मुझमें ढूढ़ती पहचान अपनी
बार बार वो ,
जान क्या ऐसा
था
जिसकी तलाश थी उसको ,
अनसुलझे सवाल को
लेकर उलझती जाती
कभी मैंने साथ
देना चाहा था
उसकी खामोशियों को,
उसके अकेलेपन को ,
पर
वो दूर जाती रही
मुझसे ,
अचानक ही एक एहसास
पास आता है
बंधन का
बेनाम रिश्ते का ,
जिसमें दर्द है ,
घुटन है ,
मजबूरियां है,
शर्म है ,
तड़प है ,
उम्मीद है ।मैं समझते हुए भी
नासमझ सा
लाचार हूँ
उसके सामने
शायद बयां कर पाऊं कभी
उसको अपने आप में ।
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
अनसुलझी वो..............[एक कविता ]
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3 comments:
वाह जी वाह अति बेहतरीन कविता के लिए आपको बधाई
समर्पण प्रस्तुत करती यह कविता । सुन्दर ढ़ग से आपने भावाभिक्ति दी है ।
bahut hi sundar abhivyakti hai
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