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शनिवार, 31 जुलाई 2010

साथी रे................(कविता)...................कवि दीपक शर्मा

नहीं समय किसी का साथी रे !
मत हँस इतना औरों पर कि
कल तुझको रोना पड़ जाये
छोड़ नर्म मखमली शैय्या को
गुदड़ पर सोना पड़ जाये
हर नीति यही बतलाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !
तू इतना ऊँचा उड़ भी न कि
कल धरती के भी काबिल न रहे
इतना न समझ सबसे तू अलग
कल गिनती में भी शामिल न रहे
प्रीति सीख यही सिखलाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

रोतों को तू न और रुला
जलते को तू ना और जला
बेबस तन पर मत मार कभी
कंकड़- पत्थर , व्यंग्यों का डला
अश्रु नहीं निकलते आँखों से
जीवन भर जाता आहों से
मन में छाले पड़ जाते हैं
अवसादों के विपदाओं से
कुदरत जब मार लगाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

इतना भी ऊँचा सिर न कर
औरों का कद बौना दिखे
इतनी भी ना कर नीचे नज़र
हर चीज़ तुझे नीची दिखे,
खण्ड - खण्ड अस्तित्व हो जाता है
पर लोक, ब्रह्माण्ड हो जाता है
साँसों कि हाट उजड़ जाती
जब संयम प्रचंड हो जाता है
हर सदी यही दोहराती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

इतना मत इतरा वैभव पर
अस्थिर धन के गौरव पर
पाण्डव का हश्र तुझे याद नहीं
ठोकर खायी थी पग - पग पर
मत हीन समझ औरों को तू
मत दीन समझ औरों को तू
मत हेय दृष्टि औरों पर डाल
मत वहम ग़लत ह्रदय में पाल
पल में पासा फ़िर जाता है
जब प्रकति नयन घुमती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

काया पर ऐसा गर्व ना कर
यौवन का इतना दंभ न भर
ना नाज़ कर इतना सुन्दरता पर
द्रग पर, केशों पर, अधरों पर
है नहीं ये कोई पूंजी ऐसी
जो आयु के संग बढती जाये
जैसे - जैसे चढ़ती है उमर
ये वैसे - वैसे घटती जाये
अस्थि - अस्थि झुक जाती रे !
नहीं समय किसी साथी रे !

मत भाग्य किसी का छीन कभी
दाना हक़ से ज्यादा न बीन कभी
चलता रह अपनी परिधि में
पथ औरों का मत छीन कभी
वरना ऐसा भी तो हो जाता है
दाना अपना भी छिन जाता है
परिधि अपनी भी छुट जाता है
और भाग्य ही जड़ हो जाता है
जब एक दिन गगरी भर जाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे

प्‍यार

तुम पास होती,
ये जरूरी नही था।
तुम्‍हारे होने का एहसास ही,
जीने के लिये काफी था ।।
मै तेरे बिना भी जी सकता था,
पर तेरी बेवफाई न मुझे मार डाला।
मुझे मालून भी न चला,
तुने एक पल मे प्‍यार बदल डाला।।
न चाह थी तेरे आलिंगन की,
न चाह थी तेरे यौवन का।
दिल की आस यही रही हमें,
प्‍यार अमर रहे हमेशा।।
मैने प्‍यार में चाहा खुद्दारी,
पर मिली हमेशा गद्दारी।
प्‍यार कोई दो जिस्‍मो खेल नही है,
प्‍यार दो दिलो का मेल है।।
मेरे प्‍यार की सीमा वासना नही,
ये तो अर्न्‍तत्‍मा का मिलन है।
पल भर पहले दो अजनबियों का,
जीवन भर साथ निभाने का वचन है।।
मै तुम्‍हारा ही हूँ और रहूँगा,
मैने तुमको वचन दिया था।
तुमने भी ऐसा ही प्रण लिया था,
पर आज तुम्‍हारा प्रण दम तोड़ दिया।।
बदलते परिवेश मे
प्‍यार की परिभाषा ही बदल गई।
वर्तमान आधुनिकता में,
प्यार की जगह वासना ने ले ली है।।
तुमसे मिलने के बाद सोचा था‍
कि मेरी सच्‍चे प्‍यार की तलाश खत्‍म हुई।
पर नही अभी प्‍यार की ठोकरें बाकी है,
प्‍यार के लिये अभी और परीक्षा बाकी है।।
तुम मेरी अन्तिम आस नही हो,
अभी प्‍यार करने वाले और भी है।
जिनने अन्‍दर प्‍यार के नाम पर वासना ही प्‍यास नही
बल्कि प्‍यार की गइराईयों मे डूबकर "प्रेम रसपान" की इच्‍छा हो।- प्रमेन्द्र 

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

गोबिंद गोबिंद नाम उचारो...........(सवैया).................डा श्याम गुप्त

सीस वही जो झुकैं चरनन, नित राधा-गोबिन्द सरूप सदा जो |
नैन वही जो लखें नित श्याम, वही शुचि सांवरो रूप लला को.|
कान वही जो सुनै धुनी मुरली, बजाई धरे सिर मोर पखा जो |
तन तौ वही जो निछावर होय,धरे हिये रूप वा ऊधो सखा को |

हाथ वही जो जुड़ें हर्षित मन , देखिकें लीला जो गौ दोहन की |
पैर वही जो कोस चौरासी , चलें परिकम्मा में गिरि गोधन की |
ध्यान वही जो रमई नित प्रति, मनमोहिनी वा छवि में सोहन की |
श्याम है मन तौ वही मन ही मन मुग्ध मुरलिया पै मनमोहन की |

गलियाँ वही व्रज की गलियाँ ,जहँ धूलि में लोटे कृष्ण मुरारी |
वन तौ वही वृन्दावन 'श्याम , बसें जहँ राधिका-रास बिहारी |
ताल वही जहँ चीर हरे, दई गोपीन कों सुचि सीख सुखारी |
चीर वही जो बढाए सखा,सखि द्रुपद सुता हो आर्त पुकारी |

बैन वही जो उचारै सदा, वही गोबिंद नाम भजै जग सारो |
रसना वही रस धार बहाय,भाजी जेहि गोबिंद नाम पियारो |
भक्ति वही गजराज करी,परे दुःख में गोबिंद काज संभारो |
श्याम, वही नर गोविद गोविन्द, गोबिंद ,गोविन्द नाम उचारो ||

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

माँ...........................(कविता)..................मोनिका गुप्ता


माँ को है 

विरह वेदना और आभास कसक का 

ठिठुर रही थी वो पर 

कबंल ना किसी ने उडाया 

चिंतित थी वो पर 

मर्म किसी ने ना जाना 

बीमार थी वो पर 

बालो को ना किसी ने सहलाया 

सूई लगी उसे पर 

नम ना हुए किसी के नयना 

चप्पल टूटी उसकी पर 

 मिला ना बाँहो का सहारा 

कहना था बहुत कुछ उसे

पर ना था कोई सुनने वाला 

भूखी थी वो पर 

खिलाया ना किसी ने निवाला 

समय ही तो है उसके पास पर 

उसके लिए समय नही किसी के पास 

क्योंकि 

वो तो माँ है माँ

और 

माँ तो मूरत है  

प्यार की, दुलार की, ममता की ठंडी छावँ की, 

लेकिन 

कही ना कही उसमे भी है 

विरह, वेदना, तडप और आभास कसक का 

शायद माँ को आज भी है इंतजार अपनो की झलक का

बुधवार, 28 जुलाई 2010

गीतिका ................................डॉ. वेद व्यथित

हमारे नाम के चर्चे जहाँ पर भी हुए होंगे 
वहाँ पर खूब आंधी और तूफान भी हुए होंगे 
तुम्हे कैसे कहूँ मैं मोम भी पाषाण होता है
इन्ही बातों से लोगों के जहन भी हिल गये होंगे 
खबर है क्या तुम्हे वोप भूख को उपवास कहता है 
खबर होती तो सिंघासन तुम्हारे हिल गये होंगे 
महज अख़बार की कालिख बने हैं और वे क्या हैं 
फखत शब्दों से कैसे पेट जनता के भरे  होंगे 
तुम्हारे चंद जुमले तैरते फिरते हवा में हैं 
उन्हें कुछ पालतू मन्त्रों की भांति रट रहे होंगे 
तुम्ही ने नाम करने को ही उस में बद मिलाया है 
उसी खातिर   ये ऐसे कारनामे खुद किये होंगे 
उन्हें मैंने कहा कि आप भी मुख से जरा बोलेन 
उसी से छल कपट के भेद सरे खुल रहे होंगे
 यदि इन कारनामों को ही तुम  सेवा बताते हो
तो निश्चित अर्थ सेवा के तुम्ही से गिर गये होंगे 

सोमवार, 26 जुलाई 2010

भलाई किये जा इबादत समझ कर.............(गजल)..........नीरज गोस्वामी


सितम जब ज़माने ने जी भर के ढाये 
भरी सांस गहरी बहुत खिलखिलाये 

कसीदे पढ़े जब तलक खुश रहे वो
खरी बात की तो बहुत तिलमिलाये 

न समझे किसी को मुकाबिल जो अपने 
वही देख शीशा बड़े सकपकाये 

भलाई किये जा इबादत समझ कर 
भले पीठ कोई नहीं थपथपाये 

खिली चाँदनी या बरसती घटा में 
तुझे सोच कर ये बदन थरथराये 

बनेगा सफल देश का वो ही नेता 
सुनें गालियाँ पर सदा मुसकुराये 

बहाने बहाने बहाने बहाने 
न आना था फिर भी हजारों बनाये 

गया साल 'नीरज' तो था हादसों का 
न जाने नया साल क्या गुल खिलाये

रविवार, 25 जुलाई 2010

नव गीतिका...........................डॉ. वेद व्यथित

बहुत तन्हाईयाँ मुझ को भी तो अच्छी नही लगती 

परन्तु क्या करूं मुझ को यही जीना सिखाती हैं 

बहुत तन्हाइयों के दिन भुलाये भूलते कब हैं

वह तो खास दिन थे जिन्हों की याद आती है 

यही तन्हाईयाँ तो आजकल मेरा सहारा हैं 

सफर में जब भी चलता हूँ हई तो साथ जाती हैं 

उन्होंने भूल कर के भी कभी आ कर नही पूछा

 यह तन्हाईयाँ ही हाल मेरा पूछ जाती हैं

बहुत अच्छी हैं ये तन्हाईयाँ कैसे बुरा कह दूं 

इन्ही तन्हाइयों में तुम्हारी याद आती है 

यह तन्हाईयाँ मुझ से कभी भी दूर न जाएँ 

इन्ही के सहारे मेरी भी किस्ती पार जाती है 

इन्ही तन्हाइयों ने मुझ को बेपर्दा किया यूं है 

बताता कुछ नही फिर भी पता सब चल ही जाती है 

मोहब्बत मांग ली थी कुछ सुकून के वास्ते मैंने 

उसी के साथ में तन्हाईयाँ खुद मिल ही जाती हैं

बहुत कीमत है इन तन्हाईयों की खर्च न करना 

तिजोरी दिल को तो इन से हमेशा भरी जाती है 

शनिवार, 24 जुलाई 2010

सिफर का सफ़र.................श्यामल सुमन

नज़र बे-जुबाँ और जुबाँ बे-नज़र है
इशारे समझने का अपना हुनर है

सितारों के आगे अलग भी है दुनिया
नज़र तो उठाओ उसी की कसर है

मुहब्बत की राहों में गिरते, सम्भलते
ये जाना कि प्रेमी पे कैसा कहर है

जो मंज़िल पे पहुँचे दिखी और मंज़िल।
ये जीवन तो लगता सिफर का सफ़र है।।

रहम की वो बातें सुनाते हमेशा
दिखे आचरण में ज़हर ही ज़हर है

कई रंग फूलों के संग थे चमन में
ये कैसे बना हादसों का शहर है

है शब्दों की माला पिरोने की कोशिश
सुमन ये क्या जाने कि कैसा असर है

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

हिंदी के प्रति आपकी सोच सकारात्मक या नकारात्मक ? ...........(आलेख)...........भूतनाथ जी


  दोस्तों , बहुत ही गुस्से के साथ इस विषय पर मैं अपनी
भावनाएं आप सबके साथ बांटना चाहता हूँ ,वो यह कि हिंदी के साथ आज जो किया
जा रहा है ,जाने और अनजाने हम सब ,जो इसके सिपहसलार बने हुए हैं,इसके साथ
जो किये जा रहे हैं....वह अत्यंत दुखद है...मैं सीधे-सीधे आज आप सबसे यह
पूछता हूँ कि मैं आपकी माँ...आपके बाप....आपके भाई-बहन या किसी भी दोस्त-
रिश्तेदार या ऐसा कोई भी जिसे आप पहचानते हैं....उसका चेहरा अगर बदल दूं
तो क्या आप उसे पहचान लेंगे....???एक दिन के लिए भी यदि आपके किसी भी
पहचान वाले चेहरे को बदल दें तो वो तो कम ,अपितु आप उससे अभिक " "
परेशान "हो जायेंगे.....!!
  थोड़ी-बहुत बदलाहट की और बात होती है....समूचा ढांचा ही
" रद्दोबदल " कर देना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता.....सिर्फ एक
बार कल्पना करें ना आप....कि जब आप किसी भी वास्तु को एकदम से बिलकुल ही
नए फ्रेम में नयी तरह से अकस्मात देखते हैं,तो पहले-पहल आपके मन में उसके
प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है...!!...तो थोडा-बहुत तो क्या बल्कि उससे
बहुत अधिक बदलाहट को हिंदी में स्वीकार ही कर लिया गया है बल्कि उसे
अधिकाधिक प्रयोग भी किया जाने लगा है...यानी कि उसे हिंदी में बिलकुल समा
ही लिया गया है....किन्तु अब जो स्थिति आन पड़ी है....जिसमें कि हिंदी को
बड़े बेशर्म ढंग से ना सिर्फ हिन्लिश में लिखा-बोला-प्रेषित किया जा रहा
है बल्कि रोमन लिपि में लिखा भी जा रहा है कुछ जगहों पर...और तर्क है कि
जो युवा बोलते-लिखते-चाहते हैं...!!
  ....तो एक बार मैं सीधा-सीधा यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि
युवा तो और भी " बहुत कुछ " चाहते हैं....!!तो क्या आप अपनी
प्रसार-संख्या बढाने के " वो सब " भी "उन्हें" परोसेंगे....??तो फिर
दूसरा प्रश्न मेरा यह पैदा हो जाएगा....तो फिर उसमें आपके
बहन-बेटी-भाई-बीवी-बच्चे सभी तो होंगे.....तो क्या आप उन्हें भी...."वो
सब" उपलब्ध करवाएंगे ....तर्क तो यह कहता है दुनिया के सब कौवे काले
हैं....मैं काला हूँ....इसलिए मैं भी कौवा हूँ....!!....अबे ,आप इस तरह
का तर्क लागू करने वाले "तमाम" लोगों अपनी कुचेष्टा को आप किसी और पर
क्यूँ डाल देते हो....??
  मैं बहुत गुस्से में आप सबों से यह पूछना चाहता हूँ...कि
रातों-रात आपकी माँ को बदल दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा....??यदि आप यह
कहना चाहते हैं कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा....या फिर आप मुझे गाली देना
चाह रहे हों....या कि आप मुझे नफरत की दृष्टि से देखने लगें हो...इनमें
से जो भी बात आप पर लागू हो,उससे यह तो प्रकट ही है कि ऐसा होना आपको
नागवार लगेगा बल्कि मेरे द्वारा यह कहा जाना भी आपको उतना ही नागवार
गुजर रहा है....तो फिर आप ही बताईये ना कि आखिर किस प्रकार आप अपनी भाषा
को तिलांजलि देने में लगे हुए हैं ??
  आखिर हिंदी रानी ने ऐसा क्या पाप किया है कि जिसके कारण
आप इसकी हमेशा ऐसी-की-तैसी करने में जुटे हुए रहते है...???....हिंदी ने
आपका कौन-सा काम बिगाड़ा है या फिर उसने आपका ऐसा कौन-सा कार्य नहीं
बनाया है कि आपको उसे बोले या लिखे जाने पर लाज महसूस होती है....क्या
आपको अपनी बूढी माँ को देखकर शर्म आती है...??यदि हाँ ,तो बेशक छोड़
दीजिये माँ को भी और हिंदी को अभी की अभी....मगर यदि नहीं...तो हिंदी की
हिंदी मत ना कीजिये प्लीज़....भले ही इंग्लिश आपके लिए ज्ञान-विज्ञान
वाली भाषा है... मगर हिंदी का क्या कोई मूल्य नहीं आपके जीवन में...??
  क्या हिंदी में "...ज्ञान..."नहीं है...??क्या हिंदी
में आगे बढ़ने की ताब नहीं ??क्या हिंदी वाले विद्वान् नहीं
होते....??मेरी समझ से तो हिंदी का लोहा और संस्कृत का डंका तो अब आपकी
नज़र में सुयोग्य और जबरदस्त प्रतिभावान- संपन्न विदेशीगण भी मान रहे
हैं...आखिर यही हिंदी-भारत कभी विश्व का सिरमौर का रह चुका
है....विद्या-रूपी धन में भी....और भौतिक धन में भी...क्या उस समय
इंग्लिश थी भारत में....या कि इंगलिश ने भारत में आकर इसका भट्टा बिठाया
है...इसकी-सभ्यता का-संस्कृति का..परम्परा का और अंततः समूचे संस्कार
का...भी...!!
  आज यह भारत अगर दीन-हीन और श्री हीन होकर बैठा है तो उसका
कारण यह भी है कि अपनी भाषा...अपने श्रम का आत्मबल खो जाने के कारण यह
देश अपना स्वावलंबन भी खो चुका,....सवा अरब लोगों की आबादी में कुछेक
करोड़ लोगों की सफलता का ठीकरा पीटना और भारत के महाशक्ति होने का
मुगालता पालना...यह गलतफहमी पालकर इस देश के बहुत सारे लोग बहुत गंभीर
गलती कर रहे हैं...क्यूँ कि देश का अधिकांशतः भाग बेहद-बेहद-बेहद गरीब
है...अगर अंग्रेजी का वर्चस्व रोजगार के साधनों पर न हुआ होता...और
उत्पादन-व्यवस्था इतनी केन्द्रीयकृत ना बनायी गयी होती तो....जैसे
उत्पादन और विक्रय-व्यवस्था भारत की अपनी हुआ करती थी....शायद ही कोई
गरीब हुआ होता...शायद ही स्थिति इतनी वीभत्स हुई होती....मार्मिक हुई
होती...!!
  हिंदी के साथ वही हुआ , जो इस देश अर्थव्यवस्था के साथ
हुआ....आज देश अपनी तरक्की पर चाहे जितना इतरा ले...मगर यहाँ के
अमीर-से-अमीर व्यक्ति में भाषा का स्वाभिमान नहीं है....और एक गरीब
व्यक्ति का स्वाभिमान तो खैर हमने बना ही नहीं रहने दिया....और ना ही
मुझे यह आशा भी है कि हम उसे कभी पनपने भी देंगे.....!!ऐसे हालात में
कम-से-कम जो भाषा भाई-चारे-प्रेम-स्नेह की भाषा बन सकती है....उसे हमने
कहीं तो दोयम ही बना दिया है...कहीं झगडे का घर....तो कहीं जानबूझकर
नज़रंदाज़ किया हुआ है...वो भी इतना कि मुझे कहते हुए भी शर्म आती
है...कि इस देश का तमाम अमीर-वर्ग ,जो दिन-रात हिंदी की खाता है....ओढ़ता
है...पहनता है....और उसी से अपनी तिजोरी भी भरता है....मगर सार्वजनिक
जीवन में हिंदी को ऐसा लतियाता है....कि जैसे खा-पीकर-अघाकर किसी "रंडी"
को लतियाया जाता हो.....मतलब पेट भरते ही....हिंदी की.....!!!ऐसे बेशर्म
वर्ग को क्या कहें ,जो हिंदी का कमाकर अंग्रेजी में टपर-टपर करता
है.....जिसे जिसे देश का आम जन कहता है बिटिर-बिटिर....!!
  क्या आप कभी अपनी दूकान से कमाकर शाम को दूकान में आग
लगा देते हैं.....??क्या आप जवान होकर अपने बूढ़े माँ-बाप को धक्का देकर
घर से बाहर कर देते हैं....तो
हुजुर....माई.....बाप....सरकारे-आला....हाकिम....हिंदी ने भी आपका क्या
बिगाड़ा है,....वह तो आपकी मान की तरह आपके जन्म से लेकर आपकी मृत्यु तक
आपके हर कार्य को साधती ही है....और आप चाहे तो उसे और भी लतियायें,अपने
माँ-बाप की तरह... तब भी वह आखिर तक आपके काम आएगी ही...यही हिंदी का
अपनत्व है आपके प्रति या कि ममत्व ,चाहे जो कहिये ,अब आपकी मर्ज़ी है कि
उसके प्रति आप नमक-हलाल बनते हैं या "हरामखोर......"??

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

याद आता है.......(कविता).................. सुमन 'मीत'

याद आता है

वो माँ का लोरी सुनाना

कल्पना के घोड़े पर

परियों के लोक ले जाना

चुपके से दबे पांव

नींद का आ जाना

सपनों की दुनियाँ में

बस खो जाना ...खो जाना...खो जाना..................


 

याद आता है

वो दोस्तों संग खेलना

झूले पर बैठ कर

हवा से बातें करना

कोमल उन्मुक्त मन में

इच्छाओं की उड़ान भरना

बस उड़ते जाना...उड़ते जाना...उड़ते जाना.............


 

याद आता है

वो यौवन का अल्हड़पन

सावन की फुहारें

वो महका बसंत

समेट लेना आँचल में

कई रुमानी ख़ाब

झूमना फिज़ाओं संग

बस झूमते जाना...झूमते जाना...झूमते जाना............


 

याद आता है

वो हर गुजरा पल

बस याद आता है...याद आता है...याद आता है................!!

सामाजिक सरोकारों का संरक्षण आवश्यक है

सामाजिक सरोकारों का संरक्षण आवश्यक है
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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समाज की व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन के लिए इंसान ने परम्पराओं, मूल्यों, सरोकारों की स्थापना की। समय के सापेक्ष चलती व्यवस्था ने अपने संचालन की दृष्टि से समय-समय पर इनमें बदलाव भी स्वीकार किये। पारिवारिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से, आर्थिक दृष्टि से पूर्वकाल से अद्यतन सामाजिक व्यवस्थाएँ बनती बिगड़तीं रहीं। जीवन के सुव्यवस्थित क्रम में मूल्यों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। मानव विकास का ऐतिहासिक दृश्यावलोकन करें तो ज्ञात होगा कि अकेले-अकेले रहते आ रहे मानव को किसी न किसी रूप में परिवार की, एक समूह की आवश्यकता महसूस हुई होगी। इसी आवश्यकता ने परिवार जैसी संस्था का विकास किया।

मानव की आवश्यकताएँ हमेशा से अनन्त रहीं हैं। इन आवश्यकताओं में कुछ आवश्यकताओं को मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में देखा जा सकता है तो कुछ आवश्यकताएँ स्वयं मानव जनित हैं। मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में इंसान ने जो कुछ पाया, जो कुछ खोजा उसी को व्यवस्थित रूप देने के लिए ही एक व्यापक व्यवस्था बनाई गई। इसी व्यवस्था को किसी ने परम्परा का नाम दिया तो किसी ने इसे सरोकारों का नाम दिया।

देखा जाये तो सरोकारों का उपयोग आजकल हम किसी न किसी काम में करके देखते हैं। कभी शिक्षा के सामाजिक सरोकारों की बात होती है तो कभी मीडिया के सामाजिक सरोकारों की चर्चा होती है। किसी के द्वारा राजनीति के सामाजिक सरोकारों को खोजा जाता है तो कभी इंसान के सामाजिक सरोकारों के लिए बहस शुरू की जाती है। सवाल यह उठता है कि सामाजिक सरोकार क्या समय के साथ परिवर्तित होते रहते हैं अथवा प्रत्येक कालखण्ड में सामाजिक सरोकार अपरिवर्तित रहते हैं?

सामाजिक सरोकारों में समय-समय पर इंसान की सुविधानुसार परिवर्तन होते रहे हैं। कभी व्यक्ति ने परिवार के हिसाब से सामाजिक सरोकारों का निर्माण किया तो कभी उसने अपने कार्य की प्रकृति के अनुसार सरोकारों को देखा। सामाजिक सरोकार के नाम पर इंसान ने सदा अपनी सुविधा को ही तलाशन का प्रयास किया है। पारिवारिक संदर्भों में यदि हम देखें तो पायेंगे कि इंसान ने जब परिवार की अवधारणा का विकास किया होगा तो उस समय उसने संयुक्त परिवार के चलन को वरीयता दी थी। कबीलाई संस्कृति कहीं न कहीं संयुक्त जीवनशैली का ही उदाहरण कही जा सकती है। इस संस्कृति के बाद ही परिवारों का एक साथ रहना सामाजिक सरोकारों में शुमार किया गया। समय बदला और समय के साथ-साथ इंसान की आवश्यकताओं ने भी अपना रूप बदल लिया। संयुक्त परिवार को प्राथमिक मानने वाला इंसान अपनी जरूरत के अनुसार एकल परिवारों में सिमट गया।

एकल परिवारों का चलन धीरे-धीरे नाभिकीय परिवारों के रूप में आज दिखाई दे रहा है। स्त्री हो या पुरुष अब वह अकेले ही रहने में विश्वास करने लगा है। परिवार को लेकर निर्धारित किये गये सरोकार आज बदलते और सहज स्वीकार्य दिखाई दे रहे हैं। परिवारों में एकल की धारणा के साथ-साथ पति-पत्नी के प्रति आपसी सम्बन्धों के ताने-बाने ने भी परिवर्तन किया है।

स्त्री-पुरुष के आपसी सम्बन्धों से इतर पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। अब पत्नी हो या पति उसे विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धों को बनाने और उनको स्वीकारने में किसी तरह की झिझक नहीं दिखाई दे रही है। विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धों की सहज स्वीकारोक्ति और उसके बाद तलाक के रूप में अंतिम परिणति को स्त्री और पुरुष दोनों ही सहज भाव से स्वीकार रहे हैं।

ऊपर दिया गया परिवार का उदाहरण तो एक बानगी भर है यह समझाने के लिए कि हम किस तरह से सरोकारों को मिटाते हुए अपनी एक गैर-आधार वाली व्यवस्था का निर्माण करते चले जा रहे हैं। यह आवश्यक नहीं कि हम सरोकारों के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पुरानी मान्यताओं को ढोते रहें किन्तु यह तो और भी अनावश्यक समझ में आता है कि मात्र स्वार्थपूर्ति के लिए सरोकारों में तोड़मरोड़ करने लगना। समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ही सामाजिक सरोकारों का निर्माण किया गया था। समाज के ढाँचे में व्यक्ति ने अपने आपको स्थापित करने के लिए इन सरोकारों को सहज रूप में स्वीकार भी किया था।

किसी भी क्षेत्र में देखें तो हमें सामाजिक सरोकारों का क्षरण भली-भाँति दिखाई देता है। इस क्षरण के पीछे मनूष्य की असीमित रूप से कुछ भी पा लेने की लालसा दिखाई देती है। राजनीति हो अथवा मीडिया, शिक्षा हो अथवा व्यवसाय, धर्म हो अथवा कोई अन्य कार्य सभी में सरोकारों का विघटन आसानी से दिखाई देने लगा है। इस विघटन को आसानी से अस्वीकारने का काम भी चल रहा है। किसी को भी मूल्यों के ध्वस्त होने के बार में समझाया जाये, सरोकारों के विघटन के बारे में बताया जाये तो वह इसे सहज रूप में नहीं ले पा रहा है। आधुनिकता, औद्योगीकरण, वैश्वीकरण आदि जैसे भारीभरकम नामों के बीच मूल बिन्दू को तिरोहित कर दिया जाता है।

हम स्वयं आकलन करें कि परिवार के, समाज के सरोकारों को तोड़कर हम किस प्रकार के समाज का निर्माण अथवा संचालन करना चाहते हैं? रिश्तों के नाम की, मर्यादा की आहुति देकर किसी के साथ भी शारीरिकता को स्वीकार करके हम किस प्रकार के खुले समाज को स्वीकार कर रहे हैं? शिक्षा के नाम पर नित नये प्रयोग हमें किस दिशा में ले जा रहे हैं? नैतिक शिक्षा को मजाक समझकर उसको हाशिये पर खड़ा करने वाले अनैतिक समाज के निर्माण से क्या चाहते हैं? मूल्य विहीन राजनीति के द्वारा हम कौन से सरोकारों का प्रदर्शन कर रहे हैं? दिन प्रति दिन लोकतन्त्र की होती समाप्ति और अघोषित रूप से निर्मित होते जा रही राजशाही के द्वारा राजनीति में किन सरोकारों की स्थापना का संकल्प ले रखा है?

ये मात्र सवाल नहीं हैं, कुछ ज्वलन्त स्थितियाँ हैं जो नित हमें पतन की ओर ले जा रहीं हैं। एक छोटी सी बानगी ये है कि प्रत्येक कार्य में किसी न किसी रूप में नारी शरीर का उपयोग किया जाने लगा है। नारी तन के कपड़े कम से कमतर होते-होते समाप्ति की ओर चले जा रहे हैं। पुरुष की विकृत मानसिकता दिन प्रति दिन और विकृत होती जा रही है। कन्याओं का कोख में ही दम तोड़ते जाना अपनी अलग कहानी कह रहा है। बहुत कुछ है जो सरोकारों के नाम पर कुछ और ही परोस रहा है। चिन्तन का समय जा चुका है। एक कदम उठाना होगा जो समय सापेक्ष स्थिति का आकलन कर सामाजिक सरोकारों का सही-सही निर्धारण कर सके।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

आतंकवाद ...........(कविता)...........मीना मौर्या


न देखने लायक था आज वही मंजर देखा ,


खुशियों से भरे घर में कुदरत का कहर बरसते देखा ,


आतंक के आतंकियों से एक माँ के लाल को,


आखिरी साँस तक लड़ते हुए मरते देखा .


वर्षों के ख्वाब होने वाले थे पूरे,


ऐसे सपनों को क्षण भर में बिखरते देखा ,.


जीवन के दूसरे सफर की उसने की थी तैयारी ,


उसके सीने में लगते हमने खंजर देखा ,


खून के रंग में रंगा लाल- लाल खंजर देखा,


एक माँ की आँखों में आँसूओं का समंदर देखा .


दूल्हे के शेहरे का फूल यूँ ही था बिखरा ,


उन फूलों को दुल्हन को अर्थी पर करते अर्पण देखा.


रोते बिखलते बूढ़े एक बाप को,


जवान बेटे का ढोते हमने मैय्यत देखा ,


देखने लायक था आज वही मंजर देखा ,


आतंक के डर  से सबका रूह कापते देखा ...

गजल.........................दीपक शर्मा

माफ़ कर दो आज देर हो गई आने में 
वक़्त लग जाता है अपनों को समझाने में।


किरण के संग संग ज़माना उठ जाता है 
.देखना पड़ता है मौका छुप के आने में ।


रूठ के ख़ुद को नहीं ,मुझको सजा देते हो 
क्या मज़ा आता है यूं मुझको तड़पाने में ।


एक लम्हे में कोई भी बात बिगड़ जाती है 
उम्र कट जाती है उलझन कोई सुलझाने में ।


तेरी ख़ुशबू से मेरे जिस्म "ओ"जान नशे में हैं 
"दीपक" जाए भला फिर क्यों किसी मयखाने में ।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

नई दुनिया ... नई उडान ... आओ बनाए ........ अलग पहचान ............(लेख).................मोनिका गुप्त.

कल मैने एक बस स्टाप पर पढा कि “यहाँ बस ठहरती है समय नही” .... सच, समय तो कभी नही रुकता. बस चलता ही रहता है. अब ये अपने उपर है कि हम इसका कितना इस्तेमाल कर पाते हैं ...

इसमे कोई शक नही कि जमाना बदल रहा है. चारो तरफ बस बदलाव ही बदलाव है ... कोई भी क्षेत्र ले लो हर जगह यही हाल है. समय की माँग़ को देखते हुए आजकल पढाई पर भी बहुत जोर दिया जाने लगा है ..बहुत अच्छा लगता है यह सब देख कर. पर दुख तब होता है जब इतनी पढाई के बाद भी ढ्ग की नौकरी नही मिलती. खास कर लडकियो और महिलाओ के लिए तो और भी ज्यादा सोचने की बात हो जाती है ...ऐसे मे ना सिर्फ उन्हे घर बैठना पड जाता है बलिक वो खुद को भी बेकार मह्सूस करने लगती हैं कि हमारा पढा लिखा होना सब बेकार .. किसी काम ना आया ... यही बात लागू होती है उन लोगो पर जो नौकरी से रिटायर हो कर खाली बैठ जाते है . अब सोचने की बात है कि इतना अनुभव किस काम आएगा .... ना तो कोई उनकी बाते सुनने को तैयार ना कोई पास बैठने को तैयार ... तो फिर वो क्या करें ..बात सिर्फ इनकी ही नही है बलिक उन नौजवानो की भी है जो दिन रात अच्छी नौकरी की तलाश मे बस घूमते ही रहते है पर मन पसंद नौकरी नही मिल पाती .तो क्या वो भी हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाए ..घर वालो पर बोझ बन जाए. कई बार ऐसे भी परिवार होते है जिनका तबादला होता रहता है और नया सर्कल ना बनने के कारण वो अकेले हो जाते हैं और बोर होते रहते हैं उन्हे नई जगह आकर समय निकालना एक बोझ लगने लगता है ऐसे मे वो करें तो क्या करें जबकि वो कुछ क्रियात्मक करना चाहते हैं ....ऐसे ना जाने कितने उदाहरण है . पर सोचने की बात है कि फिर ऐसे मे किया तो क्या किया जाए ..कहने को हमारी टेकनोलोजी ने बहुत कुछ किया है पर इस क्षेत्र मे भी कुछ किया है या नही ...

तो मेरा जवाब है कि हाँ ... इस क्षेत्र मे भी बहुत कुछ हो रहा है पर अभी पूरी जानकारी ना होने के कारण इसे सही दिशा नही मिल पा रही है ..अब आपके मन मे प्रश्न आ रहा होगा कि क्या है यह ....और हम क्या कर सकते हैं

असल मे अगर हम काम करना चाहते है तो चाहे हम खाली घर पर बैठे हो या पार्ट टाईम काम कर रहे हो ... हम इसे आराम से घर बैठ कर कमाई का साधन बना सकते है बस इसके लिए आपको थोडी कम्प्यूटर की नालिज होनी जरुरी है और आपकी लग्न और इच्छा शक्ति. अगर यह सब आप मे है तो ज्यादा समय मत लगाइए बस काम मे जुट जाइए और मौके का फायदा उठा कर इसे कमाई का साधन भी बनाइए .

इसे “होम बेसड बिजनस” कहा जाता है या “वर्क एट होम” यानि घर बैठ कर काम करना भी कहते है ..इस काम मे आप दिन मे अपने हिसाब से 2-4 घंटे या जितना आप समय निकाल सकते हैं उतना निकाल कर जुट जाइए ..

अब बात यहाँ आती है कि सही जानकारी कहाँ से और कैसे मिल सकती है तो इसका हल भी है .. वैसे तो बहुत साईट है आपको जानकारी देने के लिए पर आपको सारी जानकारी अगर चाहिए तो इस क्षेत्र मे एक जाना माना नाम है संजय गुप्ता का .. उन्होने पिछ्ले 3-4 सालो मे इस पर बहुत काम किया है और वो इस नतीजे पर पहुचें है कि अगर इस काम को गम्भीरता से किया जाए तो सफलता आपके कदमो मे होगी.


तो क्या आप तैयार है नई दुनिया मे कदम रखने को....

रविवार, 18 जुलाई 2010

बरसात.............(कविता)......................सुमन 'मीत'


घना फैला कोहरा

कज़रारी सी रात

भीगे हुए बादल लेकर

फिर आई है ‘बरसात’

 

अनछुई सी कली है मह्की

बारिश की बूंद उसपे है चहकी

भंवरा है करता उसपे गुंजन

ये जहाँ जैसे बन गया है मधुवन

 

रस की फुहार से तृप्त हुआ मन

उमंग से जैसे भर गया हो जीवन

’बरसात’ है ये इस कदर सुहानी

जिंदगी जिससे हो गई है रूमानी !!

शनिवार, 17 जुलाई 2010

पावस गीत ---क्या हो गया..........डा श्याम गुप्त

इस प्रीति की बरसात में ,
भीगा हुआ तन मन मेरा |
कैसे कहें ,क्या होगया,
क्या ना हुआ , कैसे कहें ||

चिटखीं हैं कलियाँ कुञ्ज में ,
फूलों से महका आशियाँ |
मन का पखेरू उड़ चला,
नव गगन पंख पसार कर ||

इस प्रीति स्वर के सुखद से,
स्पर्श मन के गहन तल में |
छेड़ वंसी के स्वरों को ,
सुर लय बने उर में बहे ||

बस गए हैं हृदय-तल में ,
बन, छंद बृहद साम के |
रच-बस गए हैं प्राण में,  
 बन करके अनहद नाद से ||

कुछ न अब कह पांयगे,
सब भाव मन के खोगये,
शब्द,स्वर, रस ,छंद सारे-
सब तुम्हारे ही होगये ||

अब हम कहैं या तुम कहो,
कुछ कहैं या कुछ ना कहैं |
प्रश्न उत्तर भाव सारे,
प्रीति रस में ही खोगये ||

तस्वीर......................श्यामल सुमन

अगर तू बूँद स्वाती की, तो मैं इक सीप बन जाऊँ
कहीं बन जाओ तुम बाती, तो मैं इक दीप बन जाऊँ
अंधेरे और नफरत को मिटाता प्रेम का दीपक
बनो तुम प्रेम की पाँती, तो मैं इक गीत बन जाऊँ

तेरी आँखों में गर कोई, मेरी तस्वीर बन जाये
मेरी कविता भी जीने की, नयी तदबीर बन जाये
बडी मुश्किल से पाता है कोई दुनियाँ में अपनापन
बना लो तुम अगर अपना, मेरी तकदीर बन जाये

भला बेचैन क्यों होता, जो तेरे पास आता हूँ
कभी डरता हूँ मन ही मन, कभी विश्वास पाता हूँ
नहीं है होंठ के वश में जो भाषा नैन की बोले
नैन बोले जो नैना से, तरन्नुम खास गाता हूँ

कई लोगों को देखा है, जो छुपकर के गजल गाते
बहुत हैं लोग दुनियाँ में, जो गिरकर के संभल जाते
इसी सावन में अपना घर जला है क्या कहूँ यारो
नहीं रोता हूँ फिर भी आँख से, आँसू निकल आते

है प्रेमी का मिलन मुश्किल, भला कैसी रवायत है
मुझे बस याद रख लेना, यही क्या कम इनायत है
भ्रमर को कौन रोकेगा सुमन के पास जाने से
नजर से देख भर लूँ फिर, नहीं कोई शिकायत है

बुधवार, 14 जुलाई 2010

पूजा की थाली हो गई................नीरज गोस्वामी

बात सचमुच में निराली हो गईं
अब नसीहत यार गाली हो गई 

ये असर हम पर हुआ इस दौर का
भावना दिल की मवाली हो गई

डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियां
वो समझ पूजा की थाली हो गई

तय किया चलना जुदा जब भीड़ से 
हर नज़र देखा, सवाली हो गयी 

कैद का इतना मज़ा मत लीजिये 
रो पड़ेंगे, गर बहाली हो गयी 

थी अमावस सी हमारी ज़िन्दगी 
मिल गये तुम, तो दिवाली हो गयी 

हाथ में क़ातिल के ‘‘नीरज’’ फूल है
बात अब घबराने वाली हो गई

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

वरिष्ठ कवि अरुण कमल से अरविन्द श्रीवास्तव की बातचीत


आज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड़ी है......वरिष्ठ कवि अरुण कमल से अरविन्द श्रीवास्तव की बातचीतः-

अरविन्द श्रीवास्तव- भूमंडलीयकरण और बाजारवाद में आप युवा कवियों से क्या-क्या अपेक्षाएँ रखते हैं ?अरुण कमल- मुझे कभी किसी कवि से कोई अपेक्षा नहीं होती । कवि जो भी कहता है मैं उसे सुनता हूँ। अगर उसकी धुन मेरी धुन से , मेरे दिल की धड.कन से , मिल गयी तो उसे बार-बार पढ.ता हूँ।दूसरी बात यह कि युवा कवि कहने से आजकल प्रायः किसी ‘कमतर’ या ‘विकासशील’ कवि का बोध होता है जो गलत है। दुनिया के अनेक महान कवियों न अपनी श्रेष्ठतम रचनाएँ तब रचीं जब वे युवाथे। इसलिए हिन्दी के युवा कवि जो लिख रहे हैं मैं उसे हृदयंगम करने की योग्यता पा सकूँ, मेरा प्रयत्न यही होगा। अपेक्षा कवि से नहीें पाठक से है।

अरविन्द श्रीवास्तवः आप युवा कवियों के प्रेरणास्रोत रहे हैं अपने लेखन के आरम्भिक दिनों आपने किन से और कहाँ से प्रेरणा ग्रहण की ?

अरुण कमलः मैं कभी किसी का प्रेरणास्रोत नहीं रहा। अपने पहले के कवियों एवं बाद के कवियों - दोनों तरफ से मैने प्रायः प्रहार झेले हैं, जिसका मुझे कोई गम नहीं है। मेरे प्रेरणास्रोत शुरू में धूमिल भी थे, फिर नागार्जुन-त्रिलोचन और निराला। मैं विस्तार से इस बारे में पहले कह चुका हूँ जो मेरी पुस्तक - ‘कथोपकथन’ में संकलित हैं। अभी मेरे प्रिय कवि निराला तो है हीं तुलसी, कबीर, गालिब, नजीर और शेक्सपीयर हैं। और सबसे प्रिय ग्रंथ ‘महाभारत’।

अरविन्द श्रीवास्तवः ‘अपनी केवल धार’ सहित आपके चारों कविता संग्रह में आपका सर्वाेतम काव्य कर्म किसे माना जाएगा ?

अरुण कमलः मैंने जो कुछ लिखा वो उत्तम भी नहीं है। अधिक से अधिक वह अधम कोटि का है। मैं अच्छा लिखना चाहता हूँ लेकिन वह मेरे वस में नहीं है। देखें क्या होता है।

अरविन्द श्रीवास्तव- इधर के पन्द्रह-बीस वर्षों में विशेषकर सोवियत संध के विघटन के पश्चात समकालीन कविता लेखन में अगर कुछ विचारधारात्मक बदलाव आया है, तो उसे आप किस रूप में लेते हैं ?

अरुण कमल- आज कविता , साहित्य मात्र तथा कला और यहाँ तक कि राजनीति मेें भी राजनीति कम हुई है । माक्र्स के अनुसार राजनीति का अर्थ है वर्ग- संघर्ष और सत्ता पर अधिकार के लिए दो वर्गों के बीच का संघर्ष । वर्ग-संधर्ष का स्थान अब जाति, क्षेत्र, लिंग, सम्प्रदाय आदि ने ले लिया है जो पूँजीवाद प्रेरित उत्तर आधुनिक दर्शन तथा व्यवहार का केन्द्र है । समाज में अनेक अन्तर्विरोध या अंतःसंघर्ष होते हैंं, किसी को झुठाया नहीं जा सकता । लेकिन एक मुख्य अंतर्विरोध होता है जो मेरी समझ से आर्थिक है और इसलिए वर्ग-आधारित। आज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड.ी है। मनुष्य को नष्ट करने वाले पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोध कम पड.ा है। इसका असर यह भी हुआ है कि किसी भी सामाजिक-आर्थिक प्रश्न पर यहाँ तक कि शुद्ध कलागत प्रश्नों पर भी, अब कोई पक्ष लेने और कहने से परहेज करता है। अगर आप सर्वेक्षण करके आज के लेखकों से पूछें कि उन्हें कौन से कवि पसंद हैं तो वे प्रायः खामोश रहेंगे । आप पिटते रहें पर वे तमाशा देखते रहेंगे । मुझे ब्रेख्त की कविता याद आती है जिसमें भाषण के अंत में वह आदमी मजमेंं में एक पुर्जा घुमाता है कि आप दस्तखत कर दो, लेकिन भीड. छँट जाती है, कोई दस्तखत नहीं करता । पुर्जे पर लिखा था ः ‘दो जोड. दो बराबर चार’। आज बहुत कम लोग ऐसे हैं जो निडर होकर यह भी कह सकें कि उन्हें उड.हुल का फूल सुंदर लगता है।  

अरविन्द श्रीवास्तव समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में कविता समाज से कटती जा रही है आलोचकों ने ‘कविता के बुरे दिन’ की धोषणा कर दी है, जब कि बडी आबादी कविता से उम्मीद लगाये हुई है? इस कसौटी पर नये कवि कहाँ खडे. उतर रहे हैं ?

अरुण कमल ः मैं नहीं समझता कि कविता कटती जा रही है। बल्कि समाज ही कविता से कटता जा रहा है। समाज को ऐसा बनाया जा रहा है, बनाया गया है कि वह सभी विकल्पों, प्रतिरोध करने वाली शक्तियों से कट कर केवल ‘आइ पी एल’ की शरण में चला जाए। जो भी रचना या शक्ति मुनाफे का विरोध करेगी उसे बाहर कर दिया जाएगा। अगर करोड.ों लोग भूखे सो रहे हैं तो यह मत कहिए कि अन्न उनसे कट गया है, कहिए कि पूँजीवादी सरकार और व्यवस्था ने उनसे अन्न छीन लिया है। यही बात कविता और कला और विज्ञान के साथ भी है।

अरविन्द श्रीवास्तवः साहित्यिक जगत खेमेबाजियों से ग्रसित होते जा रहे हंै क्या इससे ‘नवलेखन’ प्रभावित होते नहीं दिख रहा ?

अरुण कमल ः मुझे सबसे ज्यादा कोफ्त ऐसी ही बातों से होती है। साहित्य में, जैसे कि दर्शन और विज्ञान में, मूल्यों के बीच संधर्ष होता हैै। यह गुटबाजी नहीं हैै। यह खेमेबाजी नहीं हैै। मान लीजिए मुझे निराला प्रिय हैै। रामविलास शर्मा को भी। नामवर सिंह को ै। विश्वनाथ त्रिपाठी, नंद किशोर नवल, खगेन्द्र ठाकुर जी एवं परमानन्द जी को भी। शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन को भीै। तो क्या इसे गुटबाजी कहेंगे ? दूसरी तरफ आप लाख माथा पटकेंगे, फिर भी न तो मैं फलाँ जी को न अमुक जी को अच्छा कवि मानूँगा। आप कहेंगे यह तो जातिवाद है, यह तो विचार धारावाद है, यह तो गुटबाजी हैै। कहते रहिए लेकिन ‘तजिए ताहि कोटि बैरी सम.......जाके प्रिय न राम बैदेहि। साहित्य में खेमेबाजी नहीं होती। एक जैसा सोचने, पसंद करने, विश्वास करने वाले लोग एक साथ होते हैं, फिर भी लड.ते झगड.ते रहते हैं - यही होता।

अरविन्द श्रीवास्तवः अभी युवा कवियों की भावधारा से आप कितना आशान्वित हैं ? कौन से युवा कवि आपको आकर्षित कर रहे हैंं ?

अरुण कमलः मैं शुरू में इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ। आपका पहला प्रश्न इस बारे में ही तो है। जबतक मैं किसी कविता को बार-बार न पढूँ तबतक प्रभावित नहीं होता। बहुत से प्रतिभाशाली कवि हैं उन्हें ‘काँटों की बाड.ी’ में अपना रास्ता ढूंढने दीजिए जो सबसे ज्यादा लहूलुहान होकर आएगा वही मेरा प्रिय होगा; जो ‘कागद की पुडि.या’ भर होगा वह गल जाएगा।

अरविन्द श्रीवास्तवः इधर नई कविताओं में नये-नये प्रयोग हो रहे हैं, इसे रंगमंच पर खेला जा रहा है, पेंटिंग, पाठ और संगीत के माध्यम से आमजन तक पहुँचाया जा रहा है इसे आप किस रूप में लेते हैं? क्या इससे मूल कविता की गरिमा का अवमूल्यन तो नहीं हो रहा है ?

अरुण कमलः मूल कविता अपनी जगह अक्षत होती है। बाकी उसके अनेक पाठ या रूपांतर होते हैं; जितने पाठक उतने पाठ - ठीक ही तो है फिर भी वह मूल पात्र ज्यों का त्यों दूध से भरा होता है, सबके छकने के बाद भी।

अरविन्द श्रीवास्तवः आज युवा कवियों द्वारा कविताएँ लिखी जा रही है उसे ‘उत्कृष्ठता की विश्व मानक कसौटी’ पर कितना खड.ा पाते हैं ? हिन्दी कविताओं का अनुवाद विश्व की अन्य भाषाओं मे हो, इस दिशा में हो रहे कार्य से आप कितना संतुष्ट दिखते हैं ?

अरुण कमलः अभी तक तो निराला के भी अनुवाद नहीं हुए। मुझको नहीं मालूम कि प्रसाद, पंत, महादेवी या मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर का ही कितना अंग्रेजी में भी अनुदित है, दूसरी भाषाओं को यदि छोड. भी दें। हिन्दी क्षेत्र के अंग्रेजी विभागों का पहला काम यही होना चाहिए तथा अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहिए। हर महान कविता पहले अपनी भाषा में महान होती है।

अरविन्द श्रीवास्तव ः. पुरस्कार पाने की ललक नये कवियों में दिखने लगी है, इससे उसकी रचनाधर्मिता प्रभावित होती है, वे शार्ट-कार्ट रास्ता अपनाने लगे हैं। किसी कवि की कविता का उचित मूल्यांकन हो इस दिशा में किस पहल की जरूरत है ?

अरुण कमल ः पुरस्कार -पद -सम्मान, या निरन्तर विरोध, या उपेक्षा- ये सब इस कविता के भव के भाग हैं। जो सच्चा कवि है उसके लिए पुरस्कार और प्रहार दोनों बराबर हैं। जो पिटा नहीं, जो लगातार पिटा नहीं वह कवि कैसा?, जिसका अर्थी - जुलूस जितना ज्यादा निकले उसकी आयु उतनी ही ज्यादा होगी। कोई मूल्यांकन अंतिम नहीं होता।

अरविन्द श्रीवास्तवः गांव-कस्बे एवं छोटे शहरो के कवियों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के लिए राजधानियों के चक्कर लगाने पड.ते है ? वे राष्ट्रीय क्षितिज पर उपेक्षित महसूसते हैं ?

अरुण कमलः जो पहचान बनाने के लिए व्यग्र हंंैंं वह कवि नहीं हैं जो कवि होगा वो केवल कविता रचेगा।

अरविन्द श्रीवास्तवः युवा कवियों की कविताएँ ब्लॉग पर आ रही हैं। डा. नामवर सिंह और विभूतिनारायण राय आदि ने ब्लॉग को सहित्य का हिस्सा माना है। युवा ब्लॉगरों से आपकी अपेक्षाएँ ?

अरूण कमलः मैं साधारण आदमी हूँ और कम्प्यूटर का ज्ञान मुझको नहींे है, दुनिया का सबसे सस्ता माध्यम लेखन है यानी कागज और कलम। मेरी दुनिया कागज कलम तक ही सीमित है।

अरविन्द श्रीवास्तवः केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी आदि की परम्परा में आगे आप किन युवा कवियों को देखते हैंं ?

अरुण कमलः आपने जिन कवियों की सूची देकर परम्परा बनाने का प्रयत्न किया है उनमें से कम से कम एक मेरा नाम हटा दें । मैं उस पंक्ति का, उस पद का अधिकारी नहीं हूँ। इसे विनम्रता नहीं वास्तविकता माना जाए। दूसरी बात यह कि ये सारे कवि अभी भी सौभाग्य से सक्रिय हैं। परम्परा पीछे से बनती है। जो लोग बाद मेंं लिख रहे हैं उन्हें अभी थोड.ा लिखने दीजिए। अंधड.-तुफान के बाद भी जो लौ बची रहेगी वह पंक्ति में स्थान पा लेगी।

अरविन्द श्रीवास्तवः आपने साहित्य में कई मुकाम हासिल किये, कुछ ऐसा लगता है जो आप करना चाहते थे वह नहीं कर पाए ?

अरुण कमलः हाँ, जैसा मैनें अभी कहा मैं अभी भी बस लिखने की कोशिश में हूँ। जो चाहा वह नहीं हुआ।

अरविन्द श्रीवास्तवः गत दिनों विष्णु खरे साहब ने कुछ कवियों की कविताओं पर प्रश्न चिन्ह लगाया था, सवाल खडे. किये थे.....

अरुण कमलः एक पंक्ति है मीर की- ‘कुफ्र कुछ चाहिए इस्लाम की रौनक के लिए’। और कबीर की पंक्ति है- ‘श्वान रूप संसार है भूकन दे झकमार’। मुझे ‘मीर’ और ‘कबीर’ प्रिय हैं मैं उन्ही की आवाज के पर्दे में अपना काम करता हूँ।

रविवार, 11 जुलाई 2010

तन्हा-तन्हा आसमान क्यूँ है {गजल} सन्तोष कुमार "प्यासा"

हम खुद से अनजान क्यूँ है
ज़िन्दगी मौत की मेहमान क्यूँ है

जिस जगह लगते थे खुशियों के मेले

आज वहां दहशतें वीरान क्यूँ है

जल उठता था जिनका लहू हमें देख कर

न जाने आज वो हम पर मेहेरबान क्यूँ है

जहाँ सूखा करती थी कभी फसले

वहां लाशों के खलिहान क्यूँ है

कभी गूंजा करती थी घरों में बच्चों की किलकारियां

अब न जाने खुशियों से खाली मकान क्यूँ है

आखिर कौन कर सकता है किसीकी तन्हाई को दूर

सूरज,चाँद और हजारों तारें है मगर

तन्हा-तन्हा आसमान क्यों है....

मकान और घर..............(कविता)...........कीर्तिवर्धन

जिस दिन मकान घर मे बदल जायेगा
सारे शहर का मिजाज़ बदल जायेगा.

जिस दिन चिराग गली मे जल जायेगा

मेरे गावं का अँधेरा छट जायेगा.

आने दो रौशनी तालीम की मेरी बस्ती मे

देखना बस्ती का भी अंदाज़ बदल जाएगा.

रहते हैं जो भाई चारे के साथ गरीबी मे

खुदगर्जी का साया उन पर भी पड़ जाएगा.

दौलत की हबस का असर तो देखना 

तन्हाई का दायरा "कीर्ति" बढ़ता जाएगा.

उड़ जायेगी नींद सियासतदानो की 

जब आदमी इंसान मे बदल जाएगा

शनिवार, 10 जुलाई 2010

राष्ट्रवादी---श्यामल सुमन

तनिक बतायें नेताजी, राष्ट्रवादियों के गुण खासा।
उत्तर सुनकर दंग हुआ और छायी घोर निराशा।।

नारा देकर गाँधीवाद का, सत्य-अहिंसा क झुठलाना।
एक है ईश्वर ऐसा कहकर, यथासाध्य दंगा करवाना।
जाति प्रांत भाषा की खातिर, नये नये झगड़े लगवाना।
बात बनाकर अमन-चैन की, शांति-दूत का रूप बनाना।
खबरों में छाये रहने की, हो उत्कट अभिलाषा।
राष्ट्रवादियों के गुण खासा।।

किसी तरह धन संचित करना, लक्ष्य हृदय में हरदम इतना।
धन-पद की तो लूट मची है, लूट सको तुम लूटो उतना।
सुर नर मुनि सबकी यही रीति, स्वारथ लाई करहिं सब प्रीति।
तुलसी भी ऐसा ही कह गए और तर्क सिखाऊँ कितना।।
पहले "मैं" हूँ राष्ट्र "बाद" में ऐसी रहे पिपासा।
राष्ट्रवादियों के गुण खासा।।

आरक्षण के अन्दर आरक्षण, आपस में भेद बढ़ाना है।
फूट डालकर राज करो, यह नुस्खा बहुत पुराना है।
गिरगिट जैसे रंग बदलना, निज-भाषण का अर्थ बदलना।
घड़ियाली आंसू दिखलाकर, सबको मूर्ख बनाना है।
हार जाओ पर सुमन हार की कभी न छूटे आशा।
राष्ट्रवादियों के गुण खासा।।

 

"सूत्र" एक है "वाद" हजारों, टिका हुआ है भारत में।

राष्ट्रवाद तो बुरी तरह से, फँस गया निजी सियासत में।।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

वह सावंली सी लड़की ---(मिथिलेश दुबे)

तन पर लपेटे

फटे व पुराने कपड़े

वह सांवली सी लड़की,

कर रही थी कोशिश

शायद ढक पाये

तन को अपने,

हर बार ही होती शिकार वह

असफलता और हीनता का

समाज की क्रूर व निर्दयी निगाहें

घूर रहीं थी उसके खुलें तन को,

हाथ में लिए खुरपे से

चिलचिलाती धूप के तले

तोड़ रही थी वह पेड़ो से छाल

और कर रही थी जद्दोजहद जिंदगी से अपने

तन पर लपेटे फटे व पुराने कपड़े

वह सावंली सी लड़की ।

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

कविता : मुझे बढ़ना ही होगा... ...............जोगिन्द्र रोहिल्ला ....

मुझे बढ़ना ही होगा :
डगमग डगमग राहों पे ,
मैं चला ही जा रहा हूँ ...
कुछ ऊँची कुछ नीची राहों पे
मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ ...

मैं चला था कल अकेला ,
कोई आया कोई चला गया ,
अंतर्द्वंद से कोई भरा रहा ,पर
मैं बढ़ता ही चला गया ...

पीछे मुड के देखा जब ,अब
कोई साथी ना दिख पाया
देखा साथ में कौन है ....
बस अपने को ही मैंने पाया ,
आगे बढ़ने की सोची तो
मंजिल एक नई चुनी
सोचा चलना चाहिए अब
सोचा बढ़ना चाहिए अब

हाँ ,
डगमग डगमग राहों पे ,
मुझे बढ़ना ही होगा ...
कुछ ऊँची कुछ नीची राहों पे
मुझे बढ़ना ही होगा ...

बुधवार, 7 जुलाई 2010

गजल...........................................मीना मौर्या जी

(हिंदी साहित्य मंच को यह रचना डाक से प्राप्त हुई)
दुनिया के दिल में हजारों की भीड़ देखी, 
हसते  हुए को दुआ और देते आशीष देखी. 
मतलबी इस दुनिया में रोते को हँसना गुनाह है
उन पर बहाए  कोई आंसू न रहम दिल देखी 
न चाहे फिर भी अँधेरे को पनाह घर में मिलता है 
किसी मजार पर जलता चिराग न सारी रात देखी 
संग जीने मरने के वादे दुनियां में बहुतों ने किये 
निकलते जनाजा न अब तक दोनों को साथ देखी 
गुमराह कर गए वो खुदा मेरे आशियाने को 
वे जिस्म में जान डाल दे ऐसा न हकीम देखी
छोड़ जाती है रूह जिस्म बेजान हो जाती है
हम सफर की याद में बरसती आँखें दिन रात देखी 
टूटी है कसती जीवन का सफर है आंधी अभी 
तिनके का हो सहारा कसती को न दरिया पार देखी ..

प्रियतम होते पास अगर..............श्यामल सुमन

प्रियतम होते पास अगर
मिट जाती है प्यास जिगर

ढ़ूँढ़ रहा हूँ मैं बर्षों से
प्यार भरी वो खास नजर

टूटे दिल की तस्वीरों का 
देता है आभास अधर

गिरकर रोज सम्भल जाएं तो
बढ़ता है विश्वास मगर

तंत्र कैद है शीतल घर में
जारी है संत्रास इधर

लोगों को छुटकारा दे दो
बन्द करो बकवास खबर

टूटे सपने सच हो जाएं
सुमन हृदय एहसास अगर

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

वो कल सुबह जाएगी.........................नीशू तिवारी

बहुत दिन नहीं हुआ जॉब करते हुए .....पर अच्छा लगता है खुद को व्यस्त रखना........शाम की कालिमा अब सूरज की लालिमा को कम कर रही थी ......मैं चुप चाप तकिये में मुह धसाए बहार उड़ रही धुल में अपनी मन चाही आकृति बना कर ( कल्पनाओं में ) खुश हो रहा था .........कभी प्रिया का हंसता चेहरा नजर आता .........तो दुसरे पल बदलते हवा के झोंकों के साथ आँखें नयी तस्वीर उतार लेती .......... बिलकुल वैसी ही .....जैसे वो मिलने पर( शर्माती थी ) करती थी.............अचानक आज इन यादों ने मेरी साँसों की रफ्तार को तेज़ कर दिया .........करवट बदलते हुए आखिरी मुलाकात के करीब न जाने क्यूँ चला गया ...........
मैं पागल हूँ और आलसी भी वो हमेशा कहा करती थी ....जिसे मै हंस कर मान लेता था .....(सच कहूँ तो आलसी हूँ भी )........ .....दिल्ली में दो साल कैसे बीते ....पता ही न चला ..... हम साथ ही पत्रकारिता में दाखिल हुए थे ........और साथ ही पढाई पूरी की ..........पहली बार हम दोनों कालेज के साछात्कार से पहले मिले थे .......वह बहुत घबराई सी लग रही थी .......मैंने ही बात के सिलसिले को आगे बढाया था .........बातो से पता चला की वह भी अल्लाहाबाद से पढ़ कर आई है ...तब से ही अपनापन नजर आया था उसको देखकर ........साछात्कार का परिणाम आने अपर हम दोनों का चयन हुआ था .........ये मेरे लिए सब से बड़ी ख़ुशी की बात थी ...क्यूंकि मैंने जो तैयारी की थी उससे मैंने खुस न था ...........पर मेरा भी चयन हो ही गया था .........कुछ दिनों के बाद क्लास शुरू हो गयी ......नए नए दोस्त बने .....समय अच्छे से गुजरता ........पर जब तक प्रिय से कुछ देर न बात करता .......तो कुछ भी अच्छा न लगता .....सुबह से शाम तक मैं प्रिया के पास और प्रिया मेरे पास ही होती ......यानि आसपास ही क्लास में बैठते ....दोपहर का नाश्ता और शाम की चाय साथ पीने के बाद हम दोनों अपने अपने रूम के लिए निकलते ......रूम पर पहुच कर फिर फ़ोन से बहुत साडी बातें होती ............इसी बातों से न जाने कब प्यार हो गया पता ही न चला ..........वैसे प्रिया तो शायद ही कभी बोलती .........पर हाँ मैंने ही उसको प्रपोज किया था .......कोई उत्तर नहीं दिया था उसने ..........मैं तो डर गया था की शायद अब वह बात न करे......लेकिन नहीं उसका स्वभाव वैसे ही सीधा साधा रहा ..जैसा की वह रहती थी ..... मेरे लिए ख़ुशी की बात थी .......मैंने खुद से ही हाँ मान लिया था .....क्यूंकि वह चुप जो थी .......कभी लड़ते लाभी झगड़ते .......रूठते मानते .....अब उस दौर में हम दोनों आ गए थे की अब आगे की जिंदगी को चुनना था ........संघर्ष और सफलता के बीच प्यार को लेकर चलना था ..........प्रिया ने आखरी सेमेस्टर का एग्जाम देने के बाद यूँ ही कहा था ..........मिस्टर आलसी .......अब आपको सारा काम खुद से करना होगा ......हो सकता है रोज फ़ोन पर बात भी न हो पाए ......और हाँ मैं घर जा रही हूँ ......शायद पापा अब न आने दें .........वहीँ कोई जॉब देखूंगी ........ मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था .......वो मेरी तरफ नहीं देख रही थी पर बात मुझसे ही कह रही थी .......आज पहली बार दो साल में उसकी आँखों में आन्शूं देखा था ............फिर जल्दी से आंसू पोछते हुए कहा था ....मिस्टर उल्लू .....नहाते भी रहना ...वरना मुझे आना होगा .........मैंने सर हिलाकर सहमती दे दी थी ..........वो कल सुबह जाएगी ........अब कैसे रहूँगा ........कुछ समझ न आया था ......रात भर नींद न आयी ..और प्रिया को भी परेसान न करना चाहता था .........क्यूंकि अगले दिन उसकी ट्रेन थी .........सुबह मिलने की बात हुई थी .......मैं अपना वादा निभाते हुए रेलवे स्तेसन तक छोड़ने गया था ...........ट्रेन जाने तक उसको देखता ही रहा था ............हाँ कुछ महीने बाद उसका फ़ोन आया था ..........ठीक है वह ..........

रिश्ता खून का .........लेख...........मोनिका गुप्ता

.रक्तदान महादान....रक्तदान पूजा समान ...वगैरहा .. आमतौर पर इस तरह के नारे और स्लोगन सुनने को मिल ही जाते हैं पर आखिर रक्तदान इतना जरुरी है या ऐसे ही ...

इस बात मे कोई दो राय नही है कि रक्त का कोई दूसरा विकल्प नही है यानि यह किसी फैक्टरी मे नही बनता और ना ही इंसान को जानवर का खून दिया जा सकता है ..यानि रक्त बहुत ही ज्यादा कीमती है. रक्त की मांग दिनो दिन बढ्ती ही जा रही है पर जागरुकता ना होने की वजह से लोग देने से हिचकिचाते हैं ..मसलन यह सोच कि कितने लोग तो रक्त दान करते ही हैं तो मुझे क्या जरुरत है ..या भई, मेरा ब्लड तो बहुत आम है ये तो किसी का भी होगा तो मैं ही क्यो दान करुँ. अब उनकी यह सोच सही इसलिए नही है कि आम ब्लड होने के कारण उस समूह के रोगी भी तो ज्यादा आते होगें ..यानि उस ग्रुप की मागँ भी तो उतनी ही होगी ... या फिर कई लोग यह सोचते है कि भई, मेरा ग्रुप तो रेयर है यानि खास है तो मैं तो तब ही दूगाँ जब जरुरत होगी ..ऐसे मे तो यही बात सामने आती है कि आपका रक्त् चाहे आम हो या खास .. हर तीन महीने यानि 90 दिन बाद देना ही चाहिए. हमारा शरीर 24 घंटे के भीतर रक्त ही पूर्ति कर लेता है जबकि सभी तरह की कोशिकाओ के परिपक्व होने मे 5 सप्ताह तक लग जाते हैं ..

अब बात आती है कि जब जरुरत होगी तभी देंग़ें जोकि सही नही है .. मरीज कब तक आपकी इंतजार करेगा. हो सकता है कि आप तक खबर ही ना पहुँच पाए या आप ही समय पर ना पहुँच पाए तो आप दोषी किसे मानोगें ...दूसरी बात यह भी है कि बेशक आप लगातार रक्त देते हो पर जब भी आपने रक्त दान करना होता है आपका सारा चैकअप दुबारा होता है उसमे कई बार समय भी लग जाता है ... तो इस इंतजार मे तो ना ही रहे कि जब जरुरत होगी तभी ही देने जाएगें ...

वैसे स्वैच्छिक रक्त दान को सुरक्षित माना जाता है क्योकि इन मे रक्त संचरण जनित सक्रंमण ना के बराबर होता है.

यह भी बात आती है कि रक्तदान किसलिए करें तो स्वस्थ् लोगो का नैतिक फर्ज है कि बिना किसी स्वार्थ के मानव की भलाई करें. अगर हमारे रक्त से किसी की जान बच सकती है तो हमे गर्व होना चाहिए कि हमने नेक काम किया है.

तो अगर आप 18 से 60 साल के बीच मे हैं.... आपका होमोग्लोबिन 12.5 है और आपका वजन 45 किलो से ज्यादा है .. तो आप निकट के ब्लड बैंक मे जाकर और जानकारी लेकर रक्तदान कर सकते हैं.

 क्या आपको पता है कि देश मे हर साल लगभग 80 लाख यूनिट रक्त की जरुरत होती है जबकि 50 यूनिट ही मिल पाता है. ये बहुत कम है.बेचारा मरीज रक्त की इंतजार करता है जबकि होना यह चाहिए कि रक्त मरीज ही इंतजार करे ना कि मरीज रक्त की ...जैसाकि हरियाणा के जिला सिरसा मे है. यहाँ 100% स्वैच्छिक रक्त दाता हैं और रक्त मरीज की इंतजार करता है ना कि मरीज रक्त की. इसी उपल्ब्घि को वेब साईट www.bravoblooddonor.org पर भी डाला है.
सच, जिस काम मे किसी का भला होता हो किसी की जान बचती हो उस काम से कदम पीछे नही हटाना चाहिए.
 जाते जाते एक बात तो करना भूल ही गई कि रक्तदान के बारे मे एक बात बहुत सुनने को मिलती है कि अरे .. हमें तो रक्तदान के लिए किसी ने कहा ही नही ... इसलिए हमने किया भी नही .. ऐसे लोगो के लिए क्या जवाब हो सकता है आप बेहतर जान सकते हैं. मैं तो इतना ही कहूँग़ी ..... “जब जागो तभी सवेरा” ....

........................जय रक्तदाता ......................

रविवार, 4 जुलाई 2010

भूख ............कविता.............सुनीता कृष्णा

भूख तू बार बार क्यों है आती
रह रह कर मुझे सताती 
सोते से मुझे जगाती 
विचारों को मेरे झकझोरती 
क्या कुछ याद दिलाना चाहती ?
एक दिन न खा सकी 
तो रात भर न सो सकी 
अब सोचने पर मजबूर 
भूखा कोई सो रहा सुदूर 
सोचने पर हूँ विवश 
लाखों कैसे सो जाते बेबस ?
भूख तो उन्हें भी सताती होगी
क्या पानी भूख मिटाती  होगी 
खली पेट तो पानी भी नहीं सुहाता 
उपाय कोई तो होगा बस पाना है रास्ता 
 
छाणिक चमक धमक हमें लुभाती 
और बुध्ही भ्रष्ट हो जाती 
फसल तो उगती धरा पर भरपूर
धरा को ही बेच रहे हो लालच में 
राजनेता कार्य करें जिसमें हो देश का हित 
देश ही  सर्वोच्च है यह याद रहे नित
परिवार सिमित रहे यही मेरा सुझाव
नहीं रहेगा देश में कुछ भी आभाव
बालक अब न बिल्खेगा
रोटी को न तरसेगा
सोकर जब उठेगा
नव प्रभात उदय होगा 
भूख की मरोड़ का  
अब कोई रुदन न होगा 
भूख की मरोड़ का  
अब कोई रुदन न होगा 
 

शनिवार, 3 जुलाई 2010

बचपन........कविता............श्यामल सुमन

याद बहुत आती बचपन की।
उमर हुई है जब पचपन की।।

बरगद, पीपल, छोटा पाखर।
जहाँ बैठकर सीखा आखर।।

संभव न था बिजली मिलना।
बहुत सुखद पत्तों का हिलना।।

नहीं बेंच, था फर्श भी कच्चा।
खुशी खुशी पढ़ता था बच्चा।।

खेल कूद और रगड़म रगड़ा।
प्यारा जो था उसी से झगड़ा।।

बोझ नहीं था सर पर कोई।
पुलकित मन रूई की लोई।।

बालू का घर होता अपना।
घर का शेष अभीतक सपना।।

रोज बदलता मौसम जैसे।
क्यों न आता बचपन वैसे।।

बचपन की यादों में खोया।
सु-मन सुमन का फिर से रोया।।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

रिश्ते बंद है आज चंद कागज के टुकड़ो में.....................नीशू तिवारी


रिश्ते बंद है आज

चंद कागज के टुकड़ो में,

जिसको सहेज रखा है मैंने

अपनी डायरी में,

कभी-कभी खोलकर

देखता हूँ उनपर लिखे हर्फों को

जिस पर बिखरा है

प्यार का रंग,

वे आज भी उतने ही ताजे है

जितना तुमसे बिछड़ने से पहले,

लोग कहते हैं कि बदलता है सबकुछ

समय के साथ,

पर

ये मेरे दोस्त

जब भी देखता हूँ

गुजरे वक्त को,

पढ़ता हूँ उन शब्दो को

जो लिखे थे तुमने,

गूजंती है तुम्हारी

आवाज कानो में वैसे ही,

सुनता हूँ तुम्हारी हंसी को

ऐसे मे दूर होती है कमी तुम्हारी,

मजबूत होती है

रिश्तो की डोर

इन्ही चंद पन्नो से,

जो सहेजे है मैंने

न जाने कब से।।

बहते आंसू {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

देख रहा हूँ मै

वेदना की वृष्टि ने

तुम्हारे धैर्य के बांध को तोड़ दिया है

उर का विषाद

पलकों पर भारी है

तुम ममता के बन्धनों

को तोड़ चुकी हो

ये महज़ बहते आंसू नहीं

ये प्रवाह है

प्रलय का

विनाश का

हे नारी !

अब तुम सहनशीलता के

सभी बंधन पार कर चुकी हो

सूख गए है बहते आंसू !

अब परम्पराओं के बंधन तुम्हे

और अधिक नहीं रोक सकते

अब इज्ज़त आबरू की बेढीया

तुम्हारे अस्तित्व को नहीं बांध सकती

अब तुम चंडी बन चुकी हो

समाज के खोखले नियम

अब तुम पर लागू नहीं है

तुमने मज़बूरी को

अश्रुओं संग बहा दिया है

अब तुम्हारे आँखों से मर्माग्नी बह रही है

न की मज़बूरी में

बहते आंसू...........

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

.कविता .......................लोकेश उपाध्याय

मेरे दर्द का ,किसी को एहसास नहीं ,
इस ज़माने में , कोई मेरे साथ नहीं ,
क्या हुआ क्यों भीड़ में तन्हा हूँ ,
क्यों खुशियों को मै रास नहीं ,

मेरे दर्द का ,किसी को एहसास नहीं ,
इस ज़माने में , कोई मेरे साथ नहीं ,
क्या हुआ क्यों भीड़ में तन्हा हूँ ,
क्यों खुशियों को मै रास नहीं ,
इस ज़माने में , कोई मेरे साथ नहीं