वो आई जैसे चुपके से
सौन्दर्य सुरभि लेकर
आती है,
सावन की तरूनाइ्र्र
मेरे मन में बस गई ऐसै
जैसै बस जाता है, अलि का गुंजन
कली-कली में...
पुलकित हुआ मैं
पाकर
उसकी सोख-पर-संयत अदायें
छाने लगी प्रीत फिर
जैसे
कारे नभ में इन्द्रधनुष खिल जाये...
हर्षाने लगे ओस-कण तरूपात में
सजने लगे उज्ज्वल स्वप्न
चाॅदनी रात में!
बस अब पुष्प को कलि बन खिलना था
बेकल थे दोनो, दोनो को मिलना था
पर...
पर न जाने क्या हुआ, क्यूॅ मैं हुआ विक्षिप्त
क्यूॅ खोने लगा तिमर में अनुराग दीप्त
अमा के चन्द्र की तरह जाने कहाॅ खो गई
करके मेरे जीवन को पतछड सा विरान...
अब समझा मैं, गुंजन की बेरूखी
और अलि की प्रीत में पुष्प बन खिले
कलि की व्याकुलता...
छण भंगुर ही था, वो नभ पर
छाया नयनाभिराम इन्द्रधनुष
अब अग्नि लगातें हैं ओसकण-तरूपात के
खो गये अमा में, उज्ज्वल स्वप्न चाॅदनी रात के...
2 comments:
बहुत अच्छा !
कविता काफी आच्ची लगी
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