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बुधवार, 9 सितंबर 2009

"गुमसुम तन्हा क्यों"- --जतिन्दर परवाज़


आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं


छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं


गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें



इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं



कुछ और सोच ज़रीया उस को पाने का


जंतर-मंतर जादू-टोना ठीक नहीं


अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है



सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं



मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो



यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं


दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है


हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं


कब तक दिल पर बोझ उठायोगे ‘परवाज़’


माज़ी के ज़ख़्मों को ढ़ोना ठीक नहीं


9 comments:

Unknown ने कहा…

आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं


गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं


बहुत ही पसंद आयी आपकी ये गज़ल । बधाई

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

हिन्दी साहित्य मंच के प्रथम आगमन पर आपका स्वागत है । गज़ल तो लाजवाब है । शुभकामनाएं

अभिनव ने कहा…

वाह वाह.

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत बढिया। हिन्दी साहित्य मचं पर आपका स्वागत है, हिन्दी साहित्य मचं पर योगदान के लिए आभार.............

अनिल कान्त ने कहा…

aapki rachna bahut pasand aayi

निर्मला कपिला ने कहा…

मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो



यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं
कब तक दिल पर बोझ उठायोगे ‘परवाज़’


माज़ी के ज़ख़्मों को ढ़ोना ठीक नहीं
वैसे तो पूरी गज़ल लाजवाब है मगर ये दोनो शेर दिल को छू गये परवाज़ जी की कलम मे जादू है बधाई

Vinay ने कहा…

जतिन्दर जी की रचनाओं के हम दीवाने हैं...

kush ने कहा…

आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं ।

बहुत सुन्दर रचना है । बधाई

Vipin Behari Goyal ने कहा…

अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं



वाह क्या बात है