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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

झलक ................श्यामल सुमन

बेबस है जिन्दगी और मदहोश है ज़मानाइक ओर बहते आंसू इक ओर है तराना
लौ थरथरा रही है बस तेल की कमी सेउसपर हवा के झोंके है दीप को बचाना
मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनातेमालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना
मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासतरोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना
मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ मेंचाहत बिना भी सच का पड़ता गला दबाना
अबतक नहीं सुने तो आगे भी न सुनोगेमेरी कब्र पर पढ़ोगे वही मरसिया पुराना
होते हैं रंग कितने उपवन के हर सुमन केहै काम बागवां का हर पल उसे सजाना

1 comments:

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

होते हैं रंग कितने उपवन के हर सुमन केहै काम बागवां का हर पल उसे सजाना

बहुत खूबसूरत गज़ल.
बधाई.