सपनों के टूटने की खनक से
नींद भर सो न सका
रात के अंधेरे में कोशिश की
उनको बटोरने की
कुछ इधर उधर गिरकर बिखर गए थे
हाँ
टूट गए थे
एक अहसास चुभा सीने में
जिसके दर्द से आँखें भर आई थी
मैंने तो
रोका था उस बूंद को
कसमों की बंदिशों से
शायद
अब मोल न था इन कसमों का
फिर
उंघते हुए
आगे हाथ बढ़ाया था
वादों को पकड़ने के लिए
लेकिन वो दूर था पहुँच से मेरी
क्यूंकि
धोखे से उसके छलावे को
मैंने सच समझा था
कुछ
देर तक
सुस्ताने की कोशिश की
तो सामने नजर आया था
उसके चेहरे का बिखरा टुकड़ा
हाथ बढ़ाकर पकड़ना चाहा था
लेकिन
कुछ ही पल में
चकनाचूर हो गया
वो चेहरा
मैं हारकर
चौंक गया था ....
.........
..................
चेहरा पसीने तर ब तर था
मेरे सपने ने
आज तोडा था मुझको
5 comments:
ओह! कैसे ऐसी टूटन कोई समेटे।
bahut khubsurat rachna
achhee rachnaa hai ...
padhne ko
mn kartaa hai... !
ऐसे स्याह सपने भी स्तब्ध कर देते हैं।
खूबसूरत रचना नीशू भाई.. अच्छा लगा.. पढ़कर..
यूँ ही लिखते रहें...
आभार
एक टिप्पणी भेजें