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सोमवार, 2 मई 2011

पतझड़........ मानव मेहता

मैंने देखा है उसको


रंग बदलते हुए....


हरे भरे पेड़ से लेकर,


एक खाली लकड़ी के ठूंठ तक.......


गए मोसम में,मेरी नज़रों के सामने,


ये हरा-भरा पेड़-


बिलकुल सूखा हो गया....


होले-होले इसके सभी पत्ते,


इसका साथ छोड़ गए,


और आज ये खड़ा है


आसमान में मुंह उठाये-


जैसे की अपने हालत का कारन,


ऊपर वाले से पूछ रहा हो....!!!!




इसके ये हालत,


कुछ मुझसे ज्यादा बदतर नहीं हैं,


गए मोसम में,


मुझसे भी मेरे कुछ साथी,


इसके पत्तों की तरह छुट गए थे......


मैं भी आज इस ठूंठ के समान,


मुंह उठाये खड़ा हूँ आसमान की तरफ.....


आने वाले मोसम में शायद ये पेड़,


फिर से हरा भरा हो जाएगा.....


मगर न जाने मेरे लिए,


वो अगला मौसम कब आएगा.....


जाने कब....???

5 comments:

Anupama Tripathi ने कहा…

मन की नीरवता को सुन्दरता से रचा है ..!!
अच्छी रचना ,

neena mandilwar ने कहा…

bahut sundar par etni nirasha kyu bhla sahitya hame gam me bhi jina sikhata hai.

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

बहुत ही खुबसुरत और एहसासपूर्ण..गहरे भाव समेटे सुंदर रचना।

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

bahut sundar rachna.....

नीलांश ने कहा…

bahut acchi lagi kavita....