इस मलाई दार के शोर की गूँज हमारी श्रीमती के कानों में भी पहुंचनी लाजमी थी। तभी तो उन्होंने एक दिन हमसे पूछ ही लिया-ये मलाईदार क्या बला है....?
डॉ.योगेन्द्र मणि
डॉ.योगेन्द्र मणि
जब लहरों से टकराये पत्थर
वो पत्थर भी पल में बिखर जाता है
रेत बनके वो कण-कण से पत्थर
समन्दर में जाके वो मिल जाता है
जब लहरों से टकराये पत्थर
खेवईयां चलाए बस्तियों को
बस्तियों से मिलाए बस्तियों को
जब समन्दर की लहरें बदल जाती हैं
उजाड़ देती वो कितने बस्तियों को
जब लहरों से टकराये पत्थर
है कुदरत का सारा करिश्मा
लगा है लोगों का मजमा
आज लहरों ने ऐसा कहर ढाया है
दिया है सबको इसका सदमा
जब लहरों से टकराये पत्थर
लड़ रहे हैं भाई सब अपने
बनाया है सबको जिसे रब ने
धमनियों में बहता एक सा है
फिर बतलाया भेद हममें किसने
जब लेहरों से टकराये पत्थर
(नरेन्द्र कुमार)
बादलों में चांद छिपता है,
राजनीतिज्ञो की राजनीति देखी
धर्म, सम्प्रदाय में राजनीति दिखी
जाति, भाषा से बंटे लोग देखे
देखा भाई-भतीजावाद का हर वो चेहरा
पर साहित्यकारों में भी राजनीति होगी
इसकी कभी परिकल्पना नहीं कि थी मैंने
सब दिखा हंस और पाखी के प्रतिवाद में
उस ज्ञान पीठ पुस्कार से
जिसे समृद्ध ज्ञानत्व वालें लोगो को दिया जाता है
आलोचक रचनाकारों के तेवरों ने भी
दिखाया राजनीति का चेहरा
दिखाया कैसे एक साहित्यकार
साहित्य के क्षेत्र में एक छत्र
राज करने को लालायित रहता है
अपनी ही पत्रिका और लेखनी को
सर्वोच्च ठहराने की जुगत करता है
इस क्रम में एक-दूसरे पर आक्षेप
करने से भी नहीं चूकता
आदतें उन तमाम राजनीतिज्ञों की तरह
जो अपने ही दल को देश का प्रहरी मानता है
और दूसरे को देश का दुश्मन
उन धर्मनिर्पेक्ष और साम्प्रदायिक ठेकेदारों की तरह
जिन्हें न तो देश से लगाव है न ही देशवासियों से
ज्ञान बांटने वाले ये लोग
अज्ञानता की राजनीति से गुजरते देखे जायेंगे
नवीन कवियों और लेखको के लिए
यह बेहद चिंता का विषय है
खेमेबाजी की इस दौर में
नये उभरते लेखकों को
एक खेमा चुनने की विवशता
कहीं उनके लेखनी में जड़ता न ला दे
जिस समाज को बदलने की आश लिए
नए साहित्यकार अपना कलम चलाते हैं
कहीं उनके मन में डर न समा जाए कि
कौन सा खेमा उनसे ख़ीज खाकर
उसके पन्नों पर ही स्याही न छीड़क दे
निष्कर्ष सोचकर ही हम जैसे
रचनाकारों को डर सा लगने लगा है
कही हमारे पल्लवित होते पंख को भी
आलोचक राजनीति खेमेबाजी कर कुतर न डालें।
कहीं छांव नहीं सभी धूप लगे
आज पांव में भी गर्मी खूब लगे
कही जलता बदन पसीना बहे
हर डगर पे अब प्यास बढ़े
सतह से वृक्ष वीरान हुये
खेती की जमीं शमशान हुई
पानी की सतह भी द्घटती गई
आबादी जहां की बढ़ती ही गई
गर्मी की तपन जब खूब बढ़ेगी
सूखा सारा हर देश बनेगा
पेड़ सतह से जब मिट जायेगा
इंसान की आबादी खुद-ब-खुद द्घट जायगी
वृक्ष लगा तू धरती बचा
धरती पे है सारा इंसान बसा
जब पेड़ नहीं पानी भी नहीं
बिन पानी फिर इंसान कहां
छिपे-छिपाए चकमा देकर,
असला बारूद भरकर
आ गये फिल्मी नगरी के भीतर
देखा इंसानी चेहरों को
मासूम भी दिखें, उम्र दराज जिंदगियां भी थी
पर शायद दरिंदगी छुपी थी सीने में
उनके जहन में था व्य्हसियानापन
कुछ आगे पीछे सोचे बगैर
मचा दिया कोहराम, बजा दी तड़-तड़ की आवाजें
बिछादी लाशे धरती पर
क्या बच्चें, बूढे और जवान
क्या देशी व विदेशी, चुन-चुन कर निशान बनाया
लाल स्याही से, पट गया धरती का आंगन
कुछ हौसले दिखे, दिलेरी का मंजर दिखा
जो निहत्थे थे पर जुनून था
टकरा गए राई मानो पहाड़ से
खुद की परवाह किए बगैर
शिकस्त दिया खुद भी खाई
वीरता से जान गवाई, बचे खुचे दहशतगर्द
आग बढ गए, ताज को कब्जे में किया
फिर जो दिखा, दुनिया भी देखी
आतंक का चेहरा, कत्ले आम किया।
कुछ बच गए, रहमत था उनपर
जो मारे गये, किस्मत थी उनकी
फिर युद्ध चला, पराजित भी हए
पर जांबाजो की ढेर लगी
मोम्बत्तियां जली आंसू बहें, एकता का बिगुल बजा,
नेताओं पर गाज गिरी, निकम्मों को सजा मिली
सबूत ढूंढे गए, दोषी भी मिले
सजा देना मुकम्मल नहीं
लोहा गरम है, कहीं मार दे न हथौड़ा
पानी डालने के लिए, अब कुटनीति है चली
लेकिन जनता जाग चुकी है
सवाल पूंछने आगे बढी है
पर शायद जवाब, किसी के पास है ही नहीं
जिन्होंने देश को तोड़ा, जाति क्षेत्रा मजहब के नाम पर
आज खामोश है वे सब,
मौकापरस्ती और, तुष्टिकरण की बात पर
चुनाव आनी है, दो और दो से पांच बनानी है
खामोश रहना ही मुनासिब समझा
बह कह दिया, सुरक्षा द्घेरा, हटादो मेरा!
कुछ दिनों तक तनातनी का
यहीं चलेगा खेल, फिर बढ़ती आबादी की रेलमरेल
एक बुरा सपना समझकर, फिर सब भूल जायेंगे
याद आयेंगे तब, जब अगली बार फिर से
मौत का तांडव मचायेंगे।
बेटी के जन्मदिन के शाम,
मेरे आस की मोमबत्तियां बुझती हैं,
उसकी बढ़ती उम्र के चढ़ते दिन मुझे,
नजदीक आ रहे निवृत्ति की याद दिलाते हैं,
बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्न
और मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है
बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ,
शायद कुछ रंग निखर आए,
उसके नौकरी के आवेदन पत्र को बार बार पढता हूँ,
शायद कहीं कोई नियुक्ति हो जाए,
पंडितों से उसकी जन्म कुण्डली बार-बार दिखवाता हूँ,
शायद कभी भाग्य खुल जाए
हर इतवार वर की खोज में,
पूरे शहर दौड़ लगा आता हूँ,
भाग्य से नाराज़, झुकी निगाहों का खाली चेहरा ले घर को लौट जाता हूँ,
नवयुवक के मूल्यांकन में भ्रमित मैं,
अपने और इस जमाने के अन्तर में जकड़ जाता,
वर पक्ष के प्रतिष्टा और परिस्थिती के सामने,
अपने को कमजोर पा कोसता-पछताता
रिश्तेदारों के तानों की ज्वाला से सुलग ,
मित्रों के हंसी की लपट में भभक ,
परिवार के असंतोष में झुलस,
अंत में एक अवशेष सा रह जाता हूँ
इस जर्जर, दूषित, दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,
किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,
मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,
इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ
ये कहानी वीरो की कहानी
क्या कहता सुन ये मन है, क्यों सबकी आंखें नम हैं,
कुछ तो खोया है, सब ने रोया है
दर्द है ये दिल की है कहानी, वीरों ने दी है कुर्बानी
है ये कहानी, वीरों की कहानी-२
फक्र है हमको नाज यहीं है, अपने देश का ताज यही है,
सबकी इसने लाज बचा दी, मेरे गीतों का साज यही है
हंस हंस के ये जान लुटा दे, लुटा दे अपनी जवानी
है ये कहानी वीरों की कहानी-२
इसको तोड़ों उसको फोड़ो, नेताओं ने राग है छेड़ा
जाति क्षेत्रा मजहब में तोड़ो, ताकि वोट मिले और थोड़ा
शहीदों को भी वोट में तोले, कड़वी इनकी जुबानी
है ये कहानी वीरों की कहानी-२
आम आदमी भीख मांगता, और नेता को देखो
स्वीस बैंक में नोट छीपाके, कहते देश को बेचों
चिंता छोड़ों दुनिया की, तुम अपनी चिंता कर लों
कफन बेचदों वीरों की, पर अपनी जेब तो भर लो
भाषण देकर पेट भरे, ये रित है बड़ी पुरानी
है ये कहानी वीरों की कहानी-२