इतना कि _
जितना उससे नहीं हो सकता था
हूलते हुए दर्द को पी जाना सहज न था
तब तो वह जानती ही न थी
दर्द कहते किसे हैं
वह तो _
खेलते हुए ठोकर लग जाने को
दर्द का का नाम देकर
माँ के आँचल के खूंटे से बाँध आती थी
तब तो पता ही न था
कि - पहली बार किए गए प्यार में भी
खून कि धार का दर्द लिपटा होता है
और
मिलन की सारी उमंग
सहसा भय की सिसकियों में बदल जाया करती है
इसी को तो कौमार्य व्रत भंग कहते हैं
और तब सहसा
भूली हुई कुंती याद आती है
यह कैसा लोक लाज है
जिसे लाज नहीं आती ।
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
समंदर - कविता ( मधुलिका की प्रस्तुति )
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9 comments:
मधुलिका जी , बहुत ही खूबसूरत रचना के लिए बधाई ।
सशक्त लेखन आपके द्वारा । शुभकामनाएं
बहुत खूब
बहुत सुन्दर कविता है.
घुघूती बासूती
sahi hai jahaan sukh hai wahaan dukh bhi hai !
अच्छी कवित है आभार्
खूबसूरत रचना.
मधुलिका जी, दर्द की सच्चाई आपने एक नारी के दृष्टिकोण से बड़े ही मर्मिक रूप से बताई.वैसे पीड़ा के बाद ही तो आनंद का मोल पता चलता है.
शुभकामनाऐं
मधुलिका जी आपकी रचना बहुत ही उम्दा है। लेकिन आपसे एक बात कहना चाहूँगा कि आप प्यार में होने वाले दर्द के बाद जो अनुभूती प्राप्त होती है उसका भी उल्लेख करती तो रचना और अच्छी बन पड़ती।
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