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गुरुवार, 26 नवंबर 2009

भूख का एहसास - लघुकथा (कुमारेन्द्र सिंह सेंगर)

उसने पूरी ताकत से चिल्लाकर कुछ पाने की गुहार लगाई। कई बार आवाज लगाने और दरवाजा भड़भड़ाने पर अंदर से घर की मालकिन बाहर निकलीं।

-‘‘क्या है? क्यों शोर कर रहे हो?’’

-‘‘कुछ खाने को दे दो, दो दिन से कुछ खाया नहीं’’ उस बच्चे ने डरते-डरते कहा।.............‘‘बहुत भूख लगी है’’ लड़के ने अपनी बात पूरी की।

मालकिन ने उसको ऊपर से नीचे तक घूरा और कुछ कहती उससे पहले अंदर से उसके बेटे ने साड़ी खींचते हुए अपनी माँ से सवाल किया-‘‘मम्मी, भूख क्या होती है?’’

उस औरत ने अपने बच्चे को गोद में उठाकर दरवाजे के बाहर खड़े बच्चे को देखा और कुछ लाने के लिए घर के अंदर चली गई।

3 comments:

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

सच्ची बात कह दी आपने लघुकथा के माध्यम से ।

मनोज कुमार ने कहा…

लघुकथा अपनी संक्षिप्तता, सूक्ष्मता एवं सांकेतिकता में जीवन की व्याख्या को नहीं वरन् व्यंजना को समेट कर चली है।

निर्झर'नीर ने कहा…

chand shabdo mein samaj ke jis pahloo ko aapne parosa hai ..
yakinan kabil-e-tariif