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शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

बहते आंसू {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

देख रहा हूँ मै

वेदना की वृष्टि ने

तुम्हारे धैर्य के बांध को तोड़ दिया है

उर का विषाद

पलकों पर भारी है

तुम ममता के बन्धनों

को तोड़ चुकी हो

ये महज़ बहते आंसू नहीं

ये प्रवाह है

प्रलय का

विनाश का

हे नारी !

अब तुम सहनशीलता के

सभी बंधन पार कर चुकी हो

सूख गए है बहते आंसू !

अब परम्पराओं के बंधन तुम्हे

और अधिक नहीं रोक सकते

अब इज्ज़त आबरू की बेढीया

तुम्हारे अस्तित्व को नहीं बांध सकती

अब तुम चंडी बन चुकी हो

समाज के खोखले नियम

अब तुम पर लागू नहीं है

तुमने मज़बूरी को

अश्रुओं संग बहा दिया है

अब तुम्हारे आँखों से मर्माग्नी बह रही है

न की मज़बूरी में

बहते आंसू...........

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वेदना की वृष्टि मर्यादा के बाँध भी तोड़ देती है तब वेदना भी सार्वजनिक हो जाती है ।

Unknown ने कहा…

बहुत अच्छा प्रयास आपका .........यूँ ही लिखते रहें ..