रिश्ते बंद है आज
चंद कागज के टुकड़ो में,
जिसको सहेज रखा है मैंने
अपनी डायरी में,
कभी-कभी खोलकर
देखता हूँ उनपर लिखे हर्फों को
जिस पर बिखरा है
प्यार का रंग,
वे आज भी उतने ही ताजे है
जितना तुमसे बिछड़ने से पहले,
लोग कहते हैं कि बदलता है सबकुछ
समय के साथ,
पर
ये मेरे दोस्त
जब भी देखता हूँ
गुजरे वक्त को,
पढ़ता हूँ उन शब्दो को
जो लिखे थे तुमने,
गूजंती है तुम्हारी
आवाज कानो में वैसे ही,
सुनता हूँ तुम्हारी हंसी को
ऐसे मे दूर होती है कमी तुम्हारी,
मजबूत होती है
रिश्तो की डोर
इन्ही चंद पन्नो से,
जो सहेजे है मैंने
न जाने कब से।।
6 comments:
रिश्तो की डोर
इन्ही चंद पन्नो से,
जो सहेजे है मैंने
न जाने कब से।।
वाह बहुत सुन्दर शब्दों मे मन की आवाज़ वहाँ तक पहुँचा दी। सुन्दर रचना के लिये बधाई। आज कल मिथिलेश दिखाई नही देता कहाँ है? आशीर्वाद।
kuchh to hai jo time-proof bhi hai....
bahut badhiya...
kunwar ji,
मर्मस्पर्शी रचना............ बधाई।
वाह ………।बहुत सुन्दर भाव संयोजन।
सुन्दर रचना के लिये बधाई।......
हमारा प्रयास भी हिंदी कविता का विकास करना है आइये http://kavikithali.blogspot.com/ पर
सोच नाथू राम गोड्स की
जीवित रहना महात्मा गांधी का,
ठीक नहीं था, देश और खुद उनके सेहद के लिए.
आज सरेआम वलात्कार की जा रही है,
उनके सपनों के भारत की,
भर्ष्टाचार के बुलडोजर से .
मिटा दी गई है,
राम राज्य की निशानी,
अतिक्रमण का नाम देकर.
नहीं देख सकते थे हकीकत,
अपने सपनों के भारत की.
सांसे रुक जाती, जब होता,
मासूमों के साथ वलात्कार.
रूह कांप उठाता देखकर,
गरीबों का नरसंहार.
पूजा करते मंदिरों में......
अनसन करते, संसद के सामने.
हो सकता है, बेचैन आत्मा,
संसद भवन के पास भटकती,
मुक्ति के इन्तजार में.
कितना आगे था, सोच
नाथू राम गोड्स की,
जो भारत का वलात्कार होने से पहले,
कर दी, पवित्र आत्मा को मुक्त,
सदा के लिए...........
सम्बन्धों पर लिखे शब्द ही उनके आधारबिन्दु बन जाते हैं । मन तो भटका देता है ।
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