आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं
गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं
कुछ और सोच ज़रीया उस को पाने का
जंतर-मंतर जादू-टोना ठीक नहीं
अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं
मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो
यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं
दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं
कब तक दिल पर बोझ उठायोगे ‘परवाज़’
माज़ी के ज़ख़्मों को ढ़ोना ठीक नहीं
9 comments:
आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं
गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं
बहुत ही पसंद आयी आपकी ये गज़ल । बधाई
हिन्दी साहित्य मंच के प्रथम आगमन पर आपका स्वागत है । गज़ल तो लाजवाब है । शुभकामनाएं
वाह वाह.
बहुत बढिया। हिन्दी साहित्य मचं पर आपका स्वागत है, हिन्दी साहित्य मचं पर योगदान के लिए आभार.............
aapki rachna bahut pasand aayi
मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो
यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं
कब तक दिल पर बोझ उठायोगे ‘परवाज़’
माज़ी के ज़ख़्मों को ढ़ोना ठीक नहीं
वैसे तो पूरी गज़ल लाजवाब है मगर ये दोनो शेर दिल को छू गये परवाज़ जी की कलम मे जादू है बधाई
जतिन्दर जी की रचनाओं के हम दीवाने हैं...
आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं ।
बहुत सुन्दर रचना है । बधाई
अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं
वाह क्या बात है
एक टिप्पणी भेजें