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बुधवार, 29 अप्रैल 2009

कविता - व्यंग्य

नेता

राजनीति के भंवर मे सब नेता बन गये हैं
इस देश के निर्माता अभिनेता बन गये हैं
महिलाओं की आज़ादी के भाषण कूटते हैं
चौरास्ते पर उनकी इज्जत लूटते हैं
गरीबों की भलाई के लिये क्या नही करते
उनके नाम की ग्रांट से अपनी जेबें भरते
भ्रष्टाचार खत्म करने की कसमे खाते हैं
बेईमानी की गंगा मे दिन रात नहाते हैं
जो सच्चा इनसान हो उससे तो कतरातेहैं
वो काम कराने जाये तो उसे डराते है
काम कराना हो इनसे तो नेतगिरी दिखलाओ
विपक्षी की निन्दा करो इस नेता के गुण गाओ

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

गजल

गज़ल्
अपना इतिहास पुराना भूल गये
लोग विरासत का खज़ाना भूल गये
रिश्तों के पतझड मे ऐसे बिखरे
लोग बसंतों का जमाना भूल गये
दौलत की अँधी दौड मे लोग
मानवता निभाना भूल गये
भूल गये गरिमा आज़ादी की
शहीदों का कर्ज़ चुकाना भूल गये
जो धर्म के ठेकेदार बने
खुद धर्म निभाना भूल गये
पत्नी की आँ चल मे ऐसे उलझे
माँ का पता ठिकाना भूल गये
परयावरण पर भाशण देते
पर पेड लगाना भूल गये
भूल गये सब प्यार का मतलव
लोग हंसना हसाना भूल गये

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

माँ की पुकार

माँ की पुकार

बेटी जब से ससुराल गयी है
मेरी सुध ना किसी ने जानी
दिल मै उसकी यादें हैं
और आँखों मे पानी है
सुनसान है घर का कोना कोना
जहाँ गूंजते थे उसके कहकहे
ना घर की रोनक वही रही
ना दिवरों के रंग ही वो रहे
पापा तेरे इक कोने मे
चुपचाप से बैठे रहते हैं
याद तुझे कर कर के बेटी
उनकी आँख से आँसू बहते हैं
समाज बनाने वलों ने
ये कैसी रीत बनाई है
माँ के जिगर के टुकडों की
दुनिया दूर बसाई है
दिल करता है तुझे बुलाऊँ
पर तेरी भी है मजबूरी
पर तेरे बिन प्यारी बेटी
तेरी माँ है बडी अधूरी
जब भी घर के पिछवडे से
गाडी की सीटी सुनती हूँ
इक झूठी सी आशा मे बेटी
तेरे पाँव की आहट सुनती हूँ
आओ जीते जी कुछ बातें कर लो
फिर कौन तुझे बुलायेगा
आज इस घर मे मै रोती हूँ
फिर ये घर तुझे रुलायेगा
माँ बेटी के रिश्ते की
दर्द भरी कहानी है
माँ बिना फिर कैसा मायका
सब रिश्ते बेमानी हैं

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

नदी की तरह से

नदी की तरह
बहते रहे तो
सागर से मिलेंगे,
थम कर रहे तो
जलाशय बनेंगे,
हो सकता है कि
आबो-हवा का
लेकर साथ,
खिले किसी दिन
जलाशय में कमल,
हो जायेगा
जलाशय का रूप
सुहावन, विमल,
पर कब तक?
गर्म तपती धूप जैसे
हालातों से
उड़ जायेगी
कमल की
गुलाबी रंगत,
वीरान हो जायेगा
तब फिर
जलाशय,
मगर.....
नदिया बह रही है,
बहती रहेगी,
हरा-भरा
करती रहेगी
और एकाकार हो जायेगी
सागर के संग।

लब्ध प्रतिष्ठित कवि मदन ‘विरक्त’


लब्ध प्रतिष्ठित कवि मदन ‘विरक्त’
अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारः 15 सितम्बर, 1970, प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय कृषि पत्र प्रदर्शनी (इफ्जा) में
कृषि पत्र के श्रेष्ठ सम्पादन के लिए सम्मानित।
श्रेष्ठ सहकारी सम्पादक सम्मानः
भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ द्वारा 10 जनवरी 1986 को सम्मानित।
हिन्दी सेवी सम्मानः दिल्ली प्रादेशिकहिन्दी साहित्य सम्मेलन, महामना मण्डल द्वारा
26 दिसम्बर 1976 को सम्मानित।
राजधानी पत्रकार मंच द्वारा नई दिल्ली में हिन्दी सेवी सम्मान
14 सितम्बर 2008 को सम्मानित।
साहित्य-श्री सम्मान से उत्तराखण्ड साहित्य शारदा मंच द्वारा
2007 हिन्दी दिवस पर सम्मानित।
डा. अम्बेडकर मानद उपाधिः भारतीय दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा
हिमाचल भवन में 8 अगस्त 1987 को
तत्कालीन केन्द्रीय सूचना मन्त्री श्री एच.के.एल. भगत द्वारा सम्मानित।
राष्ट्र नेता स्मृति इफ्जा राष्ट्रीय सम्मान
वर्ष-2008 मध्य प्रदेश के राज्यपाल डा. बलराम जाखड़ द्वारा 14 नवम्बर 2009 को सम्मानित।

वीरों की माता हूँ, वीरों की बहना।

पत्नी उस वीर की हूँ, शस्त्र जिसका गहना।


वीरों की माता के, रूप में जब आती,

गा-गा कर प्यार भरी, लोरियाँ सुनाती,

करती बलिदान पूत, केसरिया पहना।

वीरों की माता हूँ, वीरों की बहना।।


दौज का टीका और राखी के धागे,

भगिनी का प्यार लिए, वीर बढ़े आगे,

सुख-दुख में मुस्काना, धीरज से रहना,

वीरों की माता हूँ, वीरों की बहना।।


मैं वीर नारी हूँ, साहस की बेटी,

मातृ-भूमि रक्षा को, वीर सजा देती,

आकुल अन्तर की पीर, राष्ट्र हेतु सहना।

वीरों की माता हूँ, वीरों की बहना।।


मातृ-भूमि, जन्म-भूमि, राष्ट्र-भूमि मेरी,

कोटि-कोटि वीर पूत, द्वार-द्वार दे री,

जीवन भर मुस्काए, भारत का अंगना।

वीरों की माता हूँ, वीरों की बहना।।

पत्नी उस वीर की हूँ, शस्त्र जिसका गहना।।

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

नया जीवन


टकटकी बाँधकर देखती है

जैसे कुछ कहना हो

और फुर्र हो जाती है तुरन्त

फिर लौटती है

चोंच में तिनके लिए

अब तो कदमों के पास

आकर बैठने लगी है

आज उसके घोंसले में दिखे

दो छोटे-छोटे अंडे

कुर्सी पर बैठा रहता हूँ

पता नहीं कहाँ से आकर

कुर्सी के हत्थे पर बैठ जाती है

शायद कुछ कहना चाहती है

फिर फुर्र से उड़कर

घोंसले में चली जाती है
सुबह नींद खुलती है

चूँ...चूँ ...चूँ..... की आवाज

यानी दो नये जीवनों का आरंभ

खिड़कियाँ खोलता हूँ

उसकी चमक भरी आँखों से

आँखें टकराती हैं

फिर चूँ....चूँ....चूँ...!!!
कृष्ण कुमार यादव

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

माँ की फरियाद.


ब्च्चो मै हूं तुम्हारी दादी मेरा नाम है आजादी,
अपनी फरियाद सुनाने आई हूं,मैं तुम्हें जगाने आई हूं,
जब देशभक्त परवानों ने आजादी के दिवानों ने,
दुशमन से मुझे छुडाया था तो अपना लहू बहाया था,
मुझे अपने बेटों को समर्पित कर वो चले गये,
कुछ ही वर्शों में मेरे बेटे भी बदल गये,
देश को बोटी बोटी कर खा रहे हैं, मुझे पतिता बना रहे हैं,
अपना हाल सुनाने आई हूं, मै तुम्हें जगाने आई हूं
बडे बडे नेता अधिकारी बन गये हैं,
सिर से पाँव तक भृ्श्टाचार में सन गये हैं,
संविधान की धज्जियां उडा रहे हैं,
स्वयं हित भाई से भाई लडा रहे हैं,
वीरों की कुर्वानी भूल गये हैं,
आदर्श इतिहास सब धूल गये हैं,
इनके घोटालों का बसता भारी है,
कोने कोने मे शड्यंन्त्रकारी है,
देश की ताजा तस्वीर दिखाने आई हूँ, मैं तुम्हें ज्गाने आई हूँ.
बच्चो ये भारत देश तुम्हारा है,
इस पर अब हक तुम्हारा है,
तुम्हारे अविभावक कर देंगे इसे निलाम,
तुम फिर से बन जाओगे गुलाम,
अपनी संस्कृ्ति को तुम पेह्चान लो,
अपने कर्तव्य को भी जान लो,
इन भृ्श्टाचारियों से देश बचाओ,
प्यार से ना माने तो अर्जुन बन जाओ,
तुम्हे़ खबर्दार बनाने आई हूं, मैं तुम्हें जगाने आई हूँ

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

राजीव थेप्रा की कलम से-

............दोस्तों एक कलमकार का अपनी कलम छोड़ कर किसी भी तरह का दूसरा हथियार थामना बस इस बात का परिचायक है कि अब पीडा बहुत गहराती जा रही है और उसे मिटाने के तमाम उपाय ख़त्म....हम करें तो क्या करें...हम लिख रहें हैं....लिखते ही जा रहे हैं....और उससे कुछ बदलता हुआ सा नहीं दिखाई पड़ता....और तब भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ता तो हमारी संवेदना में अवश्य ही कहीं कोई कमी है... मगर जिसे वाकई दर्द हो रहा है....और कलम वाकई कुछ नहीं कर पा रही....तो उसे धिक्कारना तो और भी बड़ा पाप है....दोस्तों जिसके गम में हम शरीक नहीं हो सकते....और जिसके गम को हम समझना भी नहीं चाहते तो हमारी समझ पर मुझे वाकई हैरानी हो रही है....जूता तो क्या कोई बन्दूक भी उठा सकता है.....बस कलेजे में दम हो.....हमारे-आपके कलेजे में तो वो है नहीं....जिसके कलेजे में है.....उसे लताड़ना कहीं हमारी हीन भावना ही तो नहीं...........??????

.............दोस्तों हमारे आस-पास रोज-ब-रोज ऐसी-ऐसी बातें हो रही हैं और होती ही जा रही हैं,जिन्हें नज़रंदाज़ कर बार-बार हम अपने ही पैरों में कुल्हाडी मारते जा रहे हैं....और यह सब वो लोग अंजाम दे रहे हैं, जिन्हें अपने लिए हम अपना नुमाइंदा "नियुक्त" करते हैं....!!यह नुमाइंदा हमारे द्वारा नियुक्त होते ही सबसे पहला जो काम करता है,वो काम है हमारी अवहेलना....हमारा अपमान....हमारा शोषण....और हमारे प्रत्येक हित की उपेक्षा.....!!.........दोस्तों यहाँ तक भी हो तो ठीक है.....लेकिन यह वर्ग आज इतना धन-पिपासू....यौन-पिपासू.... जमीन-जायदाद-पिपासू.....इतना अहंकारी और गलीच हो चुका है कि अपने इन तीन सूत्री कार्यक्रम के लिए हर मिनट ये देश के साथ द्रोह तक कर डालता है....देश के हितों का सौदा कर डालता है....यह स्थिति दरअसल इतने खतरनाक स्तर तक पहुँच चुकी है कि इस वर्ग को अब किसी का भय ही नहीं रह गया है....पैसे और ताकत के मद में चूर यह वर्ग अब अपने आगे देश को भी बौना बनाए रखता है.....निजी क्षेत्र के किए गए कार्यों की भी यह ऐसी की तैसी किए दे रहा है.....निजी क्षेत्र ने इस देश की तरक्की में जो अमूल्य योगदान सिर्फ़ अपनी मेहनत-हुनर और अनुशासन के बूते दिया है.....यह स्वयम्भू वर्ग उसके श्रेय को भी ख़ुद ही बटोर लेना चाहता है....और यहाँ तक कि यह वर्ग अपने पद और रसूख के बूते उनका भी शोसन कर लेता है.....यानी कि इसकी दोहरी मार से कोई भी बचा हुआ नहीं है......!!

यह स्थिति वर्षों से जारी है...और ना सिर्फ़ जारी है....बल्कि आज तो यह घाव एक बहुत बड़ा नासूर बन चुका है...अब इसे अनदेखा करना हमारे और आप सबके लिए इतनी घातक है कि इसकी कल्पना तक आप नहीं कर सकते........आन्दोलन तो खैर आने वाले समय में होगा ही किंतु इस समय इस लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है.....इस महापर्व का अवसान फिजूल में ही ना हो जाए....या कि यह एक प्रहसन ही ना बन जाए.....इसके लिए सबसे पहले हम जैसे पढ़े-लिखे लोगों को ही पहल करनी होगी.....क्योंकि मैं जानता हूँ कि सभ्य-सुसंस्कृत और पढ़े-लिखे माने जाने वाले सो कॉल्ड बड़े लोगों में अधिकाँश लोग अपने मत का प्रयोग तक नहीं करते....लम्बी लाईनों में लगना....धूप में सिकना....गंदे-संदे लोगों के साथ-साथ खड़े होना......घर की महिलाओं को इस गन्दी भीड़ का हिस्सा होते हुए ना देख पाना.....या किसी काल्पनिक हिंसा की आड़ लेकर चुनाव से बचना हमारा शगल है....!!

मज़ा यह कि हम ही सबसे वाचाल वर्ग भी हैं.....जो समाज में सबसे ज्यादा हल्ला तरह-तरह के मंचों से मचाते रहते हैं.....कम-से-कम अपने एक मत (वोट)का प्रयोग कर ख़ुद को इस निंदा-पुराण का वाजिब हक़ दिला सकते हैं....वरना तो हमें राजनीति की आलोचना करने का भी कोई हक़ नहीं हैं......

अगर वाकई मेरी बात सब लोगों तक पहुँच रही हो....तो इस अनाम से नागरिक की देश के समस्त लोगों से अपील है.....बल्कि प्रार्थना हैं कि इस चुनाव का वाजिब हिस्सा बनकर.....और कर्मठ लोगों को जीता कर हमारी संसद और विधान-सभाओं में पहुंचाएं.....और आगे से हम यह भी तय करें कि यह उम्मीदवार जीतने के पश्चात हमारे ही क्लच में रहे.....हमारे ही एक्सीलेटर बढ़ाने चले.......!!

................दोस्तों बहुत हो चुका....बल्कि बहुत ज्यादा ही हो चुका......अब भी अगर यही होता दीखता है तो फिर तमाम लोग सड़क पर आने को तैयार हो जाए.....अब तमाम "गंदे-संदे.....मवालियों....देश के हितों का सौदा करने वालों.....जनता की अवहेलना करने वालों.....और इस तरह की तमाम हरकतें करने वालों को...............।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

गज़ल



जब से मै और तुम हम न रहे
तब से दोस्ती मे वो दम ना रह

जीते रहे ज़िन्दगी को जाना नहीं
टेढे थे रस्ते, जमे कदम ना रहे

तकरार से फासले नहीं मिटते
जब भी शिकवे हुये हम हम ना रहे

रातें सहम गयी दिन बहक गये हैं
पलकें सूनी हैं आँसू भी नम ना रहे

फिरते हैं सजा के होठों पे हंसी
तन्हाई मे अश्क भी कम ना रहे

इक जिस्म दो जान हुआ करते थे
वो दोस्त अब हमदम ना रहे

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

कृष्ण कुमार यादव कृत काव्य संग्रह ‘अभिलाषा’ पर समीक्षा गोष्ठी

साहित्य अकादमी म0प्र0 संस्कृति परिषद भोपाल के छिन्दवाड़ा पाठक मंच केन्द्र द्वारा गुडविल एकाउंटस अकादमी और म0प्र0 आंचलिक साहित्यकार परिषद के संयुक्त तत्वाधान में युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री कृष्ण कुमार यादव के काव्य संग्रह ‘अभिलाषा’ पर 16 अप्रैल, 2009 को छिन्दवाड़ा के मानसरोवर काम्पलेक्स में समीक्षा गोष्ठी आयोजित की गयी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ0 कौशल किशोर श्रीवास्तव ने कहा कि अभिलाषा काव्य संग्रह का सम्पादन अत्यधिक प्रशंसनीय है तथा कविताओं के वर्गीकरण ने उसे सुन्दर बना दिया है। कवि का अभिजात्य शब्द चयन उसे सबसे ऊपर और सबसे अलग रख देता है। सम्पादन में नारी के तीनों रुपों के नीचे ईश्वर को रखा गया है जो दृष्टव्य है। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुये वरिष्ठ साहित्यकार श्री लक्ष्मी प्रसाद दुबे ने कहा कि संग्रह की कवितायें अपनी मानवीयता, कोमलता, लय तथा प्रेम भावना के साथ कहीं कल्पना तो कहीं वास्तविकता के साथ मिलकर एक सरस प्रवाह के रूप में पाठकों को निमग्न करने में सक्षम हैंै। उन्होंने अपने समीक्षा आलेख में पढ़ा कि इन कविताओं में जहाँ एक तरुण हृदय की भावुकतापूर्ण श्रृंगार रस में डूबी प्रणय भावना का सुन्दर चित्रण हुआ है, वहीं प्रकृति के विभिन्न रूपों के प्रति प्रेम एवं लगाव के साथ ही विचार प्रधान और बौद्धिकता से अधिक मार्मिक और प्रभावी भाव रचनाओं में चित्रित हुये हैं। विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित वरिष्ठ कहानीकार श्री गोवर्धन यादव ने अपने समीक्षा आलेख में पढ़ा कि संग्रह में कवि ने अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रगति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलम्बनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके हृदय और मस्तिष्क के रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में सँजोने का प्रयास किया है। इन कविताओं में जहाँ व्यक्तिगत सम्बन्धों, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं, जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों तथा प्रगति के पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावनात्मक अर्थ शब्दों में अनुगुंजित हुआ है, वहीं परा-अपरा, जीवन दर्शन, विश्व बोध, विज्ञान बोध से उपजी अनुभूतियों, बाल विमर्श, स्त्री विमर्श तथा जड़ व्यवस्था और प्रशासनिक रवैये को भी कवि कृष्ण कुमार यादव ने अनेक रुपों में चित्रित किया है।

वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेन्द्र वर्मा ने कहा कि संग्रह की प्रत्येक कविता संदेशप्रद और कवि की आध्यात्मिक चेतना का प्रतिबिम्ब दिखाने वाली है। गेयता के अभाव के बावजूद कविता प्रभाव डालती है। कवि ने ‘माँ’ कविता से संग्रह का प्रारम्भ कर मानो इष्टदेवी वन्दना की है और उसका ममत्व पूरे संग्रह पर छाया है। यहाँ तक कि ‘प्रेयसी’ से सम्बन्धित कविताओं में भी गरिमा है। ‘तुम्हारी खामोशी’ कविता प्रेम की शिखर अनुभूति का शब्द दर्पण है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री रत्नाकर ‘रतन’ ने कहा कि कवि ने मानवीय गतिविधियों, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवेश और सांस्कृतिक मूल्यों के विविध आयामों को कविता में पिरोया है। माँ और ईश्वर खण्ड की कवितायें ज्यादा प्रभावित करती हैं। कवितायें बहुत ही सहज और सरल हैं। वरिष्ठ साहित्यकार श्री परसराम तिवारी ने कहा कि संग्रह में कवि की सरलतम शब्दों में गहनतम अभिव्यक्ति है तथा कवि ने वास्तविकता के धरातल पर जीवन के अनुभव को कविता में ढाला है। कवि साम्यवादी विचाराधारा से भी प्रभावित लगता है। म0प्र0 आंचलिक साहित्यकार परिषद की जिला शाखा के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री शिवशंकर शुक्ल ‘लाल’ ने अपने समीक्षा आलेख में पढ़ा कि इस कृति की प्रत्येक कविता में शब्दों एवं विचारों में क्रमबद्धता और लयात्मकता है जो पाठक को बांधे रखती है एवं कवि की श्रेष्ठता एवं सृजनात्मकता को प्रमाणित करती है। यह सार्थक कृति भाषा शैली और शिल्प की दृष्टि से भी विशिष्टता और पहचान के सुयोग्य है। संग्रह में उपमायें, प्रतीक बिम्ब तो हंै ही, अमिधा, लक्षणा और व्यंजना का रंग संकलन का अतरंग है जो विषय वस्तु की प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों उजागर करता है। प्रबुद्ध पाठक डाॅ0 संतोष कुमार नाग के समीक्षा आलेख में पढ़ा गया कि इस कृति में जीवन के विभिन्न पहलुओं को छू लेना कवि की समग्रता को दर्शाते हैं। मनोभावों को शब्दों के रूप में आकार-प्रकार देकर अहसास को संसेदना के साथ व्यवस्थित कर कवि ने कृति में जान डाल दी है जो उसके बहुआयामी विचारों की पैठ दर्शाती है। युवा साहित्यकार श्री ओमप्रकाश ‘नयन’ ने कहा कि 12 खण्डों में विभाजित इस संग्रह में 88 कवितायें हैं जो कवि की अभिलाषाओं की उड़ान के रूप में सामने आती हैं। कवि जहाँ प्रकृति के प्रति गहरा लगाव और नैसर्गिक परिवेश को चित्रित करता है, वहीं प्रेम की अनुभूति, पारिवारिक मर्मस्पर्शिता, अन्तर्वेदना और युवा पीढ़ी की कुंठा से लबरेज है। वैचारिक प्रतिबद्धता और कलात्मक से परे कवि जीवन की समग्रता में माँ, प्रेयसी, ईश्वर, बचपन, यौवन, इंसानियत, मानवीय मूल्यों, करुणा आदि को शामिल करता है।

कार्यक्रम में युवा कवि श्री रामलाल सराठे, ‘रश्मि’ ने कहा कि कवि लम्बी कविताओं और अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से बचा है तथा रचनाओं के पात्र काल्पनिक न होकर स्वाभाविक हैं। युवा कवि श्री के0के0मिश्रा ‘कायर’ ने कहा कि ‘माँ’ कविता में माँ-बेटा-बहू का चित्रण इस प्रकार बना है कि रात भर शमा सिर्फ इसलिए जलती रही कि दिन के उजाले में चलने वाला मुसाफिर रात के अंधेरे में कहीं भटक न जाये, इसलिए निशा से लेकर उषा को सौंपने का उपक्रम करती है माँ। अपनी सास से पति को प्राप्त का उसकी प्रतिकृति को अपनी बहू को सौंपते वक्त हथेली पर गिरा गर्म आँसू सारी जिन्दगी का निचोड़ होता है। युवा कवि श्री राजेन्द्र चैबे ने कहा कि कवि ने जैसा सोचा, वैसा ही हर स्तर के लोगों पर लिखा है। विचारों को सहजता और सरलता से व्यक्त कर कवि ने कविताओं को ग्राह्य बना दिया है। युवा कवि श्री राजेन्द्र यादव ने कहा कि कविताओं में कवि की अभिव्यक्ति, दीवानगी, कल्पना की उड़ान अच्छी है तथा जमीनी सच्चाई का अनुपम उदाहरण है। परी की तुलना माँ से करना कवि की बुद्धि का परिचायक है तथा ‘ताले’ कविता दोहरे मानवीय चरित्र को उजागर करती है। युवा कवि श्री दिनेश परिहार ने कहा कि संग्रह के ईश्वर खण्ड की कवितायें विशेषकर ‘भिखमंगों का ईश्वर’ अच्छी लगी। युवा कवि श्री सुदेश मेहरोलिया ने कहा कि कवि ने घटनाओं को सहजता और सरलता से प्रस्तुत किया है। इन कविताओं में नयापन नहीं होने पर भी कवितायें पठनीय हैं। युवा कवि श्री श्रीकान्तशरण डेहरिया ने कहा कि संग्रह के ‘प्रेयसी’ खण्ड की ‘प्रेम’ कविता अच्छी है, जिसमें कवि प्रेम के माध्यम समाज के सभी लोगों को एक दूसरे से बांधना चाहता है। इसी तरह ‘तितलियाँ’ कविता भी अच्छी और सुन्दर बन पड़ी है। कार्यक्रम में श्री विशाल शुक्ल ‘ओम्’ और अन्य साहित्यकार व श्रोतागण उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन एवं आभार प्रदर्शन पाठक मंच के संयोजक एवं युवा साहित्यकार श्री ओम प्रकाश ‘नयन’ ने किया।
गोवर्धन यादव (वरिष्ठ कथाकार/समीक्षक)
संयोजक-राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, छिन्दवाड़ा
103, कावेरी नगर, छिंदवाड़ा (म0प्र0)-480001

कभी तुम आओ तो सही


जगाकर प्यार का एक
मीठा एहसास,
महका कर मेरी सांस का
एक-एक तार,
दिल की हर धड़कन तुम
झंकृत कर गईं,
सजाने को अपना प्यार भरा संसार,
......कभी तुम आओ तो सही।

बरखा ने सावन में छेड़ी है
रिमझिम फुहार,
सात सुरों का संगीत है
सजा रही बहार,
हर मंजर लिए है एक
अजब सी मदहोशी,
सजी है फिजा में एक
रुनझुन सी खामोशी,
प्रकृति भी है आज सजी है
इंद्रधनुषी रंग में,
देखने को मनभावन छटा
......कभी तुम आओ तो सही।

मौसम के साथ हर रंग
बदला है,
फिजां का स्वरूप
उजला है,
चाँद भी है खुश चाँदनी
बिखरा कर,
फूलों ने सजाई राह खुद को
महका कर,
सजाया है गगन ने झिलमिल
सितारों का आँचल,
करने को अद्भुत श्रृंगार
......कभी तुम आओ तो सही।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

संदूक.......................[एक कविता] - दर्पण शाह" दर्शन"

आज फ़िर ,
उस कोने में पड़े,
धूल लगे संदूक को,
हाथों से झाड़ा, तो,
धूल आंखों में चुभ गई।
....संदूक का कोई नाम नहीं होता
...पर इस संदूक में एक खुरचा सा नाम था ।
सफ़ेद पेंट से लिखा।
तुम्हारा था या मेरा,
पढ़ा नही जाता है अब।


खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही बेतरतीब पड़ी थी ...
'ज़िन्दगी'।
मुझे याद है......
...माँ ने,
'उपहार' में दी थी।
पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है।
पर आज भी ,जब पहन के देखता हूँ
तो, बड़ी ही लगती है,
शायद...

...कभी फिट आ जाए।


नीचे उसके,
तह करके सलीके से रखा हुआ है...
...'बचपन' ।
उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंक ,

कागज़ के रंग,

कुछ कंचे ,

उलझा हुआ मंझा,

और,
और न जाने क्या क्या....
कपड़े छोटे होते थे बचपन में,
जेब बड़ी....


कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये 'इमानदारी' सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी मुफलिसी के, और कभी बेचारगी के,
पर, इसकी सिलाई उधड गई थी, एक दिन।
....जब भूख का खूंटा लगा इसमे।
उसको हटाया,
तो नीचे पड़ी हुई थी 'जवानी',
उसका रंग...
उड़ गया था,
समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये....
अब पता नही...

कौनसा नया रंग हो गया है?


बगल में ही पड़ी हुई थी 'आवारगी',
....उसमें से,
अब भी,
शराब की बू आती है।


४-५ सफ़ेद, गोल,
खुशियों की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,संदूक में
पर वो खुशियाँ...

.... उड़ गई शायद।


याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था,
एक जोड़ी वफाएं खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर मुझपे ये अच्छी नही लगती।
और फ़िर...
इनका 'Fashion' भी,
...नहीं रहा।
'Joker' जैसा लगूंगा इसको लपेटकर।


...और ये शायद 'मुस्कान' है।
तुम,
कहती थी न....
जब मैं इसे पहनता हूँ,
तो अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ...
इसको.....

'जमाने' और 'जिम्मेदारियों' के बीच....

रख दिया था ना ।
तब से पेहेनना छोड़ दी।


अरे...
ये रहा 'तुम्हारा प्यार'।
'valentine day' में,
दिया था तुमने।
दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में, सिकुड़ जाता था।
हाँ...
खारा पानी ख़राब होता है, इसके लिए,
भाभी ने बताया भी था,
...पर आखें ये न जानती थी।


चलो,
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा, देखा,
यादें तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल धवल,
Fitting भी बिल्कुल सही
...लगता था,
आज के लिए ही खरीदी थी,
उस 'वक्त' के बजाज से जैसे,
कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर...
चलो,
आज इसे ही...

पहन लेता हूँ....

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

जागरण [लघुकथा]-कुमारेन्द्र सिंह सेंगर



कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - आपका जन्म जनपद-जालौन, 0प्र0 के नगर उरई में वर्ष 1973 में जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा उरई में तथा उच्च शिक्षा भी उरई में सम्पन्न हुई। लेखन की शुरुआत वर्ष 1882-83 में एक कविता (प्रकाशित) के साथ हुई और तबसे निरंतर लेखन कार्य में लगे हैं। हिन्दी भाषा के प्रति विशेष लगाव ने विज्ञान स्नातक होने के बाद भी हिन्दी साहित्य से परास्नातक और हिन्दी साहित्य में ही पी-एच0डी0 डिग्री प्राप्त की।लेखन कार्य के साथ-साथ पत्रकारिता में भी थोड़ा बहुत हस्तक्षेप हो जाता है। वर्तमान तक देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। रचनाओं में विशेष रूप से कविता, ग़ज़ल, कहानी, लघुकथा, आलेख प्रिय हैं। महाविद्यालयीन अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद लेखन को शोध-आलेखों की ओर भी मोड़ा। अभी तक एक कविता संग्रह (हर शब्द कुछ कहता है), एक कहानी संग्रह (अधूरे सफर का सच), शोध संग्रह (वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में सौन्दर्य बोध) सहित कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।

युवा आलोचक, सम्पादक श्री, हिन्दी सेवी, युवा कहानीकार का सम्मान प्राप्त डा0 सेंगर सामाजिक संस्थादीपशिखा’, शोध संस्थासमाज अध्ययन केन्द्रतथापी-एच0 डी0 होल्डर्स एसोसिएशनके साथ-साथ जन-सूचना अधिकार का राष्ट्रीय अभियान का संचालन।सम्प्रति एक साहित्यिक पत्रिकास्पंदनका सम्पादन कार्य कर रहे हैं। एक शोध-पत्रिका का भी सम्पादन किया जा रहा है।
इंटरनेट पर लेखन की शुरुआत ब्लाग के माध्यम से हुई। अपने ब्लाग के अतिरिक्त कई अन्य ब्लाग की सदस्यता लेकर वहाँ भी लेखन चल रहा है। शीघ्र ही एक इंटरनेट पत्रिका का संचालन करने की योजना है।

सम्पर्क- 110 रामनगर, सत्कार के पास, उरई (जालौन) 0प्र0 285001
फोन - 05162-250011, 256242, 9415187965, 9793973686


जागरण

वह अपनी पूरी ताकत से
, अपनी पूरी शक्ति लगा कर सड़क पर दौड़ी चली जा रही थी। सीने से अपनी नन्हीं बच्ची को दोनों हाथों के घेरे में छिपाये बार-बार पीछे मुड़ कर भी देखती जाती थी। दो-चार की संख्या में उसके पीछे पड़े लोग उसकी बच्ची को छीन कर मारना चाह रहे थे। तभी अचानक वह एक ठोकर खाकर सड़क पर गिर पड़ी, बच्ची उसकी बाँहों के सुरक्षित घेरे से छिटक कर सड़क पर जा गिरती है। इससे पहले कि वह उठ कर अपनी बच्ची को उठा पाती, एक तेज रफ्तार से दौड़ती हुई कार ने समूची सड़क को बच्ची के खून और लोथड़े से भर दिया। उसकी चीख ने समूचे वातावरण को हिला दिया।
‘‘क्या हुआ?’’ उसकी चीख सुन कर साथ में सो रहे उसके पति ने उसको सहारा देते हुए पूछा। तेज चलती अनियंत्रित सांसों पर किसी तरह नियंत्रण कर उसके मुँह से बस इतना ही निकला-‘‘मैं अपनी बच्ची की हत्या नहीं होने दूँगी।’’ पति ने उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर थपथपाते हुए उसे दिलासा दी। वह मातृत्व भाव समेट कर अपने पेट पर हाथ फेर कर कोख में पल रही बच्ची को दुलार करने लगी।

अनसुलझी वो..............[एक कविता ]

मुझमें ढूढ़ती पहचान अपनी
बार बार वो ,
जान क्या ऐसा
था
जिसकी तलाश थी उसको ,
अनसुलझे सवाल को
लेकर उलझती जाती
कभी मैंने साथ
देना चाहा था
उसकी खामोशियों को,
उसके अकेलेपन को ,
पर
वो दूर जाती रही
मुझसे ,
अचानक ही एक एहसास
पास आता है
बंधन का
बेनाम रिश्ते का ,
जिसमें दर्द है ,
घुटन है ,
मजबूरियां है,
शर्म है ,
तड़प है ,
उम्मीद है ।मैं समझते हुए भी
नासमझ सा
लाचार हूँ
उसके सामने
शायद बयां कर पाऊं कभी
उसको अपने आप में ।

गज़ल


मेहरबानियों का इज़हार ना करो
महफिल मे यूँ शर्मसार ना करो

दोस्त को कुछ भी कहो मगर
दोस्ती पर कभी वार ना करो

प्यार का मतलव नहीं जानते
तो किसी से इकरार ना करो

जो आजमाईश मे ना उतरे खरा
ऐसे दोस्त पर इतबार ना करो

जो आदमी को हैवान बना दें
खुद मे आदतें शुमार ना करो

इन्सान हो तो इन्सानियत निभाओ
इन्सानों से खाली संसार ना करो

कौन रहा है किसी का सदा यहां
जाने वाले का इन्तज़ार ना करो

मरना पडे वतन पर कभी तो
भूल कर भी इन्कार ना करो

पाप का फल वो देता है जरूर
फिर माफी की गुहार ना करो

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

पति परमेश्वर................[एक कविता] प्रिया प्रियम तिवारी की

तुम पति परमेश्वर हो,
तुम्हारे सारे अधिकार
मिले हैं, ईश्वर प्रदत्त,
तुम मेरे मान सम्मान के
रखवाले हो,
पर
जब चाहे मेरे मान सम्मान को
आहत कर सकते हो।

परमेश्वर बनकर मिल गया है
तुम्हें अधिकार ,
मेरे सम्मान को
कुचलने का
मैं तुम्हारी पत्नी हूँ,
श्रद्धा और त्याग की मूरत
अर्पण करूँ खुद को
तुम्हारे चरणों में
अपने अरमानों की चिता पर
पूरे होने दूँ तुम्हारे अरमान
तब मैं पत्नी हूँ "
आदर्श भारतीय पत्नी ।।

एहसास ...............[लघु कथा ] निर्मला कपिला जी



एहसास
बस मे भीड थी, उसकी नज़र सामनीक सीट पर पडी जिसके कोने मे एक सात आठ साल का बच्चा सिकुड कर बैठा था. साथ ही एक बैग पडा था
'बेटे आपके साथ कितने लोग बैठे हैं' शिवा ने ब्च्चे से पूछा जवाब देने के बजाये बच्चा उठ कर खडा हो डरा सा.... कुछ बोला नहीं , वो समझ गया कि लडके के साथ कोई हैउसने एक क्षण सोचा फिर अपनी माँ को किसी और सीट पर बिठा दिया और खाली सीट ना देख कर खुद खडा हो गया
तभी ड्राईवर ने बस स्टार्ट की तो बच्चा रोने लगा । कन्डक्टर ने सीटी बजाई ,एक महिला भग कर बस मे चढी उस सीट से बैग उठाया और बच्चे को गोद मे ले कर चुप कराने लगी। उसे फ्रूटी पीने को दी बच्चा अब निश्चिन्त हो गया था । कुछ देर बाद उसने माँ के गले मे बाहें डाली और गोदी मे ही सोने लग गया । उसके चेहरे पर सकून था माँ की छ्त्रछाया का.....
'' माँ,मैं सीट पर बैठ जाता हूँ,मेरे भार से तुम थक जाओगी''
''नहीं बेटा, माँ बाप तो उम्र भर बच्चों का भार उठा सकते हैं, तू सो जा''
माँ ने उसे छाती से लगा लिया
शिवा जब से बस मे चढा था वो माँ बेटे को देखे जा रहा था,उनकी बातें सुन कर उसे झटका सा लगा । उसने अपनी बूढी माँ की तरफ देखा जो नमआँखों से खिडकी से बहर झांक रही थी । उसे याद आया उसकी माँ भी उसे कितना प्यार करती थी । पिता की मौत के बाद माँ ने उसे कितनी मन्नतें माँग कर उसे भगवान से लिया था । पिता की मौत के बाद उसने कितने कष्ट उठा कर उसे पल पढाया । उसे किसी चीज़ की तंगी ना होने देती ,जब तक शिव को देख न लेती उसखथ से खाना ना खिल लेती उसे चैन नहिं आता , फिर धूम धाम से उसकी शादी की.....बचपन से आज तक की तसवीर उसकी आँखों के सामने घूम गयी .
अचानक उसके मन मे एक टीस सी उठी........वो काँप गया .......माँकी तरफ उस की नज़र गयी......माँ क चेहरा देख कर उसकी आँखों मे आँसू आ गये....वो क्या करने जा रहा है?......जिस माँ ने उसे सारी दुनिया से मह्फूज़ रखा आज पत्नी के डर से उसी माँ को वृ्द्ध आश्रम छ्होडने जा रहा है1 क्या आज वो माँ क सहारा नहीं बन सकता?
''ड्राईवर गाडी रोको""वो जूर से चिल्लाया
उसने माँ का हाथ पकडा और दोनो बस से नीचे उतर गये
जेसे ही दोनो घर पहुँचे पत्नी ने मुँह बनाया और गुस्से से बोली''फिर ले आये? मै अब इसके साथ नहीं रह सकती '' वो चुप रहा मगर पास ही उसका 12 साल का लडका खडा था वो बोल पडा....
''मम्मी, आप चिन्ता ना करें जब मै आप दोनो को बृ्द्ध आश्रम मे छोडने जाऊँगा तो दादी को भी साथ ही ले चलूंगा । दादी चलो मेरे कमरे मे मुझे कहानी सुनाओ '' वो दादी की अंगुली पकड कर बाहर चला गया..दोनो बेटे की बात सुन कर सकते मे आ गये । उसने पत्नी की तरफ देखा.....शायद उसे भी अपनी गलती का एहसास हो गया था ।

हिन्दी साहित्य मंच के नये साथी - कृष्ण कुमार यादव जी [एक परिचय ]

हिन्दी साहित्य मंच ' हिन्दी प्रेमियों का मंच' पर हमारे नये साथी के रूप में जुड़ रहे हैं कृष्ण कुमार यादव जी । एक परिचय इन नये साहित्य मंचीय कवि का प्रस्तुत है । साहित्य में गहरी रूचि और प्रेम रखने वाले मंचीय कविराज " श्री कृष्ण जी " ।

नाम : कृष्ण कुमार यादव
जन्म : 10 अगस्त 1977, तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0)
शिक्षा : एम0 ए0 (राजनीति शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय
विधा : कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, व्यंग्य एवं बाल कविताएं।
प्रकाशन : समकालीन हिंदी साहित्य में नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, सरिता, नवनीत, आजकल, वर्तमान साहित्य, उत्तर प्रदेश, अकार, लोकायत, गोलकोण्डा दर्पण, उन्नयन, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राष्ट्रीयसहारा, आज,द सण्डे इण्डियन, इण्डिया न्यूज, अक्षर पर्व, युग तेवर इत्यादि सहित 200 से ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन। दो दर्जन से अधिक स्तरीय काव्य संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन। विभिन्न वेब पत्रिकाओं- सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, लिटरेचर इंडिया, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, इत्यादि पर रचनाओं का नियमित प्रकाशन।
प्रसारण : आकाशवाणी लखनऊ से कविताओं का प्रसारण।
कृतियाँ : अभिलाषा (काव्य संग्रह-2005), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह-2006), इण्डिया पोस्ट- 150 ग्लोरियस इयर्स (अंगेरजी-2006), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह-2007), क्रान्ति यज्ञ: 1857-1947 की गाथा (2007)। बाल कविताओं व कहानियों के संकलन प्रकाशन हेतु प्रेस में।
सम्मान : विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थानों द्वारा सोहनलाल द्विवेदी सम्मान, कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान,महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान, काव्य गौरव, राष्ट्रभाषा आचार्य, साहित्य मनीषी सम्मान, साहित्य गौरव, काव्य मर्मज्ञ, अभिव्यक्ति सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान, साहित्य श्री, साहित्य विद्यावाचस्पति, देवभूमि साहित्य रत्न, ब्रज गौरव, सरस्वती पुत्र और भारती-रत्न से अलंकृत। बाल साहित्य में योगदान हेतु भारतीय बाल कल्याण संस्थान द्वारा सम्मानित।
विशेष : व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव‘‘ शोधार्थियों हेतु प्रकाशित। सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु द्वारा सम्पादित ‘बाल साहित्य समीक्षा’(सितम्बर 2007) ए इलाहाबाद से प्रकाशित ‘गुफ्तगू‘ (मार्च 2008) द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
अभिरूचियाँ : रचनात्मक लेखन व अध्ययन, चिंतन, नेट-सर्फिंग, फिलेटली, पर्यटन, सामाजिक व साहित्यिक कार्यों में रचनात्मक भागीदारी, बौद्धिक चर्चाओ में भाग लेना।
सम्प्रति/सम्पर्क :कृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर मण्डल, कानपुर-208001

रविवार, 12 अप्रैल 2009

गुरू सहाय भटनागर ‘बदनाम’ की एक गजल


याद करते है


तुम्हारी मद भरी आंखों को याद करते है,
तुम्हारे प्यार के वादों को याद करते हैं।


अकेले होते हैं फिर भी नहीं तन्हा होते,
तेरी उन मरमरी बाहों को याद करते हैं।


सहारा दे न सकी जिसको तेरी चश्मे करम,
अश्क में डूबी निगाहों को याद करते हैं।

दर्द- [एक गजल ] गार्गी गुप्ता की प्रस्तुति { परिचय एक झलक}

गार्गी गुप्ता ,
जन्म - ७ अगस्त, जिला एटा (उत्तर प्रदेश) भारत
शिक्षा : स्नातक
रुचियाँ : नृत्य , लेखन, अभिनय, भाषण
पुरुस्कार :
भाषण - सीलिंग समस्या , नारी और उसका अस्तित्व के लिए प्रथम पुरस्कार महा विद्यालय स्तर पर
नृत्य - मुक्त सांस्कृतिक लिए प्रथम पुरस्कार महा विद्यालय स्तर पर
कविता - मेरे भारत , माता पिता , तू लड़की है के लिए पुरस्कार महा विद्यालय स्तर पर
अभिनय - हड़ताल के लिए पुरस्कार महा विद्यालय स्तर पर
निबंध लेखन - के लिए पुरस्कार महा विद्यालय स्तर
पसंदीदा कवि : निराला , अज्ञे , महादेवी, हरिबंश राय बच्चन , दिनकर , बिहारी जी , सूरदास
पसंदीदा लेखक : हरिशंकर परसाई , प्रेमचंद , मोहन राकेश,

कविता , उपन्यास और कहानिया पढने का बहुत शौक है । अभी मई २००९ तक स्नातकोत्तर की छात्र हैं।

दर्द-


महोब्बत है अजीब, आंखो में आँसू सजाये बैठे है ।
देवता नही है, फिर भी हम सपनो का मंदिर सजाये बैठे है । ।

किस्मत की बात है, दुनिया से खुद को छुपायें बैठे है ।
कैसे बया करे, उन पर हम अपना सब कुछ लुटाये बैठे है । ।

बेरहम है ये दुनिया, फिर भी अदला जमाये बैठे है ।
वो दूर है तो क्या, उनका दिल दिल से लगाये बैठे है । ।

वो लौट कर न आयेगे, फिर भी नज़रे बिछाये बैठे है ।
उनसे मिलने की ललक में, सब कुछ भुलाये बैठे है । ।

आंखो से आँसू इतने गिरे , की समन्दर बनाये बैठे है ।
वो वेरहम है पता है मुझको , फिर भी तेरे सजदे में सर को झुकाये बैठे है । ।