शाम की छाई हुई धुंधली
चादर से
ढ़क जाती हैं मेरी यादें ,
बेचैन हो उठता है मन,
मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको ,
उन जगहों पर ,
जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी ,
बैठकर वहां मैं
महसूस करना चाहता हूँ तुमको ,
हवाओं के झोंकों में ,
महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को ,
देखकर उस रास्ते को
सुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को ,
और
देखना चाहता हूँ
टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा ,
देर तक बैठ
मैं निराश होता हूँ ,
परेशान होता हूँ कभी कभी ,
आखें तरस खाकर मुझपे,
यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर ,
मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर ,
थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,
इन्ही आंसूओं नें मुझे बचाया है टूटने से ,
फिर मैं उठता हूं
फीकी मुस्कान लिये
एक नयी शुरूआत करने ।
5 comments:
ांरे ये तो पूरा आँसूओं का दरिया बहा दिया ।
थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,
इन्ही आंसूओं नें मुझे बचाया है टूटने से ,
फिर मैं उठता हूं
फीकी मुस्कान लिये
एक नयी शुरूआत करने ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है ।
हमेशा मुस्कराओ और आगे बढो शुभकामनायें
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति -- एहसास की
gehre ehsaas sunder rachana
काफ़ी अच्छा भावचित्र खींचा है आपने..और कविता को सकारात्मकता की ओर मोड़ कर बेहतरीन अंत दिया है आपने..
सुन्दर, गमगीन करने वाली रचना.
एक टिप्पणी भेजें