बेटी के जन्मदिन के शाम, बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ, हर इतवार वर की खोज में, रिश्तेदारों के तानों की ज्वाला से सुलग ,
मेरे आस की मोमबत्तियां बुझती हैं,
उसकी बढ़ती उम्र के चढ़ते दिन मुझे,
नजदीक आ रहे निवृत्ति की याद दिलाते हैं,
बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्न
और मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है
शायद कुछ रंग निखर आए,
उसके नौकरी के आवेदन पत्र को बार बार पढता हूँ,
शायद कहीं कोई नियुक्ति हो जाए,
पंडितों से उसकी जन्म कुण्डली बार-बार दिखवाता हूँ,
शायद कभी भाग्य खुल जाए
पूरे शहर दौड़ लगा आता हूँ,
भाग्य से नाराज़, झुकी निगाहों का खाली चेहरा ले घर को लौट जाता हूँ,
नवयुवक के मूल्यांकन में भ्रमित मैं,
अपने और इस जमाने के अन्तर में जकड़ जाता,
वर पक्ष के प्रतिष्टा और परिस्थिती के सामने,
अपने को कमजोर पा कोसता-पछताता
मित्रों के हंसी की लपट में भभक ,
परिवार के असंतोष में झुलस,
अंत में एक अवशेष सा रह जाता हूँ
इस जर्जर, दूषित, दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,
किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,
मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,
इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ
गुरुवार, 20 अगस्त 2009
"कुंवारी बेटी का बाप" - अवनीश तिवारी
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2 comments:
अवनीश जी , आपने समाज की वास्तविक स्थिति को सामने रख दिया है । बधाई
वास्तविकता से भरी रचना...सुंदर
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