बादलों में चांद छिपता है,
निकलता है ,
कभी अपना चेहरा दिखाता है ,
कभी ढ़क लेता है ,
उसकी रोशनी कम होती जाती है
फिर अचानक वही रोशनी
एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेज होती जाती है ।
मैं इस लुका छिपी के खेल को
देखता रहता हूँ देर तक,
जाने क्यूँ बादलों से
चांद का छिपना - छिपाना
अच्छा लग रहा है ,
खामोश रात में आकाश की तरफ देखना ,
मन को भा रहा है ,
उस चांद में झांकते हुए
न जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।
ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास
बार - बार हो रहा है ।
तुम्हारी यादें चांद ताजा कर रहा है,
मैं तुमको भूलने की कोशिश करके भी ,
आज याद कर रहा हूँ ,
इन यादों की तड़प से
मन विचलित हो रहा है ,
शायद चांद भी ये जानता है कि-
मैं तुम्हारे बगैर कितना तन्हा हूँ ?
अधूरा हूँ ,
ये चांद तुम्हारी यादें दिलाकर
तुम्हारी कमी को पूरा कर रहा है
3 comments:
बेहद लाजवाब अभिव्यक्ति नीशू जी ।
उम्दा.
शायद चांद भी ये जानता है कि-
मैं तुम्हारे बगैर कितना तन्हा हूँ ?
अधूरा हूँ ,
ये चांद तुम्हारी यादें दिलाकर
तुम्हारी कमी को पूरा कर रहा है
वाह निशू जी कमाल है बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
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