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शुक्रवार, 22 मई 2009

मुझे निभाना है प्रण- निर्मला जी

जीवन मे हमने
आपस मे
बहुत कुछ बाँटा
बहुत कुछ पाया
दुख सुख
कर्तव्य अधिकार
इतने लंबे सफर मे
जब टूटे हैं सब
भ्रमपाश हुये मोह भँग
क्या बचा
एक सन्नाटे के सिवा
मै जानती थी
यही होगा सिला
और मैने सहेज रखे थे
कुछ हसीन पल
कुछ यादें
हम दोनो के
कुछ क्षणो के साक्षी1
मगर अब उन्हें भी
तुम से नहीं बाँट सकती
क्यों कि मै हर दिन
उन पलों को
अपनी कलम मे
सहेजती रही हूँ
जब तुम
मेरे पास होते हुये भी
मेरे पास नही होते
तो ये कलम मेरे
प्रेम गीत लिखती
मुझे बहलाती
मेरे ज़ख्मों को सहलाती
तुम्हारे साथ होने का
एहसास देती
अब कैसे छोडूँइसका साथ्
अब् कैसे दूँ वो पल तुम्हें
मगर अब भी चलूँगी
तुम्हारे साथ साथ्
पहले की तरह्
क्यों की मुझे निभाना है
अग्निपथ पर
किये वादों का प्रण

3 comments:

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

निर्मला जी , बहुत ही सशक्तरूप लिये आपकी यह रचना अतिसुन्दर है । शब्द नहीं है इसके लिए । बधाई बहुत बहुत आपको ।

Unknown ने कहा…

बेहद सुन्दर रचना के लिए निर्मला जी बहुत बहुत धन्यवाद ।

جسوندر سنگھ JASWINDER SINGH ने कहा…

अतिसुन्दर रचना है