टकटकी बाँधकर देखती है
जैसे कुछ कहना हो
और फुर्र हो जाती है तुरन्त
फिर लौटती है
चोंच में तिनके लिए
अब तो कदमों के पास
आकर बैठने लगी है
आज उसके घोंसले में दिखे
दो छोटे-छोटे अंडे
कुर्सी पर बैठा रहता हूँ
पता नहीं कहाँ से आकर
कुर्सी के हत्थे पर बैठ जाती है
शायद कुछ कहना चाहती है
फिर फुर्र से उड़कर
घोंसले में चली जाती है
सुबह नींद खुलती है
चूँ...चूँ ...चूँ..... की आवाज
यानी दो नये जीवनों का आरंभ
खिड़कियाँ खोलता हूँ
उसकी चमक भरी आँखों से
आँखें टकराती हैं
फिर चूँ....चूँ....चूँ...!!!
14 comments:
Behad sundar abhivyakti.
बहुत सुन्दर. भावपूर्ण रचना.
कुर्सी पर बैठा रहता हूँ
पता नहीं कहाँ से आकर
कुर्सी के हत्थे पर बैठ जाती है
शायद कुछ कहना चाहती है
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आज विश्व पृथ्वी दिवस पर बेहद सार्थक कविता..साधुवाद !!
बहुत खूबसूरत कविता है. जितनी बार पढो, मन नहीं भरता.
कायल हूँ आपकी रचनाधर्मिता का.....इक जुदा अंदाज़ में लिखी कविता.
कृष्ण कुमार जी! बड़ी मासूम कविता लिखी आपने. यह न जाने कितनी बार हमारे साथ होता है, पर आपने इसे कवित्व भाव दे दिया. दाद देता हूँ आपकी.
कृष्ण कुमार जी! बड़ी मासूम कविता लिखी आपने. यह न जाने कितनी बार हमारे साथ होता है, पर आपने इसे कवित्व भाव दे दिया. दाद देता हूँ आपकी.
चूँ...चूँ ...चूँ..... की आवाज
यानी दो नये जीवनों का आरंभ
खिड़कियाँ खोलता हूँ
उसकी चमक भरी आँखों से
आँखें टकराती हैं
फिर चूँ....चूँ....चूँ...!!!
...शब्दों और भाव की खूबसूरत अभिव्यंजना.
इस कविता को पढ़कर तो बचपन के दिनों में खो गयी...अब तो ऐसे वाकये कम ही दिखते हैं.
ek achhi rachna .......
bahut achha chayan.....
saarathak prayaas......
badhaaee . . .
---MUFLIS---
सुन्दर अभिव्यक्ति।
... सुन्दर, अतिसुन्दर!!!!!!!
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