हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

रविवार, 25 जुलाई 2010

नव गीतिका...........................डॉ. वेद व्यथित

बहुत तन्हाईयाँ मुझ को भी तो अच्छी नही लगती 

परन्तु क्या करूं मुझ को यही जीना सिखाती हैं 

बहुत तन्हाइयों के दिन भुलाये भूलते कब हैं

वह तो खास दिन थे जिन्हों की याद आती है 

यही तन्हाईयाँ तो आजकल मेरा सहारा हैं 

सफर में जब भी चलता हूँ हई तो साथ जाती हैं 

उन्होंने भूल कर के भी कभी आ कर नही पूछा

 यह तन्हाईयाँ ही हाल मेरा पूछ जाती हैं

बहुत अच्छी हैं ये तन्हाईयाँ कैसे बुरा कह दूं 

इन्ही तन्हाइयों में तुम्हारी याद आती है 

यह तन्हाईयाँ मुझ से कभी भी दूर न जाएँ 

इन्ही के सहारे मेरी भी किस्ती पार जाती है 

इन्ही तन्हाइयों ने मुझ को बेपर्दा किया यूं है 

बताता कुछ नही फिर भी पता सब चल ही जाती है 

मोहब्बत मांग ली थी कुछ सुकून के वास्ते मैंने 

उसी के साथ में तन्हाईयाँ खुद मिल ही जाती हैं

बहुत कीमत है इन तन्हाईयों की खर्च न करना 

तिजोरी दिल को तो इन से हमेशा भरी जाती है