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शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

शाम

शाम की छाई हुई धुंधली


चादर से

ढ़क जाती हैं मेरी यादें ,

बेचैन हो उठता है मन,

मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको ,

उन जगहों पर ,

जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी ,

बैठकर वहां मैं

महसूस करना चाहता हूँ तुमको ,

हवाओं के झोंकों में ,

महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को ,

देखकर उस रास्ते को

सुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को ,

और

देखना चाहता हूँ

टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा ,

देर तक बैठ

मैं निराश होता हूँ ,

परेशान होता हूँ कभी कभी ,

आखें तरस खाकर मुझपे,

यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर ,

मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर ,

थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,

इन्ही आंसूओं नें मुझे बचाया है टूटने से ,

फिर मैं उठता हूं

फीकी मुस्कान लिये

एक नयी शुरूआत करने ।

5 comments:

निर्मला कपिला ने कहा…

ांरे ये तो पूरा आँसूओं का दरिया बहा दिया ।
थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,

इन्ही आंसूओं नें मुझे बचाया है टूटने से ,

फिर मैं उठता हूं

फीकी मुस्कान लिये

एक नयी शुरूआत करने ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है ।
हमेशा मुस्कराओ और आगे बढो शुभकामनायें

M VERMA ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति -- एहसास की

mehek ने कहा…

gehre ehsaas sunder rachana

अपूर्व ने कहा…

काफ़ी अच्छा भावचित्र खींचा है आपने..और कविता को सकारात्मकता की ओर मोड़ कर बेहतरीन अंत दिया है आपने..

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

सुन्दर, गमगीन करने वाली रचना.