रविवार, 24 अक्टूबर 2010
भारतोन्नति में बाधक हैं अतीत के सुनहरे स्वप्न!******* सन्तोष कुमार "प्यासा"
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
वो आई !
बुधवार, 13 अक्टूबर 2010
दोहे..............कवि कुलवंत सिंह
रविवार, 10 अक्टूबर 2010
राज की नीति
शहर की सडकों पर कुछ दिनों से रोजना युवाओं के दौडते फर्राटेदार वाहनों और उस पर जिन्दाबाद का शोर,बरबस ही शहर के जिन्दा होने का प्रमाण दे जाता है।युवाओं की भागदौड देखकर लगा कि शायद किसी आन्दोलन या फिर बाजार बन्द की तैयारी चल रही है। लेकिन हमारे अनुमान पर भैय्याजी के पिचके आम से चेहरे ने पानी फेर दिया।उनका निचुडा सा चेहरा देख,हमने पुछ ही लिया कि भैय्या जी आखिर माजरा क्या है...?युवाओं के जोश को देख कर वे काहे को दुबले हुऐ जा रहे हैं ?
भैय्या जी तपाक से बोले -तुम्हें मालूम है कि युवाओं में इतना जोश क्यों है ...?
--क्यों है भला.....?
--कॉलेज में चुनाव हैं और ये सभी छात्रसंघ के चुनाव में पसीना बहा रहे हैं.......।
हमें बडा आश्चर्य हुआ कि चुनाव कॉलेज में हो रहे हैं और चेहरे की हवाइयां भैय्या जी की उड रही हैं ।हमारी मनसिक स्थिति समझकर भैय्या जी स्वयं ही शब्दों की जुगाली करने लगे-तुम्हें मालूम है शर्मा जी हमारे लाडले भी छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव लड रहे हैं.......।
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तो भला इसमें इतना मायूस होने की क्या बात है....तुम्हें तो खुश होना चाहिऐ....?भैय्या जी मुँह फाडकर अचरज से हमारी तरफ देखते हुऐ बोले - इसमें खुश होने जैसी क्या बात है......?
अब हमने अपने ज्ञान का पिटारा खोलते हुऐ उन्हें समझाया कि देखो भैय्या जी तुम्हारा लाडला सपूत आज छा्त्रसंघ अघ्यक्ष का चुनाव लड रहा है तो कल नगर पालिका का चुनाव लडेगा....फिर एम.एल.ए.,और एम.पी. का भी चुनाव लड सकता है.....और भगवान के साथ यदि जनता और आलाकमान का भी साथ रहा तो बस फिर क्या है.......? फिर तो पाँचों घी में और..................!तुम्हें मालूम है कि ला्डला डिग्री लेकर कहीं नौकरी भी करेगा तो भला क्या मिलेगा......?जिन्दगी भर की नेताजी की गुलामी.....!बाबू नहीं तो ज्यादा से ज्यादा आई.ए.एस अफसर बन जाऐगा बस .....चाकरी तो विधायक...सांसद और मंत्री जी की करनी पडेगी......मंत्री जी यदि कहते हैं कि मँहगाई नहीं बढ रही है तो अफसर को भी कहना पडता है कि सब ठीक है ....क्योंकि मन्त्री और नेता लोग कभी गलत नहीं होते हैं....।गलत होती है तो केवल भोली जनता .........।
अब जनता हाय मँहगाई....हाय मँहगाई कर रही है लेकिन सरकार है कि जैसे साँप सूँघ गया हो.... ...।मजदूरों और सरकारी कर्मचारियों को अपना वेतन बढवाने के लिऐ न जाने कितने पापड बेलने पडते हैं ....आन्दोलन करने पडते हैं....लाठियाँ तक खानी पडती हैं ...लेकित तब भी कोई जरूरी नहीं कि सरकार के कान पर जूँ रैंग ही जाऐ.......? कई बार तो नौकरी के लाले और पड जाते हैं.......।
लेकिन राजनीति में आने पर नेता जी को भला काहे की चिन्ता...........क्योंकि सैय्या भये कोतवाल तो डर काहे का.......।जब मरजी आऐ वेतन बढाओ...........जितने चाहे भत्ते बढाओ...........चन्द मिनटों में ही वेतन बढोतरी का बिल पास..... .....न हडताल की जरूरत और न ही डण्डे खाने की नौबत..........!हकीकत तो यह है कि इन नेताओं को तो शायद वेतेन भत्तों की जरूरत ही कहाँ पडती होगी......?मान भी लिया जाऐ कि मामूली से वेतन- भत्तों में काम नहीं चल रहा तो भला राजनीति में आने पर एक ही चुनाव जीतने के बाद नेता जी के पास करोडों की सम्पत्ति भला कहाँ से और कैसे आ जाती है यह पहेली आम जनता की तो समझ से सदा ही परे रही है.............। मँहगाई से भी कई गुना तेज गति से नेता जी की सम्पत्ति बढती जाती है.........!पडोसियों, मित्रों, और पार्टी के पसे से एक बार चुनाव लडकर जीतने के बाद जनता की सेवा हो या न हो स्वयं और स्वयं के परिवार कीतो जी भर के सेवा हो ही जाती है.....।
एक साधारण कर्मचारी को तो अपनी छत और बच्चों की पढाई के लिऐ बैंक लोन का जुगाड करने में ही जिन्दगी बीत जाती है क्योंकि खुद की कमाई में तो या तो बच्चों को खिला ले ..या फिर मकान और बच्चों की पढाई का सपना पूरा कर ले.........!
तभी हमारा ध्यान भैय्या जी की और गया तो हमने पाया कि वे मुँह फाडे आसमान को ताक रहे थे....।हमने उन्हें झंझोडते हुऐ कहा कि भैय्या जी कहाँ खो गये......?भैय्या जी नींद से जागते हुऐ बोले.- कहीं नहीं शर्मा जी......सांसद बेटे के बंगले में पोते- पोतियों को खिला रहा था.............!
डॉ.योगेन्द्र मणी कौशिक
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
द्रोपदी पत्र....डा श्याम गुप्त
हे धर्मराज!
मैं बन्धन थी ,
समाज व संस्कार के लिए ,
दिनभर खटती थी ,
गृह कार्य में,
पति परिवार पुरुष की सेवा में
आज , मैं मुक्त हूँ,
बड़ी कंपनी की सेवा में नियुक्त हूँ,
स्वेच्छा से दिनरात खटती हूँ;
अन्य पुरुषों के मातहत रहकरकंपनी की सेवा में
शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010
झलक ................श्यामल सुमन
लौ थरथरा रही है बस तेल की कमी सेउसपर हवा के झोंके है दीप को बचाना
मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनातेमालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना
मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासतरोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना
मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ मेंचाहत बिना भी सच का पड़ता गला दबाना
अबतक नहीं सुने तो आगे भी न सुनोगेमेरी कब्र पर पढ़ोगे वही मरसिया पुराना
होते हैं रंग कितने उपवन के हर सुमन केहै काम बागवां का हर पल उसे सजाना