जब मैं नमाज नहीं पढ़ता था
खुदा मेरा दोस्त था...
जब भी कोई काम पड़ता था
लड़ता था झगड़ता था
खुदा मेरा दोस्त था...
जब भी परेशां होता था
मेरा काम बना देता था
खुदा मेरा दोस्त था...
जब से नमाज पढ़ने लगा हूँ
वो बड़ा आदमी हो गया है
उसका रुतबा बड़ा हो गया है
मुझसे दूर जा बैठा है
अब भी मेरी दुआएँ
होती हैं पूरी
लेकिन हो गई है
हम दोनों के बीच दूरी
वो बड़ा हो गया है
मैं छोटा हो गया हूँ
मैं सजदे में होता हूँ
वो रुतबे में होता है
पहले का दौर और था
जब मुश्किलों का ठौर था
बन आती थी जब जान पे
था पुकारता मैं तब उसे
अगर करे वो अनसुनी
था डांटता मैं तब उसे
कहता था जाओ खुश रहो
खुदा मेरा दोस्त था...
अब कि बात और है
वो हक बचा न दोस्ती
न कर सकूँ मैं जिद अभी
वो हो गया मकाम पे
जा बैठा असमान पे
थी कितनी हममें दोस्ती
है बात अब न वो बची
आ जाए गर वो दौर फिर
हो जाए फिर वो दोस्ती
आ जाए चाहे गर्दिशी
मिल जाए मेरी दोस्ती
मैं कह सकूँ उसे जरा
अगर मेरी वो ना सुने
मैं डांट दूँ उसे जरा
क्या फायदा नमाज से
कि दोस्त गया हाथ से
मैं सोचता हूँ छोड़ दूँ
ये रोजे और नमाज अब
ना जाने है कहाँ छुपा
वो मेरा दोस्त प्यारा अब
मैं खो गया हूँ भीड़ में
रिवायतों की भीड़ में
वो सुनता है अब भी मेरी
न चलती है मर्जी मेरी
वो देता है जो चाहिए
मगर मुझे जो चाहिए
वो ऐसी तो सूरत नहीं
अगर यूँ ही होता रहा
जन्नत मेरी ख्वाहिश नहीं
मुझे वो दोस्त चाहिए
मुझे वो दोस्त चाहिए
मुझे वो हक भी चाहिए
मुझे वो हक भी चाहिए
जो कह दूँ एक बार में
हो दोस्ती पुकार में
वो सुनले एक बार में
तू सुनले एक बार में
खुदा तू मेरा दोस्त था
खुदा तू मेरा दोस्त था....
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1 comments:
बहुत खूब, काश वह दोस्त ही बना रहे..
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