और मंत्री पद के लिए उसके पास उस क्षेत्र की परा स्नातक योग्यता या समकक्ष तकनीकी निपुणता हो और जिस विभाग का मंत्रिपद उसे दिया जा रहा है उसका उपमंत्री पद का कुछ वर्ष का अनुभव हो .राजनेता का शारीरिक मापदंड भी निर्धारित किया जाए.हर सरकारी और गैर सरकारी कर्मियों की तरह इनका भी वार्षिक आंकलन किया जाए .जितने दिन यह अपने संसदीय क्षेत्र या संसद मे अनुपस्थित रहे इकना भी वेतन कटा जाए.अगर निर्धारित मानदंड से नीचे पाया जाए तो इनकी सदस्यता तत्काल से समाप्त कर दी जाये.
आप सब सोच कर हंस रहे होगे की यह भी किया अनाप शनाप लिखे जा रहा है .परन्तु मेरे मित्रों यह तो करना की होगा अगर कल का सवेरा देखना हैं."रथ को तेज़ दौड़ाना है तो घोडों के साथ साथ सारथी भी निपुण और चतुर होना चाहिए.
मेरी साँसों में यही दहशत समायी रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा ।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा ।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पे ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा ।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा ।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो , ज़रा अमन का क्या होगा ।
अहले -वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है देख लो फिर दामन का क्या होगा ।
ना जाने कितने ही नेताओ की शेक्षिक योग्यता किसी सरकारी दफ्तर के एक चतुर्थ श्रेणी कर्मी से कम है और वो देश के कर्णधार बने हुए हैं .जिनका अपना बौद्धिक विकास नहीं हुआ वो क्या सोच सकते हैं देश के विकास के बारें मे .यह तो कुछ वैसा ही हो गया कि एक ज़र्राह किसी के ह्रदय की शल्य चिकित्सा कर रहा हो .आप स्वं ही अनुमान लगा लें की परिणाम क्या होगा.जब एक कील बनाने वाला विमान बनाने की सलाह देगा तो परिणाम की अपेक्षा करना भी जुर्म हैं.
आज रोज़ अखबार मे राजनेताओ की गाली गलौज और एक दूसरे पर उलाहना और अपमान पढने और सुनने को मिलता है .सड़कों पर खुले आम आरोप प्रत्यारोप और वो भी अभद्र भाषा मे .सोचकर ही दर लगता है कि आने वाले दिन कितने भयाभय है. ज़रा कल्पना कीजिये .यह सब उनकी योग्यता के हिसाब से नहीं है और कुपात्र को जब सत्ता मिल जाती है तो उसे कुछ भी याद नहीं रहता वो पहले अपना घर भरता है और बाद मे दूसरों से लड़ता है .हर सही निर्णय उसे गलत नज़र आता है क्योंकि उसके सिपहसालार द्वारा निर्णय उसे समझ नहीं आता और फिर अपने राजनेता या मंत्री होने का भी तो उसने अधिकार प्रयोग करना है .बस अपनी सोच से वो उसे संशोधित कर देता है और हो जाती है एक ज़र्राह द्वारा शल्य चिकित्सा और परिणाम मे मिलती है मृत देह. इन्ही ज़र्राहों कि शल्य चिकित्साओं से देश ही देह रोज़ चिर रही है.
कम लिखे को ज्यादा समझें और लेख नहीं इशारा माने .आप सब खुद इस देश के जिम्मेदार नागरिक हैं
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
राजनीति मे न्यूनतम शिक्षा का मापदंड होना ज़रूरी है .....कवि दीपक शर्मा
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1 comments:
बहुत अच्छा लेख ।शिक्षा इंसान की सोच पर बहुत असर डालती है।सर्व शिक्षा अभियान राजनीति में भी होना चाहिए ।
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