बादलों में चांद छिपता है,
बुधवार, 26 अगस्त 2009
बादलों में चांद छिपता
निकलता है ,
कभी अपना चेहरा दिखाता है ,
कभी ढ़क लेता है ,
उसकी रोशनी कम होती जाती है
फिर अचानक वही रोशनी
एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेज होती जाती है ।
मैं इस लुका छिपी के खेल को
देखता रहता हूँ देर तक,
जाने क्यूँ बादलों से
चांद का छिपना - छिपाना
अच्छा लग रहा है ,
खामोश रात में आकाश की तरफ देखना ,
मन को भा रहा है ,
उस चांद में झांकते हुए
न जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।
ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास
बार - बार हो रहा है ।
तुम्हारी यादें चांद ताजा कर रहा है,
मैं तुमको भूलने की कोशिश करके भी ,
आज याद कर रहा हूँ ,
इन यादों की तड़प से
मन विचलित हो रहा है ,
शायद चांद भी ये जानता है कि-
मैं तुम्हारे बगैर कितना तन्हा हूँ ?
अधूरा हूँ ,
ये चांद तुम्हारी यादें दिलाकर
तुम्हारी कमी को पूरा कर रहा है
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5 comments:
सामयिक रचना दिल को छू गई
वाह नीशू जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ती। बढिया रचना। बधाई......
kya kahu aap ne bhut hi sundhar dhang se apni tanhai bya ki
bhut achchhi lagi aap ki kavita
ऐसे ही कमी पूरी करते रहें, यही दुआ है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत उम्दा रचना!
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